Advertisement

हाइकू फिल्मों का फैशन

बॉलीवुड में सिनेमा की नई भाषा गढ़ रही हैं शॉर्ट फिल्में
नई धाराः शॉर्ट फिल्म अहल्या

नागराज मंजुले की आंखों में लंबे समय से पावसचा निबंधा (बारिश का आलेख) फिल्म बनाने का सपना था। इस बात का एहसास उन्हें सैराट बनाने के बाद हुआ। सवाल उठना लाजिमी है कि सैराट जैसी शानदार फीचर फिल्म बनाने के बाद कोई शॉर्ट फिल्म क्यों बनाएगा? इस सवाल का जवाब पुणे के फिल्म ऐंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एफटीआइआइ) में प्रशिक्षित पायल कापड़िया की बातों में मिल सकता है, जिनकी 13 मिनट की शार्ट फिल्म आफ्टरनून क्लाउड्स पिछले साल कान फिल्म फेस्टिवल में शामिल हुई थी। पायल कहती हैं, “मुझे लगता है कि शार्ट फिल्म पूरी तरह एक अलग विधा है। अगर लंबी फीचर फिल्में गद्य हैं तो शॉर्ट फिल्में पद्य या कविता के ज्यादा करीब हैं। यूं समझिए कि इनमें फर्क उपन्यास और छोटी कहानी जैसा नहीं, बल्कि उपन्यास और कविता जैसा है।”

इसलिए यह एक वजह हो सकती है कि फीचर फिल्म फॉर्मेट में शानदार कामयाबी के बावजूद मंजुले ने अपनी अगली कहानी कहने के लिए शॉर्ट फिल्म विधा को चुना। भले ही शॉर्ट फिल्म अभी भी व्यावसायिक तौर पर सीमित पहुंच और मुनाफे वाली शैली है, मगर इसमें तमाम संभावनाएं खुल रही हैं। दुनिया भर में फिल्म उत्सवों की फलती-फूलती संस्कृति के साथ विविधता से भरपूर कंटेंट दिखाने वाले डिजिटल प्लेटफार्मों के आने से नजारा पूरी तरह बदल गया है। हाल के वर्षों में चटनी, अहल्या, छुरी, अनुकूल, गिरगिट, खुजली, खीर और द थॉट ऑफ यू जैसी शॉर्ट फिल्मों ने रोबोट से लेकर संस्पेंस और दाम्पत्य जीवन की उलझनों जैसे विषयों को खंगाला है। ऐसी कई फिल्में फेस्टिवलों के जरिए दुनिया भर में घूम चुकी हैं। कुछ फिल्में तो वायरल हो चुकी हैं। आजकल लोकप्रियता का यह नया पैमाना है।

ऐसा लगता है मानो भारत के तमाम निर्माता, निर्देशक और अभिनेता इस फॉर्मेट को निखारने-संवारने में जुट गए हैं। इस साल मुंबई अकादमी ऑफ मूविंग इमेजिस (एमएएमआइ) फिल्म फेस्टिवल में शार्ट फिल्मों की श्रेणी को बढ़िया रेस्पॉन्स मिला। एक महत्वपूर्ण बदलाव भी जल्द सामने आने वाला है। चर्चाए हैं कि इंटरनेशनल ब्रॉडकास्टर एक नए चैनल के जरिए भारत में टीवी पर शार्ट फिल्में दिखाने जा रहे हैं। मंजुले की राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म पावसचा निबंधा जल्द ही आपको टीवी पर देखने को मिलेगी।

मंजुले कहते हैं, “यह फिल्म मेरे बरसात के अनुभव पर आधारित है। औसत शार्ट फिल्म के मुकाबले इसका बजट बहुत ज्यादा था। खुशी है कि इसे राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ पहचान मिली।” उन्होंने पावसचा निबंधा को अभी तक किसी डिजिटल प्लेटफॉर्म को नहीं दिया है। वे इसे ज्यादा से ज्यादा फिल्म फेस्टिवलों में भेजना चाहते हैं। हालांकि, यह भी मानते हैं कि वे किसी मीडियम या फॉर्मेट के खिलाफ नहीं हैं। यह फिल्म बनी कैसे, इसका किस्सा सुनाते हैं, “यह कहानी कई बरसों से मेरे जेहन में ठहरी हुई थी। जब फैंड्री बना रहा था, तब इसे बनाने का ख्याल आया लेकिन तब नहीं बना सका। अक्सर आप किसी विषय के बारे में सोचते हैं, लेकिन बात दिमाग से निकल जाती है। जो चीज लंबे समय आपके साथ रह जाए, उस पर काम करना तो बनता है।” 

