चार लंबी कहानियों का यह संग्रह मोटे तौर पर शहरों के इर्द-गिर्द ही घूमता है। शहर के करवट लेने और होने वाली घटनाओं के ‘नेरेटिव’ कैसे बनते हैं यह इस संग्रह की कहानियों से समझा जा सकता है। पहली कहानी जिस के शीर्षक पर पुस्तक का शीर्षक भी है, अपने चुस्त अंदाज में शहर की लापरवाही को बताती चलती है। कहानी का मुख्य पात्र वैसे तो ऋषभ है लेकिन छापामार की तरह बीच-बीच में आ जाने वाला अरूप पाठकों के मन में कील की तरह मजबूती से गड़ जाता है। एक शहर कितना अपना और परिस्थिति बदलने पर कैसे पराया हो जाता है, यह प्रवीण कुमार ने बहुत कुशलता से दिखाया है। हाव-भाव, बोली-भाषा परिवेश से पहली और आखिरी कहानी का शहर बिहार का कोई शहर लगता है लेकिन सच तो यह है कि हम सब के अंदर ऐसे ही कस्बे और शहर हरदम उगे रहते हैं, जिन्हें महानगरों के क्रांक्रीट के जंगल ढक देते हैं। प्रवीण कुमार अपनी कहानियों में ऐसे ही रंगबाज के शहर से टहलते हुए महानगर की बदबूदार बस्ती में ‘नया जफरनामा’ के रूप में चले जाते हैं। जहां एनजीओ की दुनिया है, आंदोलन हैं, अतिक्रमण हैं, छुटभैया नेता से लेकर ‘राजनेता’ कहलाने वाले महानुभाव भी हैं। इसी कहानी में वह एनजीओ का किस्सा भी कहते हैं लेकिन अपनी ओर से अच्छे या बुरे का प्रस्ताव पारित नहीं करते।
हाल के दिनों में लंबी कहानियों का दौर चल पड़ा है। लेकिन अपने चरित्रों को स्थापित करने में जगह घेरना कई बार पाठकों को अखरता है। लंबी कहानियों की खूबी उनके विस्तार में होनी चाहिए न कि वर्णन में। इस संग्रह की चारों कहानियों में विस्तार और वर्णन बहुत खूबी के साथ कदमताल मिलाते नजर आते हैं। ‘लादेन ओझा की हसरतें’ को छोड़ दिया जाए तो कहीं भी पात्र उलझाव पैदा नहीं करते। इस कहानी में समझने की दिक्कत के बावजूद सनातन काल की हिंदू-मुस्लिम एकता के सपने और फिर इस सपने के बिखर जाने की कोशिश पढ़ने में ऊब पैदा नहीं करती। हालांकि, इस संग्रह को पहली कहानी की वजह से ज्यादा पहचान मिल रही है लेकिन इसकी अंतिम कहानी ‘चिल्लैक्स लीलाधारी’ अपने कहन, शैली और पात्रों की वजह से अनूठी कहानी है। प्रेम कहानियों के अक्सर ही साधारण हो जाने का खतरा होता है। प्रवीण कुमार की कहानी इस खतरे के आस-पास भी नहीं फटकती। उन्होंने अपने हर पात्र को इतना सधा हुआ रखा है कि वह अपने हिस्से से ज्यादा कहानी में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। मुख्य पात्र अष्टभुजा सिंह, अष्टभुजाधारी से लेकर लीलाधर, लीलाधारी, गुलाबो तक की यात्रा के बाद एबी बन गया है। उसे नाम की परवाह नहीं, उसे अपने पिता की परवाह नहीं, उसे समाज की परवाह नहीं, उसे परवाह है तो अपने प्रेम की। एक जिम्मेदार प्रेमी के रूप में वह प्रेम में पड़ता है, बाहर निकलता है और हर प्रेम को शिद्दत से याद करता है। एबी की इस यात्रा में बचपन से जवानी के बीच के जो ‘शिफ्ट’ हैं वह इस कहानी को पाठकों की पसंद की सूची में ऊपर बनाए रखेंगे। प्रवीण कुमार की खासियत है कि वह अपनी कहानी में कहीं भी ‘बौद्धिक’ का अतिरेक नहीं करते। उनकी पहली कहानी का पात्र स्कूल में हिंदी का मास्टर है। वह बीच-बीच में अपने पाठ्यक्रम से समाज को जोड़ने की कोशिश करता है। उसे भवभूति याद आते हैं तो बुद्ध की शिक्षा भी। यदि पाठकों को लगने लगे कि किसी संदर्भ का इस्तेमाल पाठकों को प्रभावित करने के लिए किया गया है तो लेखक के प्रति निराशा उपजती है। इस मायने में कहानी यहां पर अपने दम पर संदर्भ का बोझ ढोती है। संदर्भ किसी आख्यान का हिस्सा न हो कर पात्र के चरित्र का हिस्सा हो कर निकलते हैं। हिंदी के एक अध्यापक के पास 50 मिनट के लेक्चर से बाहर निकलना वाकई चुनौती रही होगी। अपने छात्रों को नोट्स लिखवाते वक्त कई बार अध्यापक समय सीमा भूल जाते हैं। पर छबीला, रंगबाज, लादेन और लीलाधारी ने मिलकर इस आदत को संभाल लिया है। प्रवीण कुमार ने बदलते वक्त के साथ गुजरे जमाने के संतुलन को साधा है। वे भूत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य की ओर छलांग लगाते हैं।