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मिशन 2019 महबूबा अलविदा

भाजपा के पीडीपी से मतभेदों के अलावा गठबंधन तोड़ने की सियासी वजहें और भी बड़ी, केंद्र के लिए अब कश्मीर एक नई चुनौती
अपने-अपने दावेः भाजपा से गठबंधन टूटने के बाद महबूबा मुफ्ती ने कहा, कश्मीरियों के हक में सरकार कुर्बान

महबूबा मुफ्ती 19 जून को श्रीनगर के सचिवालय में दाखिल हुईं तो सबसे पहले कश्मीर पर केंद्र सरकार के वार्ताकार, पूर्व आइबी प्रमुख दिनेश्वर शर्मा से मिलीं और लंबी बातचीत की। उसके बाद उन्‍होंने पार्टी विधायकों के साथ बैठक की और सारे काम छोड़कर अपने फेयरव्यू आवास के लिए निकल गईं। तब तक दिल्ली में भाजपा के महासचिव राम माधव पीडीपी से गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर चुके थे। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के सूत्रों के मुताबिक, इस घोषणा से करीब घंटा भर पहले राम माधव ने महबूबा मुफ्ती को फोन पर बता दिया था कि भाजपा उनकी सरकार से समर्थन वापस लेने जा रही है। मगर महबूबा ने अपनी तुनकमिजाजी पर काबू रखा और मीडिया से रू-ब-रू होने के पहले राज्यपाल एनएन वोहरा को इस्तीफा सौंप दिया। इस एक घंटे के दौरान वे खुद भी गठबंधन तोड़ने का ऐलान कर सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं करना बेहतर समझा। अब नेशनल कॉन्फ्रेंस दावा कर रही है कि गठबंधन तोड़ना “आपसी सहमति” से लिया गया फैसला था।

पीडीपी पर तीखे हमले बोलने वाली भाजपा के उलट महबूबा शांत रहीं और केंद्र को कश्मीर में “मस्कुलर पॉलिसी” (सख्त नीति) अपनाने से आगाह किया और कहा कि कश्मीर कोई “एनिमी टेरिटरी” (शत्रु क्षेत्र) नहीं है। गठबंधन टूटने के एक दिन बाद पीडीपी ने विस्तृत बयान जारी करके कहा कि पार्टी कश्मीर के लोगों के हितों की रक्षा और उन्हें जुल्म के दौर से बचाने के लिए हजार बार सरकार की कुर्बानी देने को तैयार है। पीडीपी से समर्थन वापस लेने के लिए भाजपा ने जो कारण गिनाए हैं, पार्टी को उन पर फख्र है और वह उन पर अड़ी रहेगी। पीडीपी प्रवक्ता के मुताबिक, ये कारण हैं–पाकिस्तान और अलगाववादियों से बातचीत करने की महबूबा मुफ्ती की मांग, पत्थरबाजों के खिलाफ मामले वापस लेना, संघर्षविराम को जमीन पर उतारना और सार्थक बातचीत व सुलह के लिए उठाए जाने वाले कदम।

हालांकि, भाजपा के कश्मीर प्रभारी राम माधव और बाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी जम्मू की सभा में कहा कि महबूबा सरकार की नीतियां सिर्फ घाटी केंद्रित रहीं और जम्मू और लद्दाख के विकास को अनदेखा कर दिया गया, जिससे इन इलाकों के लोग ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। भाजपा के लिए बाकी मुद्दों के अलावा सरकार से समर्थन वापसी का यह बड़ा मसला साबित हुआ। इसके जवाब में महबूबा मुफ्ती ने लद्दाख और जम्मू क्षेत्र के लिए किए विकास कार्यों की फेहरिस्त गिनाई और इसका खंडन किया।

पीडीपी का दावा है कि मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य की कमान संभालने के बाद से ही महबूबा मुफ्ती की हरसंभव कोशिश रही है कि कश्मीर के लोगों को उनके वाजिब हक और सम्मान के साथ जीने का मौका मिले। पार्टी का यहां तक कहना है कि राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आने वाले कानूनों की रक्षा से लेकर कठुआ के बलात्कारियों को सजा दिलाने तक महबूबा मुफ्ती विकट परिस्थितियों में कश्मीर के लोगों के बचाव में एक दीवार बनकर खड़ी रहीं। ऐसे षड्यंत्रों के खिलाफ भी जो राज्य के बाहर कश्मीर के लोगों के खिलाफ रचे जा रहे थे।  