खूब तारीफ बटोरने वाली फिल्म मसान बनाने वाले नीरज घैवान के साथ भी यही हुआ। उन्होंने शेफाली शाह की मुख्य भूमिका वाली जूस नाम की शॉर्ट फिल्म बनाई तो लोग उनसे पूछने लगे कि फीचर फिल्म के बाद शॉर्ट फिल्म क्यों? क्योंकि शॉर्ट फिल्मों को फीचर फिल्मों की ओर केवल एक शुरुआती कदम मानते हैं। घैवान कहते हैं कि दुनिया भर में सभी फिल्मकार शॉर्ट फिल्में बनाते हैं। ऐसा पैसों या व्यावसायिक फायदे के लिए नहीं करते बल्कि मनचाहा काम करने की जो छूट शॉर्ट फिल्मों में मिलती है, उसके कारण निर्माता इसका रुख करते हैं। घैवान बताते हैं कि कुछ निर्माता सरोगेट मार्केटिंग या ब्रांडिंग के लिए भी शॉर्ट फिल्मों की तरफ देखने लगे हैं। जूस एक मध्यमवर्गीय घर में हो रही पार्टी की कहानी है, जहां चौकड़ी जमाए बैठे मर्द दारू पर डोनाल्ड ट्रंप की चर्चाओं में मशगूल हैं और परिवार की महिलाएं रसोई में पंखे के बगैर खाना बनाने में पसीने-पसीने हो रही हैं। 

दरअसल, शॉर्ट फिल्में फिल्मकारों को किसी छोटे मुद्दे या छोटी-सी घटना को पूरी बारीकी और पारखी नजर के साथ तलाशने की छूट देती हैं। फिल्मकार अजितपाल सिंह कहते हैं, “यह विधा आपको व्यावसायिक बाधाओं से मुक्त करती है। आप विशुद्ध सिनेमा के अपने ख्याल पर अडिग रह सकते हैं।” उनकी शॉर्ट फिल्म रम्मत-गम्मत फुटबॉल के दीवाने दो पक्के दोस्तों की कहानी है। इस दोस्ती का इम्तिहान तब होता है जब अमीर दोस्त को फुटबॉल खेलने के जूते मिलते हैं। बारिश के दौरान गुजरात के ग्रामीण इलाकों में फिल्माई गई इस फिल्म के दोनों मुख्य कलाकार वास्तव में फुटबॉल खिलाड़ी हैं। अजितपाल का कहना है कि फिल्मों को शॉर्ट या फीचर के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। शॉर्ट फिल्मों के लिए भी उतनी ही तैयारी की जरूरत पड़ती है, जितनी फीचर फिल्मों के लिए। एक लिहाज से शॉर्ट फिल्म बनाना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है क्योंकि जब तक इससे जुड़े सभी लोगों के बीच तालमेल बैठना शुरू होता है, फिल्म की शूटिंग खत्म हो जाती है। इसलिए आपको शूटिंग से पहले सभी लोगों के साथ खूब सोच-विचार और पुख्ता तैयारी करनी पड़ती है।

अजितपाल पिछले दिनों 64वें अंतरराष्ट्रीय शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल में अपनी फिल्म के वर्ल्ड प्रीमियर के लिए जर्मनी में थे। बाल और युवा श्रेणी में फिल्म को मिले विशेष उल्लेख से वह काफी खुश हैं। उनका कहना है कि फिल्म फेस्टिवल फिल्मों को दुनिया भर के दर्शकों के सामने ले जाने का अच्छा जरिया हैं। पायल भी कहती हैं, “कला के किसी भी रूप की तरह हमारे सामने भी कई सवाल और सरोकार होते हैं, जिन्हें हमें अपने काम के जरिए निभाना पड़ता है। खुशकिस्मत थी कि मेरी फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल में चुनी गई। इसके चलते इसे उम्मीद से कहीं ज्यादा बड़ा दर्शक वर्ग मिला। शॉर्ट फिल्में ऑनलाइन भी बहुत ध्यान खींच रही हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि एक न एक दिन थिएटर भी फीचर फिल्मों से पहले शॉर्ट फिल्म दिखाने में दिलचस्पी दिखाएंगे। अगर ऐसा होने लगे तो क्या कहना!

