शिक्षा और सुशासन के जिस दावे पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फख्र करते हैं, उनका एक ड्रीम प्रोजेक्ट ही उसकी कलई उतारता दिख रहा है। जमुई जिले की पहाड़ियों के मनोरम माहौल में स्थित ‘सिमुलतला आवासीय विद्यालय’ से आज छात्र पलायन को मजबूर हैं। सेवा शर्तें और वेतनमान तय नहीं होने के कारण शिक्षक भविष्य को लेकर सशंकित हैं। वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप कई तरह की शंकाएं पैदा करने लगे हैं। सुधार के नाम पर आठ साल में सरकार चार समितियां बना चुकी है। लेकिन, हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं। शिक्षा में नया मुकाम हासिल करने के ड्रीम प्रोजेक्ट की पायलट परियोजना का जब यह हाल है तो हर जिले में ऐसे स्कूल खोलने के सपने का क्या कहें? अब तो वह चर्चा से ही गायब है।
नीतीश कुमार की महागठबंधन वाली सरकार में शिक्षा मंत्री रहे अशोक चौधरी ने बताया कि सिमुलतला जैसे स्कूल राज्य के हर जिले में खोलने की योजना बनाई गई थी। लेकिन, महागठबंधन सरकार के पतन के बाद शिक्षा मंत्री बने कृष्णनंदन वर्मा का कहना है कि ऐसी कोई योजना नहीं है। चौधरी के अनुसार “वर्मा ने इससे जुड़ी बैठकों के ब्यौरे नहीं देखे होंगे इसलिए ऐसा कह रहे हैं।” आज चौधरी और वर्मा दोनों सत्ताधारी जदयू की कश्ती में ही सवार हैं।
दरअसल, शिक्षा के लिए देश भर में चर्चित और प्रतिभाओं की पाठशाला कहे जाने वाले रांची से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर छोटानागपुर की पहाड़ियों में स्थित ‘नेतरहाट स्कूल’ जब 2000 में बंटवारे के बाद झारखंड के हवाले हो गया तो 2010 में नीतीश कुमार ने बड़ी घोषणाओं के साथ छठी से बारहवीं तक की पढ़ाई के लिए सिमुलतला आवासीय विद्यालय की शुरुआत की। लेकिन आठ साल के छोटे से सफर में ही गुरुकुल की तर्ज पर खुला यह स्कूल गड़बड़ियों, उपेक्षा और घपलों से खस्ताहाल हो चला है।
स्कूल का भवन आज तक तैयार नहीं हो पाया है। जबकि स्थापना के समय से ही सिमुलतला एजुकेशन सोसायटी (एसईएस) के पास 76 एकड़ दान की जमीन उपलब्ध है। इस बीच सरकार ने 22 एकड़ जमीन करोड़ाें का मुआवजा देकर और ले ली। इसी तरह स्कूल के शिक्षकों की सेवा शर्तें और वेतनमान भी सरकार तय नहीं कर पाई है। शिक्षकों और शिक्षणेतर कर्मचारियों की स्कूल में संख्या कितनी होनी चाहिए यह भी आठ साल में तय नहीं हो पाया है। इस समय स्कूल में 19 शिक्षक हैं। प्राचार्य डॉ. राजीव रंजन ने आउटलुक को बताया कि हर साल जरूरत के मुताबिक तदर्थ शिक्षक रखे जाते हैं। उन्होंने बताया कि सेवा शर्तें तय नहीं होने के कारण शिक्षकों में अनिश्चितता का माहौल है। इसके कारण कई शिक्षक स्कूल छोड़ चुके हैं।
राज्य के शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा के अनुसार जल्दी ही इस समस्या का समाधान कर दिया जाएगा। 2010 में जिन शिक्षकों की नियुक्ति हुई थी उनके प्रमाण-पत्रों का सत्यापन अब तक नहीं हुआ है, जबकि 2012 में नियुक्त शिक्षकों के प्रमाण-पत्रों का सत्यापन हो चुका है। वर्मा ने बताया कि सत्यापन जल्द ही कराया जाएगा। लेकिन, इसमें देरी क्यों हो रही है इसका उन्होंने जवाब नहीं दिया।
सूत्रों का कहना है कि 2010 में जिन शिक्षकों की नियुक्ति हुई थी उनमें कई के दस्तावेज फर्जी हैं। स्कूल के पहले समन्वयक रहे नवीन कुमार पर नियम-कायदों की अनदेखी कर अपने लोगों की नियुक्ति के आरोप हैं। सालभर बाद 12 मई को प्रधान सचिव (शिक्षा) की अध्यक्षता में हुई स्कूल प्रबंध समिति की बैठक में सेवा शर्तें तय करने और स्कूल भवन, छात्रावास, पुस्तकालय आदि के निर्माण के लिए डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) बनाने का फैसला किया गया। लेकिन, यह पहला मौका नहीं है जब इस तरह का फैसला किया गया है। पूर्व मंत्री अशोक चौधरी ने बताया कि उनके कार्यकाल में शिक्षकों की सेवा शर्तें तय करने की दिशा में काम शुरू हुआ था। लेकिन, उनकी विदाई के बाद से इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई है। 