यदि 25 अप्रैल, 1994 के दिन केवल पैंसठ साल की आयु में दिल का दौरा पड़ने से भारत के शीर्षस्थ चित्रकारों में गिने जाने वाले जगदीश स्वामीनाथन का अकस्मात निधन न हुआ होता, तो बीती 21 जून को वे नब्बे वर्ष के हो गए होते। उनके समवयस्क और निकट के लोग उन्हें स्वामी कहते थे और उम्र में छोटे इसके साथ ‘जी’ लगा देते थे। स्वामी अपनी विलक्षण धज में लगते भी स्वामी ही थे-वीतराग, स्पष्टवादी, लाग-लपेट से दूर और स्नेह से भरे हुए। यही कारण है कि उनके परिचित, मित्र और सहयोगी आज भी उन्हें बेहद शिद्दत के साथ याद करते हैं। यही कारण था कि स्वामीनाथन के घनिष्ठ मित्र और प्रख्यात कला-समीक्षक प्रयाग शुक्ल के सुझाव पर दिल्ली की धूमीमल गैलरी ने, जिसके साथ स्वामीनाथन का एक लंबे अरसे तक गहरा जुड़ाव रहा, उनके जन्मदिन को एक नए ढंग से मनाया।
शायद अधिक लोग न जानते हों कि तमिल परिवार में जन्म लेने के बावजूद स्वामीनाथन का न केवल हिंदी भाषा और साहित्य के साथ गहरा अनुरागपूर्ण संबंध था और बड़े-बड़े लेखकों के साथ गाढ़ी दोस्ती थी, बल्कि वह स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। जब 1980 के दशक में कनॉट प्लेस के शंकर मार्केट में स्थित शिल्पीचक्र कला दीर्घा को पुनर्जीवित किया गया, तो उस अवसर पर फर्श पर बैठकर विष्णु नागर, प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी और मेरे साथ-साथ स्वामीनाथन ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया था। इसी परंपरा में उनकी 90वीं जयंती पर धूमीमल गैलरी में हिंदी के जाने-माने कवियों को स्वामी की याद में काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया और गिरधर राठी, प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज, विष्णु नागर, गगन गिल और सविता सिंह ने अपनी कविताएं सुनाईं और देश के अग्रणी चित्रकार कृष्ण खन्ना ने स्वामी के बारे में अपने संस्मरण सुनाए। रजा फाउंडेशन के निमंत्रण पर प्रयाग शुक्ल स्वामीनाथन की हिंदी में जीवनी लिख रहे हैं। उसके भी कुछ अंशों का पाठ किया गया।
इस घटना ने एक बार फिर जगदीश स्वामीनाथन को हमारी स्मृति में जीवित कर दिया। उनके बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनके जीवन और कर्म के बीच कोई फांक नहीं थी। वे इस दृष्टि से भी विलक्षण थे कि संभवतः वे देश के शीर्षस्थ चित्रकारों में एकमात्र ऐसे चित्रकार थे जिन्होंने राजनीति को पुस्तकों और विचारों में नहीं, अपने जीवन में जिया था। उन्होंने किसी कला विद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया क्योंकि उनकी युवावस्था के आरंभिक वर्ष पहले कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और फिर कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर के रूप में बीते। वे मजदूरों की यूनियनें बनवाते थे, उनके संघर्षों का नेतृत्व करते थे और इस तरह सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। कला के प्रति उनकी रुचि शुरू से ही थी लेकिन जब उन्हें लगा कि राजनीतिक कर्म उनके अपने लिए निरर्थक है, तब उन्होंने अपने-आपको कला के प्रति एकाग्र कर लिया और धीरे-धीरे देश के अग्रणी चित्रकारों की पंक्ति में अपना स्थान बना लिया। स्वामीनाथन एक ही साथ प्रखर बौद्धिक और भावनाओं की तरंगों पर हिचकोले खाने वाले भावप्रवण व्यक्ति थे। उन्होंने कई हिंदी-अंग्रेजी प्रकाशनों के लिए पत्रकारिता और कला-समीक्षा भी की।
अपने समय की कला-प्रवृत्तियों को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के लिए स्वामीनाथन ने ‘ग्रुप 1890’ की स्थापना की। अक्टूबर 1963 में इस ग्रुप की प्रदर्शनी का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया। हिम्मत शाह, अंबादास, राजेश मेहरा, गुलाम मुहम्मद शेख और जेराम पटेल आदि कलाकार इस ग्रुप के सदस्य थे। स्वामीनाथन ने कला पर एक अत्यंत पठनीय और बौद्धिक विमर्श से भरी हुई पत्रिका कॉन्ट्रा भी प्रकशित की। इसके थोड़े से अंक ही निकल पाए। ललित कला अकादेमी के लोकतंत्रीकरण के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया और इसके लिए जाने-माने और युवा- दोनों ही तरह के चित्रकारों को संगठित किया।
जब प्रसिद्ध स्पेनिश कवि ओक्तावियो पाज, जिन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, नई दिल्ली में मेक्सिको के राजदूत होकर आए तो स्वामी के साथ उनकी अल्प समय में ही न केवल प्रगाढ़ मित्रता हो गई, बल्कि किसी भी समय एक-दूसरे के घर आने-जाने के नितांत अनौपचारिक संबंध भी बन गए। यह मित्रता दोनों की सृजनात्मकता के लिए बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। पाज ने स्वामीनाथन पर ‘पेंटर स्वामीनाथन’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी जिसे दोनों ने मिल कर स्पेनिश से अंग्रेजी में अनुवाद किया।
जिस तरह सैयद हैदर रजा ने अपने कलाकर्म का काफी बड़ा हिस्सा बिंदु के रहस्य जानने और उद्घाटित करने में लगा दिया, उसी तरह स्वामीनाथन के पहाड़, पत्थर और उन पर बैठी उड़ान भरने के लिए तैयार चिड़िया भी लंबे समय तक उनके काम पर छाए रहे। भारत भवन, भोपाल में उन्होंने आदिवासी कला की एक दीर्घा स्थापित की और इसे उनका स्थाई योगदान माना जा सकता है।
स्वामीनाथन के दो पुत्रों में से छोटे हर्षवर्धन स्वयं उल्लेखनीय चित्रकार के रूप में उभर आए हैं। बड़े पुत्र कालिदास ने उस्ताद अमजद अली खान से सरोद सीखा और पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर से संगीत। उनकी गणना संगीत के गहरे जानकारों में होती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)