मौजूदा लोकसभा के लिए 2014 में हुए चुनावों से करीब आठ महीने पहले 15 सितंबर, 2013 को नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में हरियाणा के रेवाड़ी में पहली रैली की थी। उस रैली की खासियत यह थी कि उसे पूर्व सैनिकों की रैली कहा गया था और उस रैली की तैयारी का जिम्मा भी एक पूर्व सैनिक को ही दिया गया था। चुनावी लड़ाई की तैयारी को एक नई पिच पर ले जाकर मोदी ने इस रैली में केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार पर बड़े हमले किए थे। उसके बाद भाजपा के चुनावी तंत्र ने हवा का रुख अपने पक्ष में करके जो कामयाबी हासिल की, वह उसे करीब तीस साल बाद लोकसभा में अकेले बहुमत हासिल करने वाली किसी पार्टी का खिताब दे गई। अब अगली लोकसभा के लिए 2019 के चुनाव में करीब नौ महीने का समय बचा है और भाजपा ने चुनावी तैयारियों की शुरुआत कर दी है। सात जुलाई की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जयपुर रैली को इसी रूप में देखा जा सकता है। यह रैली मोदी सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों के साथ संवाद के रूप में पेश की गई। यानी रेवाड़ी की रैली की ही तरह इसकी भी एक थीम थी। इसके करीब दस दिन के भीतर ही वे उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ समेत पूर्वांचल में दो रैलियां करने वाले हैं। यह केवल संयोग नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है क्योंकि जहां राजस्थान में दिसंबर तक विधानसभा के चुनाव होने हैं वहीं उत्तर प्रदेश लोकसभा में सबसे अधिक सीट देने वाला राज्य है।
असल में भाजपा तेजी से अपनी चुनावी रणनीति पर अमल कर रही है। वैसे भी चार राज्यों में दिसंबर के पहले चुनाव होने हैं और इनमें से तीन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। इसलिए इन राज्यों में प्रधानमंत्री की रैलियों की संख्या बढ़ गई है। इससे साफ है कि भाजपा इन राज्यों में चुनावी जीत हासिल करने के लिए राज्य सरकारों के प्रमुखों के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे को ज्यादा तरजीह दे रही है। इन रैलियों में वे केंद्र सरकार की तमाम योजनाओं के फायदे गिना रहे हैं और ज्यादातर के लक्ष्य की समय सीमा 2022 रखी जा रही है। संकेत साफ है कि एक बार फिर मोदी के नेतृत्व में भाजपा को सरकार बनाने का मौका चाहिए। भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है, "हम करीब 18 करोड़ परिवारों के जीवन में गुणात्मक बदलाव ले आए हैं। इसलिए हमें पॉजिटिव वोट मिलेगा और हमें पूरा भरोसा है कि हम अगली बार भी सरकार में आएंगे।" हालांकि, वे स्वीकार करते हैं कि किसानों की नाराजगी एक मसला है और रोजगार के मोर्चे पर समस्या है, लेकिन उसके बावजूद लोग हमारे काम को भी देखेंगे और इन मुद्दों पर भी हम तेजी से कदम उठा रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि जुलाई के पहले सप्ताह में केंद्र सरकार ने मौजूदा खरीफ सीजन की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में काफी बढ़ोतरी की है। इस फैसले को यह साबित करने के लिए पूरा जोर लगाया जा रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले फसल की लागत पर 50 फीसदी मुनाफे का वादा पार्टी ने पूरा कर दिया है। ये दाम फसलों की वास्तविक लागत (ए-2 में परिवार का मेहनताना जोड़कर) के आधार पर डेढ़ गुना या इससे अधिक बैठते हैं। पार्टी इस दावे को भुनाने के लिए बड़े पैमाने पर सभाएं और रैलियां करेगी। इसमें एक बड़ी रैली पंजाब और हरियाणा की सीमा पर होगी। हरियाणा के एक मंत्री का कहना है कि इस रैली के जरिॆ सरकार के इस ऐतिहासिक किसान हितैषी फैसले का संदेश लोगों को दिया जाएगा। उम्मीद है कि पार्टी प्रमुख अमित शाह इसे