झारखंड की राजधानी रांची से महज 45 किलोमीटर दूर खूंटी जिले के कर्रा में तीन सितंबर को तीन लोगों की हत्या कर दी गई। चार सितंबर की सुबह जिसने भी यह खबर सुनी, उसका पहला सवाल था, क्या इसमें शांतिसभा शामिल है। इस पूरे इलाके में पिछले सात महीने में शांतिसभा ने अपनी अलग पहचान कायम कर ली है। नक्सली और आपराधिक गतिविधियों का गढ़ बन चुके इस इलाके में जनजीवन पूरी तरह बंधक बन चुका था। इसलिए किसी भी खून-खराबे के बाद लोग शांतिसभा का नाम जरूर लेते हैं। इस साल के आरंभ तक खूंटी जिला नक्सलियों का गढ़ था। लोग रोज-रोज की हिंसा से तंग आ चुके थे। प्रशासन तमाम प्रयासों के बाद भी नक्सली-आपराधिक वारदातों पर अंकुश नहीं लगा पा रहा था। तब ग्रामीणों ने शांतिसभा की परंपरा को पुनर्जीवित किया। शुरुआत में इसे छत्तीसगढ़ के सलवा जुड़ूम का अवतार माना गया लेकिन दोनों में एक मूल अंतर है। सलवा जुड़ूम को एक तरह छत्तीसगढ़ सरकार ने ही शुरू करवाया था जबकि शांतिसभा पूरी तरह ग्रामीणों की एकजुटता का परिणाम है।
खूंटी इलाके में शांतिसभा का गठन पहली बार नहीं हुआ है। करीब तीन दशक पहले 1985 में पहली बार शांतिसभा का गठन किया गया था। उस समय रनिया इलाके में डकैतों के खिलाफ ग्रामीण एकजुट हुए थे। तब कई डकैतों के घरों को उजाड़ दिया गया था। दूसरी बार 1990 में बिरबांकी इलाके में इसी तरह की एकजुटता सामने आई थी। तीसरी बार 1995 के आसपास मुरहू और बंदगांव में ग्रामीणों ने शांतिसभा के बैनर तले एकजुट होकर डकैतों के खिलाफ मोर्चा खोला था। तीनों ही अवसरों पर डकैतों का उत्पात पूरी तरह खत्म हो गया था।
शांतिसभा मुंडाओं की सामाजिक परंपरा रही है। मुंडाओं ने गांवों में शांति के लिए ग्रामसभाएं बनाई हुई थीं और गांव के छोटे-मोटे विवाद वहीं हल किए जाते थे। पहले ग्राम-सभाओं में संगठित अपराध के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाए जाते थे लेकिन विरोध के स्वर तो उठते ही थे। मुंडाओं ने एकाधिक अवसरों पर एकजुट होकर संगठित अपराध के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी। इस साल मार्च में जब पहली बार खूंटी जिले के लुपुंगडीह खेल मैदान में आसपास के करीब एक सौ गांवों के लोग एकत्र हुए तो पुलिस प्रशासन भी भौंचक रह गया। उसे इतनी बड़ी बैठक की कोई जानकारी नहीं थी। बिना किसी सार्वजनिक घोषणा और प्रचार के 10 हजार से अधिक लोग एक स्थान पर एकत्र हो जाएं, यह कल्पना से परे था। बिना किसी मंच, नेता और अध्यक्ष के सभा हुई और लोगों ने एक स्वर से नक्सलियों-अपराधियों से लड़ने का संकल्प व्यक्त किया। सभा में उन परिवारों को खास तौर पर बुलाया गया था, जिनके सदस्य या तो नक्सली संगठन में शामिल थे या किसी आपराधिक गिरोह में। उन परिवारों को समय दिया गया कि वे अपने सदस्यों को मुख्यधारा में शामिल कराएं, अन्यथा सामाजिक बहिष्कार जैसी सजा के लिए तैयार रहें। सभा की विशेषता यह रही कि हिंसा का जवाब अहिंसक तरीके से देने का फैसला किया गया। इस प्रयास की चारों तरफ चर्चा होने लगी। करीब एक सप्ताह बाद ग्रामीण दूसरे गांव में जुटे तो उसमें सात नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इतना ही नहीं, कई परिवार सामने आए और अपने सदस्यों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश शुरू करने की जानकारी दी। उस समय तक यह आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि शांतिसभा का हश्र भी सलवा जुड़ूम जैसा न हो जाए, क्योंकि पूरा इलाका नक्सलियों के प्रभाव में था। लेकिन आशंकाएं गलत निकलीं। शांतिसभा का असर हुआ कि खूंटी जिले के 110 गांवों में पिछले सात महीने से शांति कायम है। खूंटी के 180 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले गांवों में पिछले सात महीने से कोई नक्सली और उग्रवादी हत्या नहीं हुई है। इन गांवों में मारंगडीह, जामड़ी, पोसेया, सिलादोन, टकरा, चुकरू, तुंजू, बुतुयू, रेमता, लटरजंग, रोलाडीह समेत 110 गांव और उनके टोले शामिल हैं। शांतिसभा अब महासभा बन गई है। इन इलाकों में पहले नक्सलियों का राज कायम था। नक्सली जब चाहते थे, तब घटनाओं को अंजाम देते थे। अब लोग रातों को चैन से सोते हैं और दिन हंसी-खुशी गुजरते हैं।
नक्सलवाद, उग्रवाद और अपराध के खात्मे के लिए सात महीने पहले शुरू हुई आदिवासियों की शांतिसभा ने नशे के खिलाफ भी अभियान छेड़ा है। पिछले महीने के अंत में खूंटी के मारंगहादा में आयोजित महासभा में सौ से ज्यादा गांवों के लगभग पांच हजार ग्रामीण शामिल हुए। इसमें कहा गया कि आदिवासी इलाकों में नशा ही नक्सलवाद, उग्रवाद और अपराध का कारण है इसलिए अब क्षेत्र में हंडिया-चुलाई का व्यवसाय नहीं करने दिया जाएगा। इसका ग्रामीणों ने हाथ उठाकर समर्थन किया।