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मिड-डे मील का कड़वा सच

स्कूल प्रधानाध्यापिका को 23 बच्चों की मौत के मामले में 17 वर्ष कैद की सजा से एक बार फिर चर्चा में आई योजना
कुछ इस तरह का खाना मिलता है बच्चों को बिहार में

 

बिहार के छपरा जिले के मशरख प्रखंड के धरमासती गंडामन गांव में नवसृजित प्राथमिक विद्यालय में विषाक्त मिड-डे मील खाने से 23 बच्चों की मौत और दो दर्जन से अधिक बच्चों के गंभीर रूप से घायल होने के मामले में तत्कालीन प्रधानाध्यापिका मीना देवी को 17 वर्ष कारावास से यह योजना फिर चर्चा में है। मीनादेवी को पौने 4 लाख रुपए अर्थदंड की सजा भी सुनाई है। यह हादसा देश की पहली घटना थी, जिसमें 23 बच्चों की मौत और गंभीर रूप से 25 बीमार हो गए थे। घटना 26 जुलाई, 2013 की है। खाना खाने के दौरान बच्चों के पेट में दर्द और उलटी होने लगी। बच्चे एक-एक कर बेहोश होने लगे और 23 बच्चों की मौत हो गई, फिर चला आरोप-प्रत्यारोप का दौर। सरकार ने जहां इसे विपक्ष की साजिश बताया, वहीं विपक्ष ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। मीना देवी को सजा सुनाए जाने से बिहार में एक बार फिर मिड-डे मील योजना की खामियों पर चर्चा होने लगी है।

कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं और उनमें भगवान का वास होता है इसलिए उनका भोग सबसे बढ़िया बनाया जाता है। परंतु बिहार में ऐसा बिलकुल नहीं है। यहां मिड डे मील की पड़ताल की जाए तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। घपलेबाज बच्चों के पेट पर डाका डालने से बाज नहीं आए। जहां मौका मिला वे हाथ साफ करते रहते हैं। यह अलग बात है कि इसमें एक साथ करोड़ों के घोटाले उजागर नहीं होते हैं। इसकी राशि टुकड़ों-टुकड़ों में स्कूलों तक पहुंचती है। ऐसे घोटाले का स्वरूप छोटा लेकिन आंकड़े बड़े होते हैं। मिड-डे मील योजना इसलिए है कि प्राथमिक व मध्य विद्यालय में पढ़ने वाले गरीब बच्चों की पढ़ाई के प्रति रुचि बनी रहे और वे प्रतिदिन पढ़ने आएं। इससे पहले लाखों गरीब अभिभावक इसलिए बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे कि वे खेतों के काम में अभिभावक का हाथ बटाते थे। जब उन्हें स्कूलों में भोजन मिलने लगा तो वे स्कूल जाने की ओर आकर्षित हुए। लेकिन दुर्भाग्य है कि इस योजना के लागू होते ही घपलेबाजों के लिए मौकों के द्वार खुल गए। शिक्षक-प्रधानाध्यापक व शिक्षाधिकारी तक लूट में जुट गए। बिहार के अररिया, सहरसा, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, शिवहर, सीवान, सुपौल, बांका आदि जिलों में दर्जनों ऐसे स्कूल हैं जहां नामांकित छात्रों की संख्या तो सैकड़ों में है लेकिन उपस्थिति बमुश्किल 40 से 50 फीसदी है। ऐसे में हजारों रुपये तो फकत स्कूल कर्मचारियों को मुनाफा हो जाता है और मुहैया कराए गए घटिया राशन से अलग फायदा। बच्चों को जो भोजन दिया जाता है उसमें कीड़े मिलने तो आम बात है और जब कीड़ों की संख्या अधिक हो जाती है तो बच्चे गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं। गौरतलब है कि इसकी खबरें भी तभी जगह पाती हैं जब अति होने पर अभिभावकों द्वारा हो-हल्ला किया जाता है फिर प्रशासन की कुंभकरणी नींद खुलती है। लेकिन उनकी नींद मर्ज को कम करने के लिए नहीं बल्कि हादसे पर पर्दा डालने के लिए खुलती है। अब तक इस योजना में गड़बड़ी के लिए रसोइये से लेकर राशन मुहैया कराने वाले ठेकेदारों को आरोपित किया गया है और कई एनजीओ को भी ब्लैक लिस्टेड किया गया है, लेकिन परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात’। अभी कुछ दिनों पूर्व बांका जिले के अमरपुर प्रखंड के भीखनपुर पंचायत अंतर्गत प्राथमिक विद्यालय के सतधारा में एमडीएम में कीड़ा पाया गया है। बच्चों के हल्ला करने पर अभिभावक खाना लेकर प्रखंड मुख्यालय गए। फिर स्थानीय सांसद जयप्रकाश नारायण यादव ने कार्रवाई की बात कही। इसी तरह मई में मुजफ्फरपुर जिले में 10, पिछले महीने औरंगाबाद जिले में 54 बच्चे, सीतामढ़ी के सुरसंड में 54 बच्चे मिड-डे मील खाकर बीमार हो गए थे। तब अभिभावक ने खाने में सांप मिलने की बात कही थी।