फिल्म फेस्टिवलों के अलावा ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भी शॉर्ट फिल्मों के लिए वरदान साबित हो रहे हैं। लार्ज शॉर्ट फिल्म्स, पॉकेट फिल्म्स और हमारामूवीज जैसी कंपनियां न सिर्फ शॉर्ट फिल्में बनवा रही हैं बल्कि प्रतियोगिता के जरिए ऐसी फिल्में बनाने और देखने वाली की एक बिरादरी भी तैयार कर रही हैं। ये कंपनियां यू-ट्यूब और सोशल मीडिया के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक शॉर्ट फिल्मों की पहुंच बना रही हैं।

हमारामूवीजडॉटकॉम की सह-संस्थापक पल्लवी रोहतगी बताती हैं, “हमारे साढ़े चार लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं और 80 फीसदी से ज्यादा दर्शक खुद देखने आ रहे हैं। लगातार हमारी नजर अभिनय प्रतिभा और नए किस्सागो की तलाश पर है। चाहे वे हॉरर, सस्पेंस, रोमांस किसी भी विधा में माहिर हों। असली चीज है कि कहानी कितनी दमदार है।” हालांकि, 15.5 करोड़ व्यूज के बावजूद वे लोग अभी तक पैसा नहीं बना रहे हैं। पल्लवी बताती हैं कि अभी पैसा तो कोई भी नहीं बना रहा, सबकी नजर नई प्रतिभा को खोजने पर है। उनका बजट 10 हजार रुपये से शुरू होता है जो 5 लाख तक जाता है। ये लोग जोया अख्तर, श्रीराम राघवन और इम्तियाज अली सरीखे स्थापित फिल्मकारों की देखरेख में शॉर्ट फिल्म बनाने के लिए नए निर्देशकों को भी तैयार करते हैं।

साइरस दस्तूर जैसे फिल्मों के कई शौकीन भी हैं जो सुनहरे दौर के सिनेमाई अनुभव को शॉर्ट फिल्मों के लिए भी संभव बनाने में जुटे हैं। शामियाना शॉर्ट फिल्म क्लब के संस्थापक साइरस बताते हैं, “हमने सबसे पहले  शॉर्ट फिल्मों के लिए फिल्म क्लब की शुरुआत की। अब हम भारत के 15 शहरों में मौजूदगी के साथ एशिया में सबसे बड़े हैं। हर महीने करीब 15 हजार लोगों तक पहुंचते हैं।” यह क्लब जानी-मानी फिल्मों का प्रदर्शन करता है। पहले उनके लिए ऐसी फिल्में खोजना मुश्किल होता था। लेकिन अब कोई कमी नहीं है। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि आजकल सभी फिल्में अच्छी हैं।

अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को शॉर्ट फिल्में बड़ा मौका मुहैया कर रही हैं। अभिनेता नवनीत कस्तूरिया बताते हैं कि नसीरुद्दीन शाह के साथ शॉर्ट फिल्म कैफे इंटीरियर नाइट ने उन्हें दोबारा नसीर के साथ होम और हम फीचर फिल्म में काम करने का मौका दिलाया। हालांकि, शॉर्ट फिल्मों का बजट 20 हजार रुपये जितना कम भी हो सकता है। इसलिए इसमें काम करने वालों के सामने कमाई का ज्यादा मौका नहीं होता। लेकिन यह सच है कि बड़ी तादाद में शॉर्ट फिल्में बन रही हैं।

पल्लवी को चार-पांच फिल्में बनाने के प्रस्ताव रोजाना मिलते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने नौजवान और संघर्षरत फिल्मकार अवॉर्ड विजेता शॉर्ट फिल्म बनाकर अपने कॅरिअर को लंबी उड़ान देना चाहते हैं। डिजिटल मीडिया के उभार, लंबी अवधि के प्रति दर्शकों का घटता धैर्य और मोबाइल फोन पर फ्री इंटरनेट ने इन उम्मीदों को पंख लगा दिए हैं। जब तक फिल्म निर्माता कमाई की फिक्र किए बगैर इस माध्यम में पैसा लगाने के लिए तैयार हैं, तब तक सिनेमा की यह कविता विधा अपनी छटा बिखेरती रहेगी।

Advertisement
Advertisement
Advertisement