उसका वजन 18 साल की उम्र में महज 24 किलो ही था। पटना की यह लड़की दवा प्रतिरोधक टीबी (डीआरटीबी) से ग्रस्त है और उसका परिवार दवाई के लिए यहां-वहां मारा-मारा फिर रहा था। सरकार डीआरटीबी के लिए सशर्त दवाइयां उपलब्ध कराती है। ऐसे में 2016 के अंत में जब पिता ने अपनी बेटी आरती (बदला हुआ नाम) के इलाज के लिए अदालत का रुख किया तो इस हृदय-विदारक खबर ने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा। इसके तीन महीने बाद यानी पिछले साल मार्च में लड़की के परिवार ने अदालत के बाहर समझौता किया तब जाकर उसे इलाज के लिए दवाइयां मिलीं।
आरती को 2012 में एडवांस लेवल की टीबी का पता चला। उसके परिवारवालों ने कई अस्पतालों का दरवाजा खटखटाया। आखिरकार अपनी बेटी का इलाज कराने वे राजधानी दिल्ली आए, क्योंकि यहां उसके लिए दवा उपलब्ध थी। लेकिन दिल्ली का निवासी न होने के कारण आरती को दवा देने से इनकार कर दिया गया, क्योंकि सरकार ने संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) के तहत सिर्फ दिल्लीवालों के लिए ही यह दवा उपलब्ध कराई थी। आरती की हालत ज्यादा बिगड़ने पर उसके परिवार ने दवा कंपनी और सरकार के खिलाफ तीन महीने तक कानूनी लड़ाई लड़ी। उसके एक साल बाद से आरती जिंदगी की मुश्किल जंग लड़ रही है।
टीबी के इलाज के लिए दवाओं की भारी कमी से जूझने की कहानी आरती की ही नहीं है। देश में टीबी के हर साल 28 लाख नए मामले आते हैं, जो दुनिया के कुल टीबी मरीजों का 27 फीसदी है। इनमें आधे ही सरकारी अस्पतालों में इलाज करा पाते हैं, जबकि गरीबों को स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र के भरोसे छोड़ दिया जाता है, जहां इलाज की उचित व्यवस्था नहीं होती। पिछले साल सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की ओर से निर्धारित समय सीमा से पांच साल पहले यानी 2025 तक टीबी उन्मूलन की घोषणा की थी। लेकिन, मौजूदा समस्याओं को देखते हुए यह घोषणा महत्वाकांक्षी ही अधिक लग रही है।
सबसे पहली बात यह कि फंड की कमी है। बजट में टीबी के रोगियों की देखभाल के लिए 600 करोड़ रुपये का आतिरिक्त आवंटन किया गया है, लेकिन जानकार इसे नाकाफी बताते हैं। दो डॉक्टरों के एक शोध से पता चलता है कि संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम अधिक खर्चीला है। रंजीत बाबू और करुणा डी सगिली का शोध कहता है, “डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत को टीबी पर पूरी तरह काबू पाने के लिए 5,121 करोड़ रुपये की जरूरत है। जबकि, भारत में इस पर सिर्फ 1,697 करोड़ रुपये ही खर्च होता है। टीबी की रोकथाम के लिए आवंटित राशि में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से मिली 917 करोड़ रुपये की मदद राशि भी शामिल है। केंद्रीय टीबी डिविजन ने बजट में पांच साल तक के लिए राष्ट्रीय क्रियान्वयन योजना के लिए 5,728 करोड़ रुपये का फंड दिया था, जिसे कई जानकारों ने बहुत कम बताया। अंततः सरकार ने 4,343 करोड़ रुपये आवंटित किए।
टीबी के मरीजों की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती है और फंड की कमी की वजह से ग्रामीण भारत में डॉक्टरों और दवाओं की भारी कमी है। मेडिकल सैंस फ्रंटियर (एमएसएफ) के मेडिकल को-ऑर्डिनेटर (भारत) डॉ. स्टोबडैन कैलों कहते हैं, “देश में अभी भी टीबी गरीबों की ही बीमारी है, क्योंकि यह खराब खानपान, साफ-सफाई की कमी और तंबाकू के इस्तेमाल से होती है। सरकारी जांच केंद्रों या डॉट्स केंद्र की कमी से लोगों को निजी अस्पतालों में इलाज कराना पड़ता है। निजी केंद्रों पर कई बार टीबी का गलत इलाज या गलत दवा दे दी जाती है।” इससे यह दवा प्रतिरोधक टीबी (डीआरटीबी) के रूप में बदल जाती है।
एक नेशनल एंटी-टीबी ड्रग रेसिस्टेंस सर्वे के अनुसार, भारत के सभी टीबी मरीजों में छह फीसदी मल्टी-ड्रग-रेसिस्टेंस टीबी से ग्रसित हैं और बाजार में उपलब्ध सामान्य दवाइयों से इनका इलाज नहीं हो सकता। अगर प्रतिशत के हिसाब से देखें तो मल्टी-ड्रग-रेसिस्टेंस टीबी से ग्रसित मरीजों की यह संख्या कम लग सकती है, लेकिन आंकड़ों में देखें तो एक लाख 68 हजार लोगों के लिए इलाज की सुविधा नहीं है। भारत में टीबी के इलाज की सफलता दर बहुत कम है। सर्वे के मुताबिक, “वैश्विक स्तर पर एमडीआर-टीबी के इलाज की सफलता दर 52 फीसदी है, जबकि मृत्यु दर 17 फीसदी है और देश में यही आंकड़ा क्रमशः 46 और 20 फीसदी है।”