12 मई की बैठक में पंद्रह दिनों के अंदर स्कूल प्रबंधन को वार्षिक बजट जारी करने का फैसला भी किया गया। लेकिन, आठ साल में एसईएस का न तो बैंक अकाउंट खुल पाया है और न ही करोड़ाें के बजट का कभी ऑडिट कराया गया है। किताब, यूनीफॉर्म और अन्य सामग्री की आपूर्ति के लिए 2016 के बाद से निविदा भी नहीं निकाली गई है। प्रधानाचार्य डॉ. रंजन ने बताया कि स्टॉक में सामान रहने के कारण बीते साल निविदा नहीं निकाली गई थी। इस साल निविदा निकाली जाएगी।
इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद बिहार विद्यालय परीक्षा समिति (बीएसईबी) की दसवीं बोर्ड की परीक्षा में अब तक इस स्कूल के छात्रों का प्रदर्शन शानदार रहा है। 2015 में टॉप टेन में जो 30 बच्चे थे उनमें से 29 सिमुलतला से थे। 2016 में टॉपर से लेकर 108वें पायदान तक इसी स्कूल के बच्चे थे। 2017 में टॉप टेन में 16 बच्चे सिमुलतला के थे। लेकिन, इस स्कूल के बच्चों का ऐसा प्रदर्शन बीएसईबी की 12वीं की परीक्षा में नजर नहीं आता। इसका कारण यह है कि दसवीं के बाद ज्यादातर बच्चे स्कूल छोड़कर चले जाते हैं। 2016 में गठित छह सदस्यीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015-16 के सत्र में दसवीं के बाद स्कूल में 85 फीसदी सीट खाली रह गई थी।
पलायन का यह सिलसिला अब दसवीं से पहले भी शुरू हो चुका है। बीते सत्र में नामांकन लेने वाले बच्चों में से 14 स्कूल छोड़कर जा चुके हैं। इनमें छठी से लेकर नौवीं तक के बच्चे हैं। शिक्षा मंत्री वर्मा और स्कूल के प्राचार्य डॉ. रंजन का दावा है कि बच्चे व्यक्तिगत कारणों से स्कूल छोड़कर गए हैं। लेकिन, स्कूल छोड़ने वाले बच्चों ने बताया कि संसाधनों की कमी, छात्रावास में जगह की कमी, खाने की क्वालिटी खराब होने और सभी विषयों के शिक्षक नहीं होने के कारण उन्होंने स्कूल छोड़ा है।
छह सदस्यीय समिति की रिपोर्ट में भी इन खामियों का जिक्र है। इस समिति के सदस्य और सिमुलतला स्कूल के संस्थापक प्राचार्य रहे पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. शंकर कुमार ने आउटलुक को बताया, “जिस सोच के साथ इस स्कूल की शुरुआत की गई थी उसका पूरा न होना दुखद है। जब तक सरकार का दखल बना रहेगा इस स्कूल को मॉडल स्कूल बनाने का सपना पूरा नहीं होगा।” पूर्व शिक्षा मंत्री चौधरी इसके लिए विभागीय अधिकारियों की उदासीनता को जिम्मेदार मानते हैं।
सरकारी दखल का असर अब नामांकन परीक्षा और स्कूल के सत्र पर भी दिखने लगा है। शुरुआती दो साल जब तक नामांकन परीक्षा एसईएस ने आयोजित की, तो सत्र समय से शुरू होता रहा। इसके बाद एक साल के लिए सरकार ने प्रवेश परीक्षा की जिम्मेदारी एक निजी एजेंसी को दी। बाद में बीएसईबी को यह जिम्मेदारी सौंपी गई और देरी का सिलसिला शुरू हो गया। इस साल प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा 20 मई और मुख्य परीक्षा 17 जून को होनी है, जबकि सत्र अप्रैल से ही शुरू हो जाना चाहिए। बीते साल नवंबर से सत्र शुरू हुआ था। इसके कारण अब छात्रों और अभिभावकों के बीच स्कूल का क्रेज कम होता जा रहा है। 2010 में प्रवेश परीक्षा के लिए जहां 32 हजार आवेदन मिले थे, वहीं इस साल घटकर 11,700 रह गए हैं। देरी के कारण दो साल जीरो ईयर (कोई नामांकन नहीं) भी रह चुका है।
शिक्षा मंत्री वर्मा ने बताया कि परीक्षा समय पर लेने के लिए बीएसईबी को आदेश दिए गए हैं। 12 मई की बैठक में तय किया गया कि सत्र समय पर शुरू करने के लिए परीक्षा की प्रक्रिया अब नवंबर से शुरू की जाएगी। लेकिन, छह सदस्यीय समिति और उससे पहले बी.बी. सिंह कमेटी (2011), चंद्रशेखर कमेटी (2012) और शशिशेखर तिवारी कमेटी (2014) की रिपोर्ट का जो हश्र हुआ, उससे लगता नहीं कि सरकार स्कूल को पूरी स्वायत्तता और संसाधन देने को तैयार है।