सीमांचल के अररिया जिले में इसलिए एक अभिभावक की हत्या कर दी गई कि उसने शिक्षक से सिर्फ यह पूछा था कि मेरी बच्ची को खाना क्यों नहीं मिला है। प्रावधान है कि भोजन को पहले शिक्षकों द्वारा चखा जाएगा, उसके बाद ही बच्चों को दिया जाएगा, साथ ही, रसोईघर साफ-सुथरा होना अनिवार्य है और राशन के भंडारण के लिए भी जगह साफ-सुथरी होनी चाहिए। लेकिन इन हादसों से ऐसा प्रतीत नहीं होता। बिहार में सरकारी मेन्यू के अनुसार सोमवार को चावल व कढ़ी, मंगलवार को चावल, दाल व सब्जी, बुधवार को खिचड़ी, गुरुवार को सब्जी पुलाव, शुफ्वार को चावल छोला और शनिवार को खिचड़ी व चोखा देना है। सवाल यह है कि क्या आज के समय में 2000 रुपये पाने वाले रसोइये से हम पौष्टिक भोजन की उम्मीद कर सकते हैं। आए दिन रसोइये अपना मेहनाता बढ़ाने के लिए धरना-प्रदर्शन करते रहते हैं। लेकिन सरकार ने भी अब तक इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया। दूर-दराज के कई स्कूलों में रसोइयों ने बताया कि शिक्षक सप्ताह में तीन या चार दिन मध्याह्न भोजन बनाने का आदेश देते हैं, जिसमें ज्यादा दिन दाल मिलती भी नहीं है। इतना ही नहीं, बच्चों को थाली के जगह पत्तों पर खाना दिया जाता है। शिक्षक भी अपना रोना रोते हैं कि वर्तमान मूल्य पर मेन्यू के अनुसार खाना देना संभव नहीं है। इस बावत कई बार विभाग को अवगत कराया गया है लेकिन इस पर अब तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। कभी-कभी तो शिक्षक भी अभिभावकों के कोप के भाजन हो जाते है। मुंगेर और समस्तीपुर जिलों में दो प्रधानाध्यापिकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। इसके साथ बिहार में जाति प्रथा भी मध्याह्न भोजन पर हावी है। इसी तरह का वाकया गोपालगंज के एक स्कूल में घटा जब बच्चों ने मिड-डे मील का खाना खाने से इसलिए मना कर दिया कि खाना एक विधवा ने बनाया था। वैसे मुख्यमंत्री ने इस पर यदा-कदा कड़ा रुख दिखाकर अधिकारियों को हड़काया भी लेकिन परिणाम शून्य रहा। भोजन में घपला करने में अधिकारियों से लेकर शिक्षक तक बाज नहीं आ रहे। सभी को अपना-अपना हिस्सा चाहिए। बच्चों की परवाह किसी को नहीं है और इसलिए कहीं बच्चे खुद खराब खाना देखकर भूखे रह रहे हैं तो कहीं अभिवावक उन्हें मना कर देते हैं। गौरतलब है कि मीना देवी तो छोटी मछली है। बड़ी मछलियों पर हाथ डालने की जहमत प्रशासन नहीं कर रहा। राजधानी सहित राज्य के कई स्कूलों में सालों से मध्याह्न भोजन बंद है क्योंकि वहां गड़बड़ियां पाई गई थीं। जांच के नाम पर नौनिहालों के पेट पर इतने समय तक डाका डाला जा रहा है। राजधानी के नेहरू नगर के हरिजन टोला, प्राथमिक विद्यालय के बच्चों ने बताया कि पिछले एक साल से उन्हें भोजन नहीं मिल रहा है।

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