जिस अनुपात में अधिक-से-अधिक लोग अनियंत्रित निजी स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज करा रहे हैं, उस हिसाब से यह संख्या बढ़ ही रही है। भारत में सिर्फ 68 सरकारी जांच केंद्र हैं, जिनके टीबी कार्यक्रमों में निजी स्वास्थ्य केंद्रों पर टीबी का पता लगाने या इलाज को रेगुलेट करने का कोई साधन नहीं है। एमएसएफ (दक्षिण एशिया) के प्रमुख लीना मेनघने कहते हैं, “इसका मतलब यह है कि दवाइयों के इस्तेमाल संबंधी दिशा-निर्देशों के अभाव में अधिकांश को इलाज के लिए जरूरी देखभाल और इलाज नहीं मिल पाता है।”
देश में एचआइवी के लिए चलने वाले कार्यक्रमों से तुलना करें तो यह समस्या और अधिक दुरूह हो जाती है। गनीमत है कि टीबी के हर मरीज के लिए एचआइवी की जांच कराना जरूरी है। अगर वह भी पॉजिटिव आता है, तो मरीज को काउंसलर के पास भेजा जाता है, जो बीमारी और देखभाल के बारे में विस्तार से उसे बताता है। हालांकि, टीबी के मरीजों के लिए काउंसलिंग की बहुत कमी है। नतीजतन लोग इसकी गंभीरता नहीं समझ पाते हैं और इलाज के लिए डॉट्स का पूरा कोर्स नहीं लेते। इसका यह भी मतलब है कि अधिकांश रोगी दवाओं के दुष्प्रभावों को समझने में भी अक्षम हैं, जिससे अक्सर बहरापन, गहरा अवसाद और कमजोरी होने लगती है।
लगभग 17 महीने पहले 50 वर्षीय दिल्ली निवासी प्रियम (बदला हुआ नाम) को एमडीआर-टीबी का पता चला। वह एचआइवी-पॉजिटिव की मरीज हैं और दूसरी बार उन्हें टीबी हुई है। इस बार उन्हें दवा प्रतिरोधक टीबी हुई है। शुरू में उन्हें बहुत थकान महसूस होती थी और लगातार खांसी आती थी। लेकिन वह जिन पांच प्राइवेट अस्पतालों में गईं, उनमें से कहीं भी बीमारी का पता नहीं चला। अंत में एक अस्पताल में जांच से पता चला कि उन्हें एमडीआर-टीबी था। इसके इलाज के लिए जो दवाएं उपलब्ध हैं, वह अब असरकारक नहीं हैं। उनके लगातार इस्तेमाल ने प्रियम को गहरे अवसाद में धकेल दिया।
पिछले दो वर्षों से बाजार में उपलब्ध दो नई दवाओं-बेडकाइलाइन और डेलामनिड-से उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले हैं। पिछले 50 वर्षों तक इसकी कोई नई दवाई नहीं आई थी। डीआरटीबी मरीजों के लिए दोनों बहुत प्रभावी हैं। इनका साइडइफेक्ट भी बहुत कम है। भारत इन दवाओं को बाजार में लाने की प्रक्रिया में है। इनका भारत में पेटेंट कराया गया है। जॉनसन ऐंड जॉनसन ने बेडकाइलाइन और जापान की ओट्सुका ने डेलामनिड का पेटेंट कराया है। अगर खर्च के हिसाब से देखें तो छह महीने के डेलामनिड के कोर्स पर एक लाख रुपये और बेडकाइलाइन की कीमत 58 हजार रुपये आएगी।
भारत को अभी तक अमेरिकी एंजेसी इंटरनेशनल डेवलपमेंट से बेडकाइलाइन की 10 हजार कोर्स दवाएं मुफ्त में मिली हैं। डेलामनिड के भी चार सौ कोर्स मुफ्त मिलने की उम्मीद है। आरती भाग्यशाली थी कि वह दोनों दवाइयों को खरीदने में सक्षम थी। लेकिन बाजार में कमी और कीमतें अधिक होने से अधिकांश मरीजों की पहुंच से यह बाहर हैं। इन वजहों ने एक्टिविस्ट और सिविल सोसायटी को सरकार को पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया कि वह पेटेंट अधिनियम के तहत इन दोनों दवाओं का अनिवार्य लाइसेंस मुहैया कराए। इससे सरकार राष्ट्रीय महत्व की इन पेटेंट वाली दवाओं को जेनरिक दवा उत्पादकों को बनाने और बेचने का जिम्मा सौंप सकेगी। एंटीमाक्रोबियल कीमोथेरेपी जरनल में प्रकाशित स्टडी के मुताबिक, छह महीने के बेडकाइलाइन और डेलामनिड के कोर्स के लिए जेनरिक का मूल्य 48 से 102 डॉलर और 36 से 96 डॉलर के बीच हो सकता है। इस कदम ने सरकार को विशेषज्ञों का एक पैनल स्थापित करने पर मजबूर किया है, क्योंकि समय लगातार हाथ से निकल रहा है। देश में टीबी से हर साल 4.23 लाख लोगों की मौत हो रही है।
बढ़ता खतरा
-28 लाख टीबी के नए मरीज हर साल देश में आते हैं
-27 फीसदी टीबी के मरीज हैं भारत में पूरी दुनिया के मरीजों के
-4,343 करोड़ रुपये भारत सरकार ने टीबी पर नियंत्रण को अगले पांच साल के लिए आवंटित किए हैं
-1.68 लाख मरीज हर साल मल्टी-ड्रग रेसिस्टेंट टीबी से प्रभावित होते हैं
-4.23 लाख मौतें टीबी की वजह से हर साल भारत में होती हैं
-40 फीसदी लोगों में, भारत में टीबी के अदृश्य लक्षण पाए जाते हैं