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डिजिटल से जुड़ता-कटता भारत

डिजिटल इंडिया की सफलताओं पर गौरव करने के साथ एक व्यावहारिक सवाल पर गौर किया जाए। एक अरब से अधिक मोबाइल और लगभग 80 करोड़ को आधार कार्ड देने के बावजूद राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी के एक मंत्री ने गरीब महिला को साधारण राशन कार्ड दिलाने के आश्वासन पर बलात्कार तक कर दिया।
गरीब महिलाओं के हाथ में मोबाइल होना डिजिटल इंडिया की गारंटी नहीं

केंद्र और राज्य सरकारों ने समाज में अधिक आमदनी वाले परिवारों के राशन कार्ड पर रोक लगा दी हो, लेकिन करोड़ों परिवार राशन पर थोड़ा ठीक या घटिया अनाज-चीनी मिलने पर भी पेट भर लेते हैं। आम आदमी पार्टी के नेता सत्ता के नशे में चूर हो गए, लेकिन कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तो दशकों से दिल्ली में सत्ता की राजनीति करती रही हैं। कुछ वर्षों से बहुजन समाज पार्टी भी दलितों का वोट बटोरने दिल्ली में सक्रिय रही है। इन पार्टियों के कार्यकर्ता क्या गली-मोहल्लों में गरीब लोगों को राशन कार्ड, निगम या सरकारी स्कूलों में निर्धन बच्चों के प्रवेश और जीने लायक पीने का पानी उपलब्ध करने के लिए सक्रिय नहीं रह सकते? एक समय था कि कांग्रेस या संघ के स्वयंसेवक हर मोहल्ले में परिवारों के दु:ख-दर्द की खोज खबर रखते थे। डिजिटल इंडिया ने नेताओं के साथ कार्यकर्ताओं को भी मोबाइल, फेसबुक, ट्विटर और ई मेल पर आश्रित बना दिया है। वे डिजिटल इंडिया की प्रगति का झंडा उठाकर इसी माध्यम से अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाते रहते हैं। साइकिल और पैदल चलने में भी उन्हें कष्ट होने लगा है। कार, स्कूटर, मोटर साइकिल रहने पर कोई गरीब महिला-पुरुष उन्हें रास्ते में कैसे रोके या कहीं रुकना पड़ा तो आश्वासन देने के बाद सरकार या नगर-निगम की जिम्मेदारी के तर्क देकर कागजी खानापूर्ति कर सकते हैं। पार्टी की बैठकों में हर दल के नेताओं के समक्ष एक ही शिकायत होती है कि मंत्री, सांसद, विधायक, पार्षद सुनते नहीं और अफसर मनमानी करते हैं।

असम, मणिपुर, छत्तीसगढ़, ओड़ीसा से काम की तलाश में दिल्ली-मुंबई पहुंचने वाली गरीब महिलाएं या पुरुष मोबाइल के जरिये गांव-परिवार से लगातार संपर्क कर खुश हो जाते हैं। इस क्रांति से चिट्ठी-पत्री देर से पहुंचने का दु:खड़ा कम हो गया लेकिन सरकार ने कभी ध्यान दिया कि ऐसे गरीब श्रमिकों को अपने घर छोटी-मोटी रकम भेज पाना कितना कठिन है? आज भी सैकड़ों गांवों में बैंक की सुविधा नहीं है। पूर्वोत्तर में स्टेट बैंक की शाखाएं खुल गई हैं लेकिन महानगरों में पहुंचे गरीबों के पास न पहचान पत्र होता है और न बैंक खाता। स्टेट बैंक भी उन्हें घर भिजवाने के लिए एक अलग बैंक कार्ड बनवाने की सलाह देते हैं या बैंक के आस-पास एजेंटों की दुकानें कमीशन लेकर पैसा भिजवाती हैं। अशिक्षित गरीबों की फजीहत को कोई नेता-कार्यकर्ता नहीं देखता। कुछ महीने पहले मैंने स्वयं एक-दो मंत्रियों और सांसदों को यह कठिनाई बताई तो उन्हें कुछ अटपटी लगी और पता लगाने का आश्वासन मिला। अब यह कोई कारपोरेट शिकायत तो थी नहीं, जिस पर कानूनी कार्रवाई की आशंका हो। इसलिए बात भुला दी गई।

यह तो नेता-जनता के बीच डिजिटल इंडिया के कारण हुई दूरी की बात। अब मध्य और शिक्षित वर्ग के हाल पर विचार करें। महानगरों में ही नहीं, देश के अन्य नगरों में लोग अपने काम-धंधे में व्यस्त रहते हैं। इसलिए आस-पड़ोस के लोगों से मोबाइल के व्हाट्स एप पर संपर्क में रहना बेहतर समझते हैं। मोहल्ले या हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले पहले एक-दूसरे के साथ दैनंदिन की छोटी-मोटी समस्याएं सुलझाने के लिए मिल लेते हैं। सहकारी आंदोलन के अभियान तो इतिहास के पन्नों में चले गए। फिर भी आवासीय सहकारी समितियों के हजारों फ्लैट हैं। अब उनमें भी आमने-सामने बात के बजाय मोबाइल से मैसेज के जरिये हाल-चाल और समस्याओं पर विचार होता है। नियमों की औपचारिकता या गंभीर घटना होने पर लोग जमा होते हैं। मतलब, इक्कीसवीं शताब्दी की प्रगति में मेल-जोल बढ़ने के बजाय घट रहा है। यदि पारिवारिक-सामाजिक मिलन का अवसर हो तो अधिकांश लोगों का आधा ध्यान मोबाइल में लगा रहता है। कभी खाना या चाय-कॉफी ठंडी हो जाए तो ध्यान आता है। अरे, भूल ही गए, हां कोई कह रहा था- वाला हाल दिखाई देगा। जर्मनी, जापान, ब्रिटेन, अमेरिका की तरह मध्य वर्गीय परिवारों का दायरा सिमटने लगा है। वे यह भूल जाते हैं कि मोबाइल, टी.वी., कंप्यूटर के अति उपयोग से उन देशों में भी बच्चों, युवाओं और वयस्कों में भी कई मानसिक या शारीरिक बीमारियां होने लगी हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं रह गया है। भारत के चिकित्सा विशेषज्ञ भी चेतावनी देने लगे हैं कि मोबाइल, फेसबुक, टी.वी. से बच्चों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव हो रहा है। एक तरफ मोबाइल से बच्चों के घर से बाहर रहने पर संपर्क की सुविधा है, लेकिन घर में दिन-रात मोबाइल की लत से उन बच्चों के पास माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी के लिए समय की कमी हो गई है। उनकी दुनिया मोबाइल, आई पेड में सिमट गई है। किताबों से ज्यादा उन्हें डिजिटल ज्ञान में रुचि रहती है। इस डिजिटल क्रांति की सफलता के साथ स्वास्थ्य-सुखी समाज पर विचार करने और कुछ व्यावहारिक समाधान निकालने के लिए देर-सवेर अवश्य सोचना होगा।

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