प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 16 जनवरी, 2016 को जब देश को रोजगार और आंत्रप्रनर्शिप के नए युग में ले जा रहे थे तो उसके साक्षी और सेलिब्रेट किए जा रहे लोगों में फ्लिपकार्ट के सहसंस्थापक सचिन बंसल दिल्ली के विज्ञान भवन के प्लेनरी हाल में मौजूद थे। असल में यहां दावा किया जा रहा था कि देश में अब ऐसे नए उद्यमी खड़े हो रहे हैं जो नई जेनरेशन के हैं और वे यूनीकार्न खड़े कर रहे हैं। यूनीकार्न सिलिकॉन वैली में पैदा हुआ वह शब्द है, जो एक अरब डॉलर की वैल्यूएशन वाली कंपनी के लिए उपयोग किया जाता है। जाहिर है कि सचिन बंसल और बिन्नी बंसल ने करीब 21 अरब डॉलर के वैल्यूएशन वाली ई-कामर्स कंपनी फ्लिपकार्ट खड़ी की। लेकिन अब इस कंपनी की 77 फीसदी हिस्सेदारी दुनिया की सबसे बड़ी रिटेल कंपनी ही नहीं, बल्कि सबसे ज्यादा करीब 500 अरब डॉलर सालाना के राजस्व वाली अमेरिकी कंपनी वॉलमार्ट ने खरीदने की घोषणा कर दी है। इस सौदे ने एक ओर जहां देश के सबसे बड़े स्टार्टअप को इस टैग से बाहर कर दिया है वहीं, वॉलमार्ट जैसी कंपनी के भारतीय रिटेल बाजार में परोक्ष प्रवेश का दरवाजा खोल दिया है। इससे राजनैतिक और कारोबारी स्तर पर नए पाले खिंच गए हैं।
दिलचस्प बात यह है कि करीब 16 अरब डॉलर की यह डील देश की कंपनियों के विलय और अधिग्रहण के सौदों में सबसे बड़ी डील में से एक है। लेकिन सरकार ने इस तथाकथित इतने बड़े एफडीआइ के सौदे पर किसी तरह की टिप्पणी नहीं की है। यही नहीं, रणनीतिक रूप से इससे एक दूरी रखने की कोशिश की गई है। यहां भी इस सौदे से सरकारी दूरी की बात नीति आयोग के सीईओ ने कही, जिनको कारपोरेट जगत का करीबी माना जाता है। वित्त मंत्री, वित्त मंत्रालय, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री और मंत्रालय ने भी इस पर चुप्पी साध रखी है। असल में जब इस डील की घोषणा हो रही थी तो कर्नाटक में विधानसभा चुनाव चरम पर था। खास बात यह है कि इस डील की घोषणा राज्य की राजधानी बेंगलूरू में ही कंपनी के मुख्यालय में हुई और जिसके लिए वॉलमार्ट के सीईओ वहां आए। उसके बाद वे दिल्ली भी आए। उन्हें और कारपोरेट जगत को उम्मीद थी कि सरकार के नुमाइंदे उनसे मिलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि यह सौदा आने वाले दिनों में राजनीतिक रंग लेगा। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगी संगठन देश में रिटेल क्षेत्र में वॉलमार्ट जैसी बड़ी कंपनियों के खिलाफ रहे हैं। ऐसे में चुनावी सरगर्मी के नाम पर ही सही इस सौदे से दूरी रखी गई।
असल में यह सौदा कई सवाल लेकर आया है। मसलन, जिस पैसे से यह कंपनी खरीदी जा रही है, क्या उसे निवेश माना जाए? यह कहना मुश्किल है क्योंकि इसमें वॉलमार्ट जो पैसा लगा रही है, उसका अधिकांश हिस्सा पहले इसमें पैसा लगा चुके निवेशकों को ही मिलेगा और कंपनी के एक प्रमोटर और कुछ कर्मचारियों को छोड़ दें तो वे सब विदेशी हैं। इसमें कुछेक ने तो 75 फीसदी सालाना का मुनाफा अपने निवेश पर कमाया है। सच तो यह है कि कंपनी के संस्थापकों का इस सौदे में कोई बड़ा रोल ही नहीं है क्योंकि सॉफ्टबैंक, टाइगर ग्लोबल और नेस्पर जैसे बड़े निवेशकों की ही इसमें अधिकांश हिस्सेदारी थी। सचिन बंसल और बिन्नी बंसल के पास तो 11 फीसदी से थोड़ी ज्यादा ही हिस्सेदारी थी। इसलिए ज्यादा पैसा निवेशक कंपनियों ने बनाया और वही उसे ले जाएंगी। लिहाजा, बड़े एफडीआइ के आने जैसी बात कहकर ढोल पीटने का भी मौका नहीं है। दूसरे, मुख्य कंपनी सिंगापुर में पंजीकृत है और यहां वह पूरी तरह से अपने कामकाज की रिपोर्टिंग भी नहीं करती है। वैसे भारत में बिजनेस टू कंज्यूमर के लिए ई-कॉमर्स कंपनियों को इजाजत नहीं है और वह बिजनेस टू बिजनेस ही काम करती है। लेकिन नियम-कायदों की ढील का पूरा फायदा उठाया जाता है।