इस साल जनवरी में कठुआ में बकरवाल समुदाय की आठ वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के बाद से ही गठबंधन में शामिल दोनों पार्टियों का साथ रहना मुश्किल हो गया था। पुलिस के अनुसार, उस आठ साल की बच्ची को एक देवस्थान के भीतर बंधक बनाकर रखा, उसे नशा दिया और पीटा गया। बार-बार उसका बलात्कार हुआ, यहां तक कि हत्या से कुछ मिनट पहले भी! इस मामले में पुलिस की चार्जशीट ने भाजपा के दो मंत्रियों वन मंत्री चौधरी लाल सिंह और वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री चंद्रप्रकाश गंगा के खिलाफ आक्रोश पैदा कर दिया, जिन्होंने इस मामले में आरोपियों की गिरफ्तारी के खिलाफ हिंदू एकता मंच की रैली में हिस्सा लिया था। इलाके से बकरवाल समुदाय को खदेड़ने के लिए महीनों से बच्ची के साथ बलात्कार की यह साजिश रची जा रही थी इसलिए महबूबा मुफ्ती ने मामले की जांच जम्मू-कश्मीर पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंप दी। केस को सीबीआइ के हवाले नहीं करवा पाने को लेकर भाजपा की आलोचना होने लगी तो जम्मू में यह मामला गरमा गया। जम्मू में कई रैलियां निकाली गईं जिनमें सीबीआइ जांच का दबाव नहीं बनाने को लेकर भाजपा को जम्मू विरोधी करार दिया गया।

गुर्जरों को सेना प्रतिष्ठान द्वारा दूसरी रक्षापंक्ति माना जाता है। इसलिए स्थानीय वकीलों के विरोध के बावजूद कठुआ केस में चार्जशीट पेश होने के बाद केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में पनपे इस खतरे और मंत्रियों के बचाव से देश के बाकी हिस्सों में पार्टी को होने वाले व्यापक नुकसान को तुरंत भांप लिया। उस समय पीडीपी ने बच्ची के बलात्कार और हत्या के मामले में इंसाफ दिलाने में नाकाम रहने पर भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने की धमकी दे डाली थी। पीडीपी और कठुआ कांड को लेकर देश भर में उठी आवाजों के दबाव में भाजपा ने अपने दोनों मंत्रियों से इस्तीफे तो दिलवा दिए, लेकिन जानकारों का कहना है, 2019 के आम चुनाव के बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपने गढ़ जम्मू के लोगों को संतुष्ट रखने के लिए भाजपा पीडीपी से पल्ला झाड़ने के सही मौके का इंतजार करने लगी।

भाजपा ने राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की हत्या समेत घाटी में बिगड़ी सुरक्षा की स्थिति जैसे संवेदनशील मुद्दे को गठबंधन से हाथ खींचने की वजह बताया है। पार्टी ने 15 जून को जम्मू-कश्मीर में उग्रवादियों द्वारा अगवा कर मार डाले गए राइफलमैन औरंगजेब का मुद्दा भी उठाया। औरंगजेब उस दिन ईद पर अपने परिवार से मिलने पुंछ जा रहा था, जब उग्रवादियों ने एक निजी वाहन से शोपियां की तरफ जा रहे सेना के जवानों को रोक लिया। शोपियां से वह पुंछ के लिए दूसरी सवारी लेता, लेकिन उसका अपहरण कर लिया गया। बाद में उग्रवादियों ने उसकी हत्या से पहले एक वीडियो जारी किया, जिसमें वह भारतीय सेना का जवान होने और दक्षिण कश्मीर में कई उग्रवाद-विरोधी अभियानों में शामिल होने की बात कबूल रहा था। सेना में रह चुके औरंगजेब के पिता ने कहा कि उनके बेटे को रिहा नहीं कराया जाता तो वह उसे छुड़ाने के लिए खुद बंदूक उठा लेंगे। इससे पूरे देश में माहौल गरमा गया।

