हर व्यक्ति रिश्ते बनाना चाहता है। लेकिन, आज के दौर में एक-दूसरे को जानने-समझने के लिए लोगों के पास वक्त कम हो गया। अपने दायरे के लोगों से मेल-मिलाप का वक्त नहीं मिल रहा। वक्त मिल जाए तो एक-दूसरे को जानने-समझने का अवसर तो बिलकुल हीं नहीं मिल रहा। इसलिए काम के रिश्ते, ऐसे रिश्ते जो साथ होने का एहसास कराते हैं कम बन रहे। इस जरूरत को पूरा करने के लिए लोग डेटिंग ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं और अनजान लोगों को जानना-समझना चाहते हैं।
जैसे अन्य चीजें क्षणिक होती जा रही हैं उसी तरह से ये ऐप रिश्ते बनाने की प्रक्रिया को छोटी से छोटी करने की प्रवृत्ति की भी निशानी हैं। इसमें कोई विकृति नहीं है, क्योंकि समय के साथ समाज और उसके तौर-तरीके बदलते रहते हैं और डेटिंग ऐप भी बदलाव का एक तरीका ही है। लोगों के पास एक-दूसरे से मिलने का और जरिया नहीं है, इसलिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
यह चलन केवल हमारे देश में ही नहीं दिख रहा, बल्कि पूरी दुनिया में अनजान लोगों से मेल-मिलाप का रुझान बढ़ रहा है। आज के दौर में पूरब, पश्चिम का फर्क मिट चुका है। फिर भी अपने देश में सामाजिक तौर पर लोगों की नजर रहती है कि कौन किससे मिल रहा है, क्या बातें कर रहा है। इसके बावजूद मुंबई, दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों के युवाओं की जो सोच है वह अमेरिकी टीनएजर जैसी ही हो चुकी है। इसलिए, आने वाले वक्त में डेटिंग ऐप का इस्तेमाल और बढ़ सकता है।
इन ऐप का इस्तेमाल तब खतरनाक हो जाता है जब रिश्ते नहीं बनते या नहीं चलते हैं। जितने रिश्ते फेल होंगे उतना अपने ऊपर शंका होनी शुरू हो सकती है कि मैं सही हूं या नहीं हूं, मैं किसी के लायक हूं कि नहीं हूं। ऐसा होने पर व्यक्ति को लंबे समय के लिए मानसिक परेशानी हो सकती है। वह अवसाद में जा सकता है। इसलिए, इन ऐप का इस्तेमाल करते वक्त सावधानी बरतनी जरूरी है। ख्याल रखें कि मन में खुद को लेकर कोई शंका न आए। मेल-मुलाकात के दौरान सेफ्टी का ध्यान रखना भी जरूरी है।
डेटिंग ऐप से शारीरिक संबंध और शॉर्ट टर्म रिलेशनशिप भी बहुत बन रहे हैं। यह एक सामाजिक प्रक्रिया है जो आगे जाकर कुछ और बढ़ेगी। यह भी सही है कि ऐप पर कई लोग फर्जी प्रोफाइल बनाते हैं, सेक्स पार्टनर की तलाश में रहते हैं, सामने वाले को बहलाने-फुसलाने के लिए झूठ बोलते हैं, लेकिन कुछ सच्चे लोग भी हैं। यह कोई समस्या नहीं है, क्योंकि आम जिंदगी में भी अलग-अलग तरह के लोगों से आप मिलते हैं। महत्वपूर्ण उन दो लोगों का एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानना और जरूरतें समझना होता है जो डेट करते हैं। जरूरतें मैच करेंगी तभी रिश्ता बनेगा।
रिश्ते शॉर्ट टर्म के लिए बनाएं या लांग टर्म के लिए, चार चीजों का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। पहला, सामने वाला केअर कर रहा है कि नहीं, दूसरा, रिस्पेक्ट मिल रहा है या नहीं, तीसरा, रिस्पांसिबली बिहेव कर रहा है या नहीं और आखिरी उसके बारे में आप कितना जानते हैं। बिना जाने कोई भी रिश्ता बनाएंगे तो आगे जाकर दुख देगा। सामने वाला रिस्पेक्ट नहीं दे रहा और रिस्पांसिबल नहीं है तो वो कोई रिश्ता नहीं हुआ।
डेटिंग ऐप ऐसा व्हीकल है जो लोगों को डिजिटल डेटिंग से फिजिकल डेटिंग का सफर पूरा करवाता है। इस पर सवार होकर लोग एक-दूसरे से मिल लेते हैं। लेकिन, ऐसे लोगों की जरूरतें सिर्फ शारीरिक नहीं होतीं। यह किसी के साथ होने का एहसास भी दिलाता है। यही कारण है कि हर तरह के रिश्ते यहां बन रहे हैं। तलाकशुदा लोगों के, बड़ी उम्र के और यहां तक कि समलैंगिक रिश्ते भी। छोटे शहरों में भी इन ऐप का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है जो बताता है कि लोग ख्वाहिश से नहीं जरूरत के कारण इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
असल में, ऐसे साथी की तलाश जो आपकी बात सुन सके और उसे आगे बढ़ा सके हर जेनरेशन की जरूरत रही है। पहले हम कॉलेज में मेल-मिलाप कर लेते थे, लाइब्रेरी में किताबों के संग चिट्ठियों का आदान-प्रदान कर लेते थे। समय बदला तो एसएमएस करने लगे और अब टिंडर पर एक-दूसरे की शक्ल देख लेते हैं और फिर अपनी पसंद के हिसाब से रिश्ते को आगे बढ़ाने या न बढ़ाने के बारे में सोचते हैं। तरीका बदलने का कारण यह भी है कि जब आप डेटिंग ऐप पर साथी की तलाश कर रहे होते हैं तो किसी की नजर आप पर नहीं होती। सेक्योर फील करने के कारण ही लोग इनका इस्तेमाल करने से झिझक नहीं रहे। लेकिन, यह कोई फैशन ट्रेंड जैसा नहीं है। हां, शोषण की आशंका इसमें जरूर ज्यादा है, क्योंकि जान-पहचान केवल इंटरनेट के जरिए हो रही है। और इस तरह की जान-पहचान को पूरी नॉलेज वाला कतई नहीं मान सकते।
कुछ साल बाद जब जरूरतें बदलेंगी तो जरिया भी बदल जाएगा। इससे हमारे सोसायटी पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला। विवाह से पहले सेक्स, विवाहेतर संबंध की जो बातें की जा रही हैं वह पहले भी थीं।
रिश्तों के स्थायित्व को लेकर यकीनी तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। यह जरूर है कि इन ऐप का इस्तेमाल लोग सोच-समझकर कर रहे हैं, न कि बचपने में। जब वे सोच-समझकर इस्तेमाल कर रहें हैं तो उन पर हम अपनी सोच क्यों थोपें।
(लेखक अपोलो हॉस्पिटल दिल्ली में सीनियर कंसल्टेंट साइकियाट्रिस्ट हैं)