दूसरे, निवेश किसी का भी हो और कंपनी कहीं भी रजिस्टर्ड हो, उसका वैल्यूएशन तो भारतीय बाजार में उसकी हिस्सेदारी और एसेट्स के आधार पर ही हुआ है। इसलिए इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय बाजार की भूमिका ही केंद्र में है और अब हमारे टैक्स डिपार्टमेंट के अधिकारी भी विदहोल्डिंग टैक्स की प्रक्रिया शुरू करेंगे। इस मुद्दे पर यह वोडाफोन–हच सौदे जैसा मामला ही बनता जा रहा है, जो अभी तक अटका हुआ है। लेकिन अमेरिकी कंपनियां अपने लिए नीतियों में तब्दीली के लिए लॉबिइंग की माहिर मानी जाती हैं। हालांकि, जीएम कॉटन के बीज के जरिए भारतीय बाजार में मजबूत पकड़ बनाने के बावजूद मोनसेंटो यहां गच्चा खा गई।
असल में जिस तरह से लोगों के बीच मोनसेंटो को लेकर प्रतिकूल धारणा है, उसी तरह वॉलमार्ट को लेकर भी है। देश के करोड़ों किराना और खुदरा कारोबारियों का मानना है कि यह उनके अस्तित्व के लिए घातक है। इसलिए जब यह कंपनी भारती समूह के साथ एक संयुक्त उद्यम के रूप में आई तो भी उसका तीखा विरोध हुआ। देश में मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में एफडीआइ की अनुमति नहीं है। इसलिए यह कंपनी ‘बेस्ट प्राइस’ के नाम से थोक कारोबार स्टोरों के जरिए भारत में आई थी। रिटेल के लिए भारती ने ईजीडे के नाम से स्टोर खोले थे। लेकिन आरोप लगे कि वह परोक्ष रूप से भारती समूह के लिए रिटेल कारोबार चलाती है। बाद में यह सौदा टूट गया और वॉलमार्ट इंडिया 21 बेस्ट प्राइस स्टोर चलाती है। लेकिन फ्लिपकार्ट का सौदा भारतीय रिटेल बाजार में परोक्ष रूप से प्रवेश का रास्ता माना जा रहा है। यही वजह है कि सौदे की घोषणा के दिन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सहयोगी संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इस सौदे को रोकने की मांग रख दी। स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्वनी महाजन ने इस पत्रिका से बातचीत में कहा कि वॉलमार्ट देश के छोटे और खुदरा कारोबारियों के साथ ही किसानों के लिए भी घातक है और हम हर स्तर पर इसके प्रवेश का विरोध करेंगे। साथ ही उन्होंने फ्लिपकार्ट के कारपोरेट गवर्नेंस पर भी प्रतिकूल टिप्पणियां करते हुए कहा कि इस कंपनी ने देश के कानून का उल्लंघन किया है। वहीं, खुदरा कारोबारियों के संगठन भी खुलकर इस सौदे की मुखालफत कर रहे हैं। किसान संगठनों ने भी इस सौदे के खिलाफ प्रदर्शन किया है।
असल में वॉलमार्ट की छवि उस कंपनी की है, जो दुनिया भर में सबसे सस्ते उत्पाद बेचकर प्रतिस्पर्धी कंपनियों को तबाह कर देती है। इतना ही नहीं, इसका कामकाज खाद्य और कृषि उत्पादों में भी है और इसे प्रिडेटरी प्राइसिंग का महारथी माना जाता है, जो बड़े उत्पादकों से बहुत कम कीमत पर सामान का आउटसोर्सिंग करती है जिसमें चीन के उत्पादक प्रमुख हैं। ऐसे में जो लोग इस उम्मीद में हैं कि इसका छोटे उत्पादकों को फायदा होगा, वे मुगालते में हैं। भारत में ही कई ऐसी कंपनियां हैं जो वॉलमार्ट को बड़े पैमाने पर उत्पाद आपूर्ति करती हैं लेकिन ये एसएमई नहीं, बल्कि बड़े उत्पादन संयंत्रों वाली कंपनियां हैं।
इन परिस्थितियों में आने वाले दिन बड़े दिलचस्प होने वाले हैं क्योंकि सत्तारूढ़ भाजपा का एक बड़ा समर्थक वर्ग छोटा और खुदरा कारोबारी है। उसके हितों के खिलाफ जाना पार्टी के लिए राजनैतिक रूप से जोखिम भरा होगा। विपक्ष भी इसे भुनाने में पीछे नहीं हटेगा क्योंकि जब पूर्ववर्ती कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने रिटेल में एफडीआइ लाने की कोशिश की थी तो भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने उसका भारी विरोध किया था।
जहां तक स्टार्टअप की कामयाबी सेलीब्रेट करने की बात है तो बंद होते स्टार्टअप और बेरोजगारी का तीखा होता मुद्दा इसकी गुंजाइश ही नहीं छोड़ता है। इसलिए अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस मामले में किस तरह का रुख अपनाती है। हालांकि, नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने एक बयान में इसे एक अच्छा सौदा बताया है। लेकिन यह बात भी सच है कि राजीव कुमार कोई राजनैतिक व्यक्ति नहीं हैं और उनको कोई चुनाव भी नहीं लड़ना है। ऐसे में जो 2019 के लोकसभा चुनावों का सामना करने वाले हैं, इस मुद्दे पर रुख तो वही तय करेंगे। और फिलहाल रुख तय करना आसान भी नहीं लगता।