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कर्णप्रिय गीतों का खूबसूरत फिल्मांकन

गीत तभी दिलों-दिमाग पर छा जाते हैं जब वे कर्णप्रिय होने के साथ फिल्मांकन की दृष्टि से भी शानदार हों
‘ दम भर जो उधर मुंह फेरे’ का फिल्मांकन यादगार था

तीस के दशक से लेकर अब तक खूबसूरत गीतों की कोई सीमा नहीं है। लेकिन जब हम गीतों के फिल्मांकन पर आते हैं तो मानना पड़ता है, बेहद खूबसूरत गीतों में अधिकांश का फिल्मांकन इतना बुरा है कि जिन गीतों को सुनकर अभिभूत रह जाते थे उन्हें पर्दे पर देख कर उनका प्रभाव कम ही नहीं होता बल्कि कई बार निराश कर देता है। आज आपके लिए दस ऐसे खूबसूरत गीतों को पेश कर रहा हूं जो मेरे विचार से उत्कृष्ट हैं। एक तरह कहें तो मेरी पसंद के दस सर्वश्रेष्ठ गीत और दृश्य की जुगलबंदियां।

शुरुआत एक बांग्ला फिल्म से करूंगा। फिल्म इंद्राणी (1958) के हेमंत और गीता के गाए ‘नीड़ छोटो खेते नेई, आकाश तो बड़ो’ (घर छोटा है, कोई बात नहीं, आकाश तो बड़ा है)। एक स्वर्गिक-सी धुन के साथ एक छोटे से घर के छोटे से कमरे में उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन, खिड़की के बाहर आकश दृश्य, दांपत्य प्रेम की लाजवाब अभिव्यक्ति है। ऐसे दृश्यों ने ही उत्तम कुमार और सुचित्रा सेन की जोड़ी को भारतीय सिनेमा की सबसे लोकप्रिय और रूमानी जोड़ी बनाया। इस गीत में प्रेम न छलछलाता है, न लाउड होता है बल्कि एक संघर्षरत निम्न मध्यवर्गीय परिवेश की मजबूरियों के बीच अपनी हलकी सी थपकियों से जिंदगी की जीवटता को रेखांकित करता है। वहीं दूसरी ओर अपने लाजवाब फिल्मांकन से प्रभावित करता अनुभव (1971) का गुलजार लिखित और कनु रॉय द्वारा संगीतबद्ध ‘मेरी जां, मुझे जां न कहो मेरी जां’ में परिवेश उच्चवर्गीय है, खिड़कियों पर कांच है, उस पर गिरती और धुंधलाती बारिश की बूंदें हैं, बाहर पौधे हैं और उनके बीच संजीव कुमार और तनुजा की प्यार की ऐसी परिष्कृत और बारीक भाव भंगिमाएं हैं जो सिर्फ बासु भट्टाचार्य ही फिल्मा सकते थे।

