अर्थशास्त्र आंकड़ों का केवल मकड़जाल नहीं होता है। वह देश के वास्तविक विकास और जनता के दुख-तकलीफों का आईना भी होता है। अरुण कुमार देश के उन गिने-चुने अर्थशास्त्रियों में हैं जो अर्थव्यवस्था को जनता की दृष्टि से देखते हैं, न कि सरकार और पूंजीपतियों की दृष्टि से। उन्होंने अपनी नई पुस्तक डिमोनेटाइजेशन ऐंड ब्लैक इकोनॉमी में आंकड़ों और प्रमाण के साथ नोटबंदी तथा कालाधन पकड़ने में सरकार की विफलताओं को पेश किया है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से तीन वर्ष पूर्व अवकाश प्राप्त प्रोफेसर अरुण कुमार देश में काला धन के विशेषज्ञ माने जाते हैं। इस विषय पर उनकी लिखी गई पुस्तक अकादमिक जगत में काफी चर्चित रही है। अरुण कुमार की यह पुस्तक मोदी सरकार की नोटबंदी पर पहली मुकम्मल और आलोचनात्मक पुस्तक है। यूं तो नोटबंदी के दौरान अनेक लेख छपे, जिनमें नोटबंदी के पक्ष-विपक्ष में तर्क पेश किए गए। विदेशी मीडिया में भी इस पर काफी चर्चा हुई और ज्यादातर में नोटबंदी को विफल बताया गया। दूसरी तरफ, ऐसे भी लेख छपे, जिनमें नोटबंदी को सफल बताया गया। ऐसे लेखों को सरकार की ओर से भी प्रचारित किया गया।
अरुण कुमार की यह पुस्तक मीडिया में नोटबंदी को लेकर उठे सवालों का एक विधिवत एवं शोधपरक विस्तार है और उसे पहली बार अकादमिक रूप से पेश किया गया है ताकि भविष्य में देश में जब कभी नोटबंदी और कालाधन पर चर्चा हो तो तथ्यों और तर्कों की अनदेखी न हो। जब 9 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की थी तब अरुण कुमार अमेरिका में थे। उन्होंने इंटरनेट पर उनका भाषण सुना और अगले दिन ही एक अंग्रेजी दैनिक के लिए इस पर एक लेख भी लिखा। अरुण कुमार का मानना है कि नोटबंदी भारत के इतिहास में पिछले तीन-चार दशकों की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। उनकी पहली स्थापना है कि यह कदम आर्थिक कम, राजनैतिक ज्यादा था और इसका मूल मकसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि रॉबिनहुड की तरह पेश करना था। जिस तरह इंदिरा गांधी की छवि ‘गरीबी हटाओ’ के नारे से एक बुलंद शासक के रूप में पेश की गई थी, उसी तरह मोदी की प्रभावशाली छवि बनाने के लिए यह कदम उठाया गया। यही कारण है कि भारतीय रिजर्व बैंक तक को विश्वास में नहीं लिया गया जबकि वही उचित एवं वैधानिक संस्था है। लेकिन अगर रिजर्व बैंक को विश्वास में लिया जाता तो शायद वह इसे अस्वीकार भी कर देता क्योंकि ऐसे कदम की जरूरत नहीं थी।
दरअसल, कालाधन केवल नगदी में नहीं होता है। अरुण कुमार के मुताबिक यह मिथ्या धारणा है कि कालाधन केवल नगदी में होता है। काले धन के कई रूप हैं, कई स्रोत हैं। लेकिन सरकार की मंशा काला धन पकड़ने की नहीं लगती है। उसने नोटबंदी जैसा लोकलुभावन कदम उठाकर लोगों में यह भ्रम फैलाने की कोशिश की कि उसने इस कदम से देश में काला धन को पकड़ा है और भ्रष्टाचार को दूर किया है जबकि हकीकत यह है कि 99 प्रतिशत प्रतिबंधित नोट बैंकिंग सिस्टम में आ गए और करीब 18 हजार करोड़ रुपये ही नहीं आए। तो, क्या यह माना जाए कि देश में केवल इतना ही काला धन है।
अरुण कुमार ने पुस्तक में 1946 और 1978 में हुई नोटबंदी की भी चर्चा की है और 2016 की नोटबंदी से उसका तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। तब की अर्थव्यवस्था बहुत छोटी थी और मुद्रा का इतना अवमूल्यन नहीं हुआ था। पुस्तक में नोटबंदी की घोषणा के वैधानिक पहलुओं पर भी सवाल खड़ा किया गया है। मसलन, क्या उसके लिए केवल अधिसूचना जारी करना वैधानिक रूप से उचित था? और अगर उचित था तो फिर बाद में उसे कानूनी जामा क्यों पहनाया गया? तत्कालीन एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के हवाले से अरुण कुमार ने लिखा है कि नोटबंदी और मुद्रा को प्रचलन से वापस लेना दो अलग-अलग चीजें हैं लेकिन देश की जनता इन तकनीकी पहलुओं पर कहां ध्यान दे पाती है। पुस्तक में नोटबंदी के बाद देश की अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन पर पड़े प्रभावों का भी विस्तृत अध्ययन किया गया है। पुस्तक के अंत में प्रस्तुत परिशिष्ट बहुत महत्वपूर्ण है और शोधार्थियों तथा अध्येताओं के लिए काफी उपयोगी है। काश! ऐसी पुस्तकें हिंदी में लिखी जातीं, ताकि देश की हिंदी पट्टी की जनता अर्थशास्त्र के मकड़जाल को समझ पाती।