यकीनन दो अप्रैल का दलित आक्रोश एक ऐतिहासिक घटना थी। यह मूलतः दलित नौजवानों के गुस्से का इजहार था। इसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह देश भर में हुआ। कोई नेता या संगठन इसके नेतृत्व की दावेदारी नहीं कर सकता क्योंकि यह स्वतःस्फूर्त था। जब भारत बंद होने लगा तब कुछ नेता और संगठन श्रेय लेने के लिए आगे आने लगे। दलित विचारकों और नेताओं से कहीं अधिक समाज को सोचना होगा कि कहां चूक हो रही है।
बंद तो बहुत होते हैं लेकिन दो अप्रैल के भारत बंद जैसा एक भी नहीं है। कोई विशेष वर्ग या जाति पूरे भारत के स्तर पर आज तक ऐसा न कर सकी, राजनैतिक दलों को छोड़ कर, जाति या समाज ने अगर बंद किया है तो किसी के विशेष क्षेत्र में ही वह रहा है। दलितों, आदिवासियों ने इस बंद को अपने बल पर किया है, न कि किसी बाह्य शक्ति की मदद से। तथाकथित सामंतवादी तत्वों ने इस बंद को अपना अपमान समझ करके झगड़ा, दंगा किया, संपत्ति और जान-माल का नुकसान हुआ। ग्वालियर का ही उदाहरण लें तो बड़ी संख्या में तथाकथित सवर्णों ने दलित आंदोलनकारियों के साथ मारपीट की। यह शुभ संकेत नहीं है क्योंकि इसमें एक गृह युद्ध की छवि दिखती है। उसके बाद बड़े पैमाने पर दलितों को सताया जा रहा है और उनके ऊपर फर्जी मुकदमे लादे गए हैं और यहां तक कि अदालत में पेश होने के समय भी उनको मारा पीटा गया। जो ईर्ष्या, वैमनस्य तथाकथित सवर्णों का इस आंदोलन को रोकने में दिखा, वह दलितों और आदिवासियों के दिल और दिमाग पर लंबे समय के लिए गहरी छाप छोड़ गया। देखना है कि यह घाव कैसे ठीक होता है और समाज के कौन लोग इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए आगे आते हैं। यह कैसे संभव है कि दो बड़े समुदाय लगातार आंतरिक कलह में रहें और देश के लिए चिंता न बनें।
अतीत में देश को बहुत कीमत चुकानी पड़ी और सिकंदर के हमले के बाद आजाद होने तक भारत बाह्य आक्रमणकारियों से पराजित होता रहा है जिसका मुख्य कारण जाति ही रही है। जब आक्रमणकारी आए तो यहां के शोषित खुश होते थे कि चलो जाति आधारित क्रूरता से कुछ तो राहत मिलेगी। अगर यह सच नहीं है तो लगभग चालीस करोड़ वाले भारत पर कैसे डेढ़ लाख अंग्रेज हुकूमत कर गए। दुनिया में कोई ऐसी मिसाल नहीं है जब इतनी बड़ी आबादी पर मुट्ठी भर बाहरी लोग निरंतर राज करते रहे हों। कोई न कोई बहाना पराजय का बनता रहा कि कभी हमारे हथियार पुराने थे, तो कभी भितरघात हुआ और प्रायः हाथी, घोड़े और मौसम से धोखा मिलता ही गया। हमारे इतिहासकार इतने नासमझ निकले कि पराजयों का कारण व्यक्ति-विशेष की धोखेबाजी जैसे जयचंद, अमीचंद जैन, सुराजुद्दौला वगैरह में देखते रहे। मान भी लिया जाए कि किसी व्यक्ति-विशेष की वजह से युद्ध में पराजय मिली, लेकिन चंद हजार लोग निरंतर शासन कैसे करते रहे, अगर जनता का मौन समर्थन नहीं था। मात्र जनता के असहयोग से ही चंद दिनों में अपने आप आक्रमणकारी भाग खड़े होते, बहुजन समाज क्यों लड़ता जब उसका शोषण देश के सवर्णों से कहीं अधिक होता था।
दुनिया के इतिहास में इतना बेजोड़ और दर्दनाक शोषण और भेदभाव और कहीं न रहा होगा कि व्यक्ति अपना मलमूत्र, पसीना तो साफ कर सकता है लेकिन दलित के छूने से अपवित्र हो जाएगा। समाज हजारों जातियों में बंटा हुआ था और सबके व्यवसाय निर्धारित थे और उसकी सीमा लांघने का मतलब है कर्म के सिद्धांत की अवहेलना करना। यह बताया गया कि जो अपनी जाति का कृत्य नहीं करेगा, वह नरक में जाएगा, इसलिए जातीय परंपरानुसार कोई कपड़ा धोता रहा, कोई बाल काटता रहा, कोई जूता बनाता रहा और कोई लोहे का कार्य करता रहा, राजा कोई हो उनको इससे क्या मतलब। इस बात का बोध कराया गया कि जो मिल गया वह बहुत है। हम कितने विचित्र लोग हैं कि इतनी दुर्दशा के बावजूद सुधर न सके और जाति को खत्म करके एक समाज न बना पाए। दो अप्रैल का आंदोलन फिर से जाति की खाई को और गहरी कर गया।
आंतरिक द्वंद्व किसी समाज का हो, उसे खत्म करते रहना चाहिए। चीन के महान क्रांतिकारी माओ त्से तुंग समाज के अंतर्विरोध को खत्म कर एक सूत्र में बांधते रहे। दो अप्रैल की घटना का असर उत्पादन, शिक्षा और विकास पर पड़ना ही था जिसकी कीमत सभी को चुकानी पड़ेगी। इतनी बड़ी आबादी को उत्पादन शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय, सेवा वगैरह से वंचित करके कैसे विकसित भारत बनाया जा सकता है। क्या सवर्ण अपनी कब्र नहीं खोद रहे हैं? सुप्रीम कोर्ट का दलित एक्ट और विश्वविद्यालय के शिक्षकों में भर्ती से संबंधित निर्णय इस आंदोलन के लिए चिंगारी का काम कर गया। जो भी हो, एक बात जरूर प्रमाणित हो गई है कि अब दलितों और पिछड़ों को अपमानित और शोषित करके नहीं रखा जा सकता।
(लेखक भाजपा सांसद और दलित नेता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)