घाटी में मौजूद जानकार भाजपा की समर्थन वापसी को 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर कश्मीर में सख्त नीति के दिखावे की शुरुआत मानते हैं। लेकिन भाजपा यह दिखाने की कोशिश भी कर रही है कि गठबंधन के तीन साल के दौरान पार्टी आतंकवाद पर नरम नहीं रही है, जैसा माना जा रहा है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रवींद्र रैना कहते हैं, “पिछले तीन साल में हमने 600 उग्रवादी मार गिराए। महीने भर चले सीजफायर के दौरान हमने 24 उग्रवादी मारे।” उनका कहना है कि भाजपा चाहती है कि राज्य में और ज्यादा सख्ती से कानून-व्यवस्था बहाल हो। गठबंधन टूटने के बाद सेना पूरे दक्षिण कश्मीर में मुस्तैद हो गई और दो दिन के अंदर छह उग्रवादी मारे गए।

मार्च 2015 में अपनी शुरुआत के बाद से ही पीडीपी और भाजपा का गठबंधन कमजोर धरातल पर खड़ा था। पीडीपी सेल्फ रूल यानी स्वशासन में यकीन रखती है जबकि भाजपा चाहती है कि जम्मू-कश्मीर का भारतीय संघ के साथ पूरा जुड़ाव रहे। इन वैचारिक मतभेदों के बावजूद दोनों पार्टियों ने 2014 के विधानसभा चुनावों के बाद यह गठबंधन तैयार किया था, क्योंकि 87 सीटों वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भाजपा को जम्मू से 25 सीटें मिली थीं जबकि पीडीपी के पास 28 सीटें थीं जो ज्यादातर घाटी से मिली थीं। रैना कहते हैं, “हम 44 सीटों के बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाए, इसलिए गठबंधन करना संवैधानिक और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी थी।”

भाजपा महासचिव राम माधव और पीडीपी के नेता हसीब द्राबू के बीच दो महीने की बातचीत के बाद दोनों पार्टियों के बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम, जिसे एजेंडा ऑफ अलायंस का नाम दिया गया,  को लेकर सहमति बनी थी। इस एजेंडे में पीडीपी को भाजपा की तरफ से अनुच्छेद 370 के मुद्दे को छह साल तक ठंडे बस्ते में डालने का आश्वासन मिला था। दोनों पार्टियां कश्मीर को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की  “इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत” वाली सोच अपनाने पर यह कहते हुए सहमत हुईं कि गठबंधन सरकार सभी आंतरिक पक्षों के साथ सतत और सार्थक बातचीत को बढ़ावा देगी। वैचारिक रुझान की परवाह किए बगैर इसमें सभी राजनीतिक समूहों को शामिल किया जाएगा। इस एजेंडे में एलओसी के दोनों ओर लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने जैसे विश्वास बहाली के उपायों, लोगों के बीच आदान-प्रदान, एलओसी के पार यात्रा, व्यापार और कारोबार को नए स्तर पर ले जाने और राज्य के तीनों क्षेत्रों के बीच संपर्क बढ़ाने के लिए नए रास्ते खोलने जैसे मुद्दों को एजेंडा ऑफ अलायंस में लाकर द्राबू पीडीपी के चुनावी वादों को जगह दिलाने में कामयाब रहे। 

हालांकि, इस एजेंडे का कोई भी वादा पिछले तीन साल में लागू नहीं हो पाया। पीडीपी तो भाजपा पर इस एजेंडे की पूरी तरह अनदेखी का आरोप लगा रही है क्योंकि भाजपा से जुड़ी गैर-सरकारी संस्थाएं जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35-ए को हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गईं। पीडीपी के एक नेता कहते हैं, “इस बार पाकिस्तान को कुछ नहीं करना है। उसे केवल दूर से देखना है क्योंकि सख्ती की नीति से हालात बिगड़ेंगे ही।”

सूत्रों की मानें तो 2014 में पाकिस्तान ने पीडीपी को भाजपा के साथ हाथ मिलाने से रोकने के भरसक प्रयास किए थे। इतिहास में यह पहला मौका था जब भाजपा इस तनावग्रस्त राज्य की सत्ता में आ रही थी। पीडीपी के नेता कहते हैं कि लंबे समय के लिए पीडीपी-भाजपा गठबंधन ही एकमात्र भरोसेमंद उपाय था क्योंकि कश्मीर केंद्रित पार्टी अति-राष्ट्रवादी हिंदू पार्टी के साथ समझौता कर रही थी। अगर उन्हें यह मंजूर नहीं तो फिर क्या मंजूर है? वे कहते हैं कि अब जम्मू-कश्मीर राजनीतिक अस्थिरता के लंबे दौर से गुजरेगा।

