समंदर किनारे की मौज-मस्ती, जहां-तहां खुले रेस्तरां-बार की रौनक और सैलानियों की चहल-पहल से कुछ ही किलोमीटर पीछे गोवा में एक दूसरी दुनिया बसती है। जंगलों, पहाड़ियों और जलधाराओं से घिरा गोवा लौह अयस्क की खदानों के लिए जाना जाता है। पर्यावरण को नुकसान और नियम-कायदों से आंखमिचौली को लेकर ये खदानें अक्सर विवादों से घिरती रही हैं। लेकिन इस बार मामला कुछ ऐसा बिगड़ा कि न सिर्फ गोवा की अर्थव्यवस्था बल्कि सियासत को भी प्रभावित कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के चलते 15 मार्च की शाम पांच बजे गोवा में खनन से जुड़ी गतिविधियां एक झटके में थम गईं। खनन में लगी कंपनियों, उनके कर्मचारियों, मजदूरों, ट्रांसपोर्टरों और उन पर निर्भर दूसरे काम-धंधों के लिए यह बड़ा धक्का था। पिछले 25 साल से गोवा की खदानों में मैकेनिकल इंजीनियर के तौर पर काम कर रहे जेम्स फ्रैंक कहते हैं, “मालूम नहीं अब हमारा क्या होगा। कर्ज लेकर घर लिया है, बच्चों की पढ़ाई का बोझ भी है। जैसे ही पता चला कि माइनिंग बंद होगी, जमीन पैरों के नीचे से खिसक गई।” कामगारों पर इस संकट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गोवा में प्रमुख माइनिंग कंपनी सेसा माइनिंग कॉरपोरेशन ने खनन पर रोक के मद्देनजर अपने कर्मचारियों से कहा है कि वे काम पर न आएं। फोमेंटो रिसोर्सेज, चोगले ग्रुप जैसी दूसरी माइनिंग कंपनियां भी सैकड़ों की तादाद में कर्मचारियों की छंटनी कर रही हैं। यह मामला दिखाता है कि कैसे नीतिगत अस्पष्टता और सरकारी फैसलों का चलताऊ रवैया बड़े आर्थिक संकट को जन्म देता है।
वैसे, खनन और विवादों का वैसे पुराना नाता है। 2014 में केंद्र में एनडीए सरकार आने से पहले कोल ब्लॉक के आवंटन की बंदरबांट के मुद्दे ने राष्ट्रीय राजनीति को हिलाकर रख दिया था। खनन क्षेत्र की गड़बड़ियों को दूर करने के लिए केंद्र सरकार 2015 में खान और खनिज (विकास एवं विनियमन) संशोधन अधिनियम लेकर आई। इस कानून को 12 जनवरी, 2015 को एक अध्यादेश के तौर पर लाया गया था और बाद में यह संसद में पारित हुआ। लेकिन अध्यादेश से पहले ही गोवा सरकार ने आनन-फानन 88 माइनिंग लीज का नवीनीकरण कर दिया। आरोप है कि नए कानून और नीलामी की प्रक्रिया से बचने के लिए ऐसा किया गया। इसके खिलाफ गोवा फाउंडेशन नाम की संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने सात फरवरी, 2018 को सभी 88 माइनिंग लीज निरस्त करने और 16 मार्च से खनन पर रोक लगाने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी माइनिंग लीज के नवीनीकरण को लेकर सरकार की जल्दबाजी पर सवाल उठाया है।
माइनिंग कंपनियों को कामकाज रोकना पड़ा। खनन से जुड़े तमाम काम-धंधों में लगे हजारों लोग बेरोजगार हो गए। खनन क्षेत्र में पड़ने वाले गोवा के धारबादोडा गांव के उप सरपंच विनायक गावस बताते हैं कि खनन पर रोक से गोवा में करीब तीन लाख की आबादी प्रभावित होगी। करीब 50 हजार लोग सीधे तौर पर खनन संबंधी गतिविधियों में लगे हैं। बहुत-से लोगों ने बैंकों से कर्ज लेकर ट्रक खरीदे थे, जो खनन कंपनियों में ट्रांसपोर्ट के लिए लगे हैं। इस निवेश के डूबने और इन लोगों के डिफॉल्ट होने का खतरा पैदा हो गया है। ट्रांसपोर्ट के अलावा स्टीमर मालिक भी खनन पर रोक से परेशान हैं। आर्थिक ही नहीं, सियासी मोर्चे पर भी खनन पर रोक का मुद्दा गोवा में हलचल मचा रहा है। राज्य सरकार में सहयोगी महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी के विधायक दीपक प्रभु पौस्कर ने आउटलुक को बताया कि मुख्यमंत्री पर्रीकर की बीमारी के चलते हालात संभालना थोड़ा मुश्किल हो रहा है। राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन डालने का फैसला किया है। केंद्र सरकार के साथ मिलकर कोई समाधान निकालने की कोशिश की जा रही है। इस बीच, 88 माइनिंग लीज के नवीनीकरण के मामले में आरोपों से घिरे गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत परसेकर का कहना है कि इस मामले में उन्होंने मनोहर पर्रीकर के पिछले कार्यकाल में बनी नीति को ही आगे बढ़ाया।