हिंदी फिल्मों के सबसे खूबसूरत फिल्मांकित गीत हमें राज कपूर और गुरु दत्त की निर्देशित फिल्मों में मिलते हैं। आवारा (1951) के ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चंदा’ (मुकेश-लता) में भेड़ाघाट की सफेद चट्टानों के बीच नाव पर राज कपूर और नरगिस की उन्मुक्त प्रेम की हरकतें अपने जमाने से बहुत आगे का फिल्मांकन है। इस जमाने के प्रेम गीतों के दृश्यों की पुरातनपंथी स्थूलता और विह्वलता से अलग यहां प्रेम के अंदर एक आधुनिक तेवर और मांसलता है जो इस गीत के फिल्मांकन को विशिष्ट बनाती है। वहीं दूसरी ओर गुरु दत्त की साहब बीवी गुलाम (भले ही निर्देशक के रूप में अबरार अलवी का नाम हो) का ‘पिया ऐसो जिया में समाए गयो रे’ तो हिंदी फिल्मों का सर्वश्रेष्ठ शृंगार गीत माना जा सकता है। शृंगार रूपी सज्जा के हर फ्रेम में अलग-अलग विस्तार, शृंगार के हर पहलू के साथ मीना कुमारी का अद्वितीय अभिनय और हेमंत कुमार की लाजवाब बंगाल के जमींदार बाड़ी की परंपरागत गंध लिए राग मेघ पर आधारित धुन सभी इस गीत को अविस्मरणीय मानते हैं। हालांकि बहारें फिर भी आएंगी (1966) की शूटिंग के बीच ही निर्देशक गुरु दत्त की मौत हो चुकी थी। ‘आप के हसीन रुख पे आज नया नूर है’ के फिल्मांकन के समय गुरु दत्त नहीं थे, पर हिंदी फिल्मों के सर्वश्रेष्ठ फिल्माए गीतों के स्थान रखने वाले इस गीत में विभिन्न कोणों से तनुजा और माला सिन्हा के सौंदर्य को तलाशते कैमरे के पीछे गुरु दत्त की दृष्टि या मृत्यु के पूर्व का मार्गदर्शन न रहा हो, इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता। हिंदी फिल्मों के बेहतरीन फिल्मांकित गीतों में वो कौन थी (1964) के मदन मोहन द्वारा संगीतबद्ध ‘लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो न हो’ को भी अकसर शामिल किया जाता है। पहाड़ी के सुरों की रोमांचकता एक तरफ और साधना की खूबसूरत कशिश भरी अभिव्यक्ति दूसरी तरफ। साधना इतनी अच्छी तो पर्दे पर शायद ही कभी लगी हों।

पूर्व प्रेमी-प्रेमिका का एक ही टैक्सी में मौन सा सफर और पार्श्र्व में योगेश का लिखा और सलिल चौधरी का संगीतबद्ध ‘कई बार यूं ही देखा है ये जो मन की सीमा-रेखा है, मन तोड़ने लगता है’, रजनीगंधा फिल्म के इस गीत के फिल्मांकन की जितनी तारीफ की जाए कम है। बाहर गुजरता बंबई शहर, प्रेम के कुछ पलों के फ्लैशबैक, दिनेश ठाकुर और विद्या सिन्हा की आधुनिक शहरी किंतु प्रबुद्ध संयत भंगिमाएं। लगता है बासु चटर्जी के निर्देशन में मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ (जिस पर फिल्म आधारित थी) के प्रेम का त्रिकोणीय सच मानो इस गीत में साकार हो उठता है। इसी तरह आर.डी. बर्मन की वह लाजवाब रचना याद कीजिए, फिल्म ये वादा रहा का शीर्षक गीत ‘तू है वही दिल ने जिसे अपना कहा’। व्हिस्लिंग के साथ रेकॉर्ड लगाकर ऋषि कपूर और पूनम ढिल्लो का एक-दूसरे की बांहों में और एक-दूसरे को ताली देते हुए सम्मोहक नृत्य, पाश्र्व में उनके हंसने और खुश होने के स्वर, आंखों के तल्लीन भाव। कुल मिलाकर प्यार की आत्मीयता का लाजवाब फिल्मांकन।

फिल्म गर्म हवा (1974) की कव्वाली ‘मौला सलीम चिश्ती’ अपने अद्वितीय फिल्मांकन के कारण अविस्मरणीय है। विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी विडंबनाओं के बीच एक युवती की दुविधा भरी संवेदनाओं से निकल कर एक निर्णय पर पहुंचने के साथ ही फतेहपुर सीकरी के सलीम चिश्ती की दरगाह से उठती कव्वाली के सुर मानो विभाजन की विभीषिकाओं के बीच दिल की दुनिया को आबाद करने की कोशिश कर रहे हों। पूरा फिल्मांकन ही जैसे मन्नतों के धागे हों। हाल की फिल्मों में से अगर एक बेहतरीन फिल्मांकन चुनना हो तो मैं तनु वेड्स मनु के ‘रंगरेज मेरे’ का नाम लूंगा। रंगरेजों के कार्यक्षेत्र की पृष्ठभूमि में पाश्र्व के बजते इस सूफियाने गीत का विस्तार तनु और मनु की मन:स्थितियों के समानांतर इतनी खूबसूरती से किया गया है कि दोनों के बीच का प्यार अव्यक्त होते हुए भी मुखर हो उठता है।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)

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