पीडीपी नेताओं का तर्क है कि जब 2014 के आम चुनाव नजदीक थे तो कांग्रेस ने संसद हमले के दोषी अफजल गुरु को इस उम्मीद में फांसी पर चढ़ा दिया था कि इससे चुनाव में उसे फायदा मिलेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अब 2018 में भाजपा ने बिलकुल ऐसी ही उम्मीद में महबूबा मुफ्ती को कुर्बान कर दिया है। भाजपा को 2019 में इसका कितना फायदा मिलेगा, कहना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि कश्मीर लंबे समय तक अस्थिर रहेगा।

 

नए सिपहसालार

बी.वी.आर. सुब्रह्मण्यम

जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ काडर के 1987 बैच के आइएएस अधिकारी बीवीआर सुब्रह्मण्यम को वहां का मुख्य सचिव नियुक्त किया। सुब्रह्मण्यम को छत्तीसगढ़ से जम्मू-कश्मीर भेजे जाने के कई कारण बताये जा रहे हैं। सुब्रह्मण्यम प्रधानमंत्री कार्यालय में अलग-अलग पदों पर करीब दस साल काम कर चुके हैं। उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ले गए थे, लेकिन वे नरेंद्र मोदी के साथ भी करीब सवा साल काम कर चुके हैं। कहा जा रहा है कि सुब्रह्मण्यम की नियुक्ति से जम्मू-कश्मीर और प्रधानमंत्री कार्यालय में बेहतर तालमेल हो सकेगा। सुब्रह्मण्यम की ईमानदार, साफ-सुथरी छवि और छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित इलाकों में आधारभूत संरचना विकसित करने में अहम भूमिका भी चयन का आधार रही। गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव के तौर पर सुब्रह्मण्यम ने बस्तर में सही रणनीति के जरिए 700 किमी. लंबी सड़क बनाने में सफलता हासिल की। 2017 में इस इलाके में 300 नक्सली मारे गए और 1000 से अधिक ने सरेंडर किया। सुब्रह्मण्यम पूर्वोत्तर के राज्यों में भी काम कर चुके हैं। माना जा रहा है कि नक्सल और उग्रवाद प्रभावित इलाकों में काम के अनुभव की वजह से भी उन्हें देश के आतंकवाद प्रभावित राज्य की कमान सौंपी गई है।       

विजय कुमार

राज्यपाल एनएन वोहरा के सलाहकार नियुक्त किए गए पूर्व आइपीएस अधिकारी विजय कुमार जंगल में उग्रवाद निरोधक अभियान चलाने में माहिर माने जाते हैं। तमिलनाडु काडर के 1975 बैच के आइपीएस अधिकारी रहे कुमार 1998-2001 में सीमा सुरक्षा बल के महानिरीक्षक (आइजी) के तौर पर कश्मीर घाटी में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उस वक्त बीएसएफ घाटी में आतंकवाद निरोधक अभियानों में काफी सक्रिय था। 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 75 जवानों के शहीद होने के बाद कुमार को सीआरपीएफ का डीजी बनाया गया था। इसके बाद इलाके में नक्सली गतिविधियों में बड़ी कमी दर्ज की गई थी। कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन अक्टूबर 2004 में एक मुठभेड़ में मारा गया था, विजय कुमार ने ही उस टीम का नेतृत्व किया था। विजय कुमार को सुथरी छवि वाले पुलिस अफसर के रूप में देखा जाता रहा है। सीआरपीएफ के डीजी के पद से रिटायर होने के बाद विजय कुमार केंद्रीय गृह मंत्रालय में सलाहकार के रूप में सेवाएं दे रहे थे। उनके साथ काम कर चुके छत्तीसगढ़ के अफसरों का कहना है कि काम को लेकर में उनमें काफी उत्साह रहता था और काम पूरा करने की कोशिश करते थे। सीआरपीएफ के डीजी रहते वे औसतन हर माह छत्तीसगढ़ आकर ग्राउंड लेवल पर जाते थे।  

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