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कठुआ, उन्नाव, सूरत, एटा...

हालात बदलेंगे, जब समाज जगेगा। अपराध को सामुदायिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति और राजनैतिक संरक्षण की कोशिशों को नाकाम करने के लिए जनमानस को ही आगे आना होगा
मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं

मीडिया को कठुआ की उस आठ साल की बच्ची का चेहरा दुनिया के सामने लाने से बचना चाहिए था, क्योंकि उस मासूम का वह चेहरा करोड़ों लोगों के जेहन में भयावह तस्वीर की तरह बस गया है। वह तस्वीर सभ्य समाज और मानवता को शर्मसार करने की हद तक डरावनी है। लेकिन बात केवल आठ साल की मुस्लिम बकरवाल समुदाय की बच्ची तक नहीं रुकती, वह तो उन्नाव होते हुए सूरत तक जाती है और फिर वापस एटा की लगभग उसी उम्र की बच्ची के साथ दुराचार और हत्या तक आ जाती है। इन तमाम मामलों में दुराचार के अलावा जिस तरह की नृशंसता और वहशीपन दिखा है, वह इन कुकृत्यों को अंजाम देने वाले लोगों को मानव श्रेणी से बाहर ले जाता है। सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि मासूम बच्चे यौन अपराधों के ज्यादा शिकार होते जा रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2016 में इनमें 82 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। क्या यह किसी सभ्य समाज के विकास का संकेत है या उसके उलट जा रहे समाज का चिंताजनक पहलू है? क्या दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक कामकाजी युवाओं वाली आबादी के फायदे से आगे बढ़ने के दावे वाले देश के लिए यह शुभ लक्षण हैं। कहीं 'न्यू इंडिया' का यह नया और वीभत्स स्वरूप हमें दुनिया के सामने नीचा दिखाने का पैमाना तो नहीं बनता जा रहा है?

अपराध का अपना मनोविज्ञान होता है और कई बार सख्त सजा भी अपराधी को नहीं रोक पाती है, लेकिन सबसे अधिक चिंता तब होती है जब अपराध पर अंकुश लगाने वाला तंत्र और समाज को दिशा दिखाने वाला वर्ग अपराधी के साथ खड़ा दिखे। हाल की दो घटनाओं में तो ऐसा ही हुआ है। कठुआ में आठ साल की जिस बच्ची को कई दिन बंधक बना और नशीली दवाएं देकर रेप किया गया और बाद में उसकी नृशंस हत्या कर दी गई, वह घुमंतू बकरवाल समुदाय की थी। यह समुदाय विकसित हो रही अर्थव्यवस्था और बेहतर सामाजिक विकास के दावों के बीच अभी भी बिना किसी स्थायी ठिकाने और सामाजिक सुरक्षा के जीवन बसर करने को मजबूर है, जो हमारे नीति निर्धारकों की नाकामी का एक नमूना ही है। एसआइटी की चार्जशीट के मुताबिक, बच्ची के साथ घिनौनी हरकत इस समुदाय को आतंकित करने के लिए की गई ताकि वह रसाना गांव की कीमती जमीन को छोड़कर कहीं चला जाए। हालांकि, यह अभी जांच और न्यायालय से तय होना है कि क्या यही मकसद था। लेकिन अगर यह सही है तो यह मानवता को शर्मसार करने वाली सोच है। जिस तरह से इस मामले में आरोपियों के हिंदू होने से मामले को हिंदू बनाम मुस्लिम के खांचे में डालने की कोशिश की जा रही है, वह हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों और सार्वभौमिक न्याय की धारणा पर भी चोट है। यह घटना 2012 के निर्भया कांड की तरह घोर अमानवीय है, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। लेकिन कठुआ इसलिए अलग है क्योंकि इसे राजनैतिक रंग देने की कोशिश की गई और एक सत्ताधारी पार्टी के लोग आरोपियों के साथ खड़े दिखे। स्थानीय वकीलों ने जिस तरह इस मामले में भूमिका निभाई, वह और भी घातक है। एसआइटी की रिपोर्ट का विरोध करने के लिए जुलूस निकाले गए और उसमें तिरंगा लहराया गया, जो बेहद चिंताजनक है।

असल में अपराध की भयावहता तब और बढ़ जाती है जब उसे रोकने वाली व्यवस्था ही अपराधी के साथ खड़ी दिखाई दे। उन्नाव के मामले में ऐसा ही हुआ। एक नाबालिग स्थानीय बाहुबली विधायक पर दुष्कर्म का आरोप लगाती है और पुलिस उसकी शिकायत दर्ज करने से मना कर देती है। उसके बाद उसके परिवार पर दमन का दौर शुरू होता है जो अंतत: उसके पिता की मौत तक पहुंचता है। इस पूरे प्रकरण के मीडिया की सुर्खियों में आने के बाद भी जिस तरह का रवैया पुलिस और प्रशासन का रहा, वह यह साफ करने को काफी है कि किसी राजनैतिक रसूख वाले व्यक्ति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की कोशिश कैसे हालात पैदा कर सकती है। हालांकि दोनों मामलों का हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से संज्ञान लिया, वह सत्ताधारियों के लिए सबक है। उन्नाव मामले में तो विधायक की गिरफ्तारी ही हाइकोर्ट की जवाबतलबी के बाद होती है।

दोनों मामलों में देश भर में भारी गुस्से के माहौल के बीच सरकारें और सत्ताधारी दलों के नेता इन मामलों का राजनीतिकरण न करने की नसीहत देते रहे लेकिन क्यों? राजनीति के रास्ते ही तो दलों को सत्ता हासिल होती है तो फिर उनके कामकाज पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाने चाहिए? इन घटनाओं के बाद जिस तरह से देश के कई दूसरे हिस्सों से मामले सामने आए हैं वह कानून-व्यवस्था के साथ समाज के नैतिक पतन का ही आईना है। हमें इस स्थिति को बदलना होगा और यह केवल बेहतर कानून-व्यवस्था से संभव नहीं है, बल्कि सामाजिक मूल्यों को मजबूत करना इसका बड़ा उपाय है। साथ ही अपराध को सामुदायिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति और राजनैतिक संरक्षण की कोशिशों को नाकाम करने के लिए जनमानस को ही आगे आना होगा। 

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