इस बीच, खनन पर रोक के चलते बेरोजगार होने वाले लोगों का असंतोष बढ़ रहा है। खनन पर रोक के खिलाफ पिछले महीने पणजी में हजारों लोगों की भीड़ जुटी तो पुलिस को स्थिति पर काबू पाने के लिए लाठीचार्ज करना पड़ा। एक माइनिंग कंपनी में मैकेनिक रहे पॉल फर्नांडिस मानते हैं कि मौजूदा स्थिति के लिए राज्य सरकार जिम्मेदार है। पहले सरकार ने जल्दाबाजी में माइनिंग लीज रिन्यू कर दी और फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो फैसले का बचाव करने में नाकाम रही। गोवा में माइनिंग इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे छात्र भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं। मर्मगोवा पोर्ट के जिस हिस्से को पहले सिर्फ लौह अयस्क के लिए इस्तेमाल किया जाता था, वे ठप पड़े हैं। यहां से अन्य वस्तुओं की आवाजाही की मंजूरी दिए जाने की मांग की जा रही है।
आगे इसका कोई रास्ता न सुझने से भी समस्या गंभीर हो गई है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी 88 माइनिंग लीज को “नए सिरे” से जारी करने को कहा है। यह भी स्पष्ट कर दिया है कि किसी मौजूदा लीज के नवीनीकरण को “नई लीज” नहीं माना जाएगा। इससे राज्य सरकार और खनन कंपनियां दुविधा में पड़ गई हैं। गोवा खनिज अयस्क निर्यातक एसोसिएशन (जीएमओइए) के अध्यक्ष अंबर टिंबलू का कहना है कि 2015 के एमएमडीआर एक्ट में माइनिंग लीज को “नए सिरे” से जारी करने को लेकर अस्पष्टता है, जिसकी वजह से गोवा में माइनिंग लीज का मामला पेचीदा हो गया है। इस कानून के मुताबिक, माइनिंग लीज 31 मार्च, 2020 या नवीनीकरण के 15 वर्षों तक या फिर दोबारा रिन्यूअल तक वैध रहेंगी। टिंबलू के अनुसार, अब दिक्कत यह है कि कानून के मुताबिक माइनिंग लीज वर्ष 2020 तक वैध रह सकती हैं तब इससे पहले उन्हें नए सिरे से कैसे जारी किया जाएगा। खनन कंपनियों का यह भी तर्क है कि पिछली बार माइनिंग लीज के नवीनीकरण के बाद पर्यावरण और वन मंजूरियों की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था। अब नए सिरे से लीज जारी होने के बाद ये मंजूरियां दोबारा लेनी होंगी, जिसमें काफी समय लगेगा। टिंबलू की मानें तो यह कारोबार को आसान बनाने की केंद्र सरकार की नीति के बिलकुल उलट मामला है।
खनन कंपनियों के इन तर्कों को कई लोग खदानों की नीलामी से बचने की कोशिश मानते हैं। शायद उन्हें डर है कि नीलामी हुई तो नई कंपनियां मैदान में आएंगी। अपनी आय का करीब 33 फीसदी राजस्व के तौर पर गोवा सरकार को देने वाली खनन कंपनियों पर करीब 10 हजार करोड़ का कर्ज है। 2015 में दोबारा खनन शुरू होने के बाद खनन कंपनियां राज्य सरकार को 12 सौ करोड़ रुपये बतौर राजस्व दे चुकी हैं। यानी राज्य सरकार, उद्योग जगत और खनन से जुड़े काम-धंधों के लिए यह मुश्किल दौर है। पिछले छह साल में यह दूसरा मौका है, जब अदालत को गोवा में खनन पर रोक लगानी पड़ी। इस तरह देखा जाए तो गोवा दो पाटों के बीच पिस रहा है। पर्यावरण की कीमत चुकाने के बाद अब गोवा को खनन गतिविधियों के ठप होने की आर्थिक कीमत चुकानी पड़ रही है।