एलपीजी सिलेंडर आराम से पूरे दाम चुकाकर चाहे जितने ले लो। दाल जरा सी सौ रुपये किलो से ऊपर क्या गई, विपक्ष ने ‘मार डाला-मार डाला’ का नारा उछाल दिया है। महंगाई पर बात करना लेटेस्ट फैशन है। अभी छापा मारो मामूली से मामूली आदमी के पास दो-तीन किलो दाल, 80-90 रुपये किलो की 2-3 किलो तरह-तरह की सब्जियां निकल आएंगी। इसमें बाकी की तो छोड़िए मजदूरी करने वाले के पास भी एक बोतल खाने का तेल मिल जाएगा। लेकिन उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। यह जो मध्यवर्गीय है न, वही जरा हाईटेक हो गया है। महंगाई को बतौर वार्तालाप काम में लेता है। फलां चीज महंगी हुई तो बजट गड़बड़ा जाएगा। माल ढुलाई महंगी होगी तो जरूरी चीजों के दाम बढ़ जाएंगे, अलां चीज का ट्रांसपोर्टेशन महंगा हो गया है। इनकी बातचीत की वजह से ही महंगाई इतनी लाइमलाइट में आ गई है। वरना महंगाई का क्या है बेचारी पड़ी रहती है चुपचाप, पांच साल चुनावी साल आने तक। महंगाई की वजह से चुनाव प्रचार भी थोड़ा हाईटेक लगता है। हर पार्टी चुनाव में करोड़ों रुपये बेजा तौर पर फूंकती है। अब सोचिए यदि महंगाई हो तो बेचारे गरीब नेता कहां से इतना रुपया लाएंगे।
न्यूज चैनलों का तो हाल और बुरा है। जब कुछ न रहे दिखाने को तो बस महंगाई को पकड़ो और तिल का ताड़ बनाते रहो। ज्योंही दूसरा माल मिला तो उसका राग अलापना शुरू कर देंगे। मेरी राय तो यह है कि यदि सस्ता पालक या आलू लाओ तो वह स्वाद नहीं आता। अरे दस रुपये के बदले पचास रुपये वाला पालक खाओ तो पता चलता है कि पालक का स्वाद क्या होता है। टीवी वाले दिखाते हैं कि टनों आलू सड़ गया मगर बाजार में सस्ता नहीं हुआ। अरे भैया तो क्या सारा आलू तुम्हें दे जाते। घर पर महिलाएं भी तो कल काम आएगा की टेर के साथ चीजें संभाल के रखे रहती हैं जो बाद में सड़ जाता है। अब क्या सरकार के पास एक ही काम है कि वह आलू का हिसाब रखे। एक नेता के पास कितना कुछ है करने को। बेचारे कई नेताओं-अफसरों के यहां तो रखे-रखे रुपये सड़ जाते हैं उनमें दीमक लग जाती हैं। जब वे अपने नोट सड़ने से नहीं बचा सकते तो फिर इतना आलू, गेहूं सड़ने से कैसे रोक सकते हैं। अब तो आपको समझ आ गया होगा कि महंगाई बढ़ने में सरकार का जरा भी दोष है। आखिर सरकार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी। आप लोग महंगाई पर बात करना बंद कर दो, फिर देखो महंगाई का कोई असर ही नहीं होगा।