संबोधित करेंगे। इसके पहले गन्ना किसानों के बकाया भुगतान के संकट को हल करने के लिए करीब 8000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की गई थी। ये कदम किसानों की नाराजगी को दूर करने के लिए ही उठाए जा रहे हैं। हालांकि एमएसपी में फसलों की लागत पर कथित 50 फीसदी मुनाफे की बात किसान संगठन स्वीकार नहीं कर रहे हैं। उनका कहना है कि वादा कुल लागत यानी सी-2 पर 50 फीसदी मुनाफे का था और यह दाम उससे बहुत कम है। जुलाई के दूसरे सप्ताह में किसान संगठनों के मंच आल इंडिया किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी की बैठक है जिसमें इस मुद्दे पर आंदोलन की रूपरेखा तय होगी। यह कमेटी साल भर से फसलों के दाम और कर्जमाफी पर देश भर में आंदोलन चला रही है।
सरकार ने किसानों की नाराजगी कम करने के कदमों के अलावा जमीनी स्तर पर भाजपा और संघ परिवार के संगठनों को सक्रिय कर दिया है। इसके लिए भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लगातार राज्यों के दौरे कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर कांग्रेस की बढ़ती सक्रियता से परेशान पार्टी इस मोर्चे पर काफी फोकस कर रही है। गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर फायदा लिया था। हाल ही में बनारस में अमित शाह ने पार्टी से जुड़े सोशल मीडिया के करीब 2000 लोगों की वर्कशाप में शिरकत की थी। पार्टी इन लोगों को साइबर योद्धा बताती है क्योंकि उसे लगता है कि इनकी भूमिका अहम होती जा रही है। आने वाले दिनों में ऐसी गतिविधियों का सिलसिला बढ़ने वाला है।
दूसरी ओर, विपक्ष के पास गठबंधन का फार्मूला है, जिसका उदाहरण उसने कर्नाटक में सत्ता के एकदम करीब पहुंची भाजपा को पछाड़ने के लिए कांग्रेस और जनता दल (सेकुलर) का गठबंधन बनाकर पेश किया है। उत्तर प्रदेश में भी गोरखपुर और फूलपुर के बाद कैराना के लोकसभा उपचुनाव में गठबंधन के जरिए भाजपा को हराने के फार्मूले की मिसाल पेश की गई। लेकिन कर्नाटक में गठबंधन सरकार के शपथ-ग्रहण के मौके पर मंच पर दिखी विपक्षी एकजुटता के फोटोफ्रेम के बाद इस एकजुटता का कोई निश्चित स्वरूप नहीं दिख रहा है। जहां कांग्रेस के नेतृत्व में आगामी लोकसभा चुनाव का गठबंधन कुछ ही दलों को भा रहा है वहीं, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता अपने तरीके से आगे बढ़ना चाहते हैं। शरद पवार की राकांपा के कांग्रेस के साथ गठबंधऩ की बातें तो हैं लेकिन बीच-बीच में उनका बयान आ जाता है कि महागठबंधन का फार्मूला बहुत कारगर नहीं रहेगा। इसी तरह केंद्र की सरकार बनाने में सबसे प्रभावी राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की अध्यक्षता वाली सपा और मायावती की बसपा के कांग्रेस के साथ तालमेल की कोई साफ तस्वीर नजर नहीं आ रही है।
हालांकि, विपक्षी गठबंधऩ के अभी तक कोई पुख्ता स्वरूप न लेने के बावजूद भाजपा को यह अहसास है कि रास्ता आसान नहीं है। शीर्ष नेतृत्व का पूरा जोर है कि दलितों के एक बड़े हिस्से को अपने पाले में खींचा जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बैठकों में भी इस बात पर जोर दिया गया कि भाजपा से किसानों और दलितों की नाराजगी कम की जाए। अनौपचारिक बातचीत में संगठन के वरिष्ठ स्तर के नेता इस बात को साफ करते हैं कि दलित और जाति आधारित आंदोलनों को कुछ बाहरी तत्व हवा दे रहे हैं जो देशहित में नहीं है। इससे साफ होता है कि इस मुद्दे पर भाजपा को आरएसएस की पूरी मदद मिलेगी।
ये तमाम राजनैतिक घटनाक्रम इस बात को साफ करने के लिए काफी हैं कि भाजपा की मशीनरी चुनावी मोड में चली गई है लेकिन विपक्ष में अभी कोई साफ गठबंधन और रणनीति नहीं दिख रही है और यह देरी जमीनी स्तर पर उसके खिलाफ जा सकती है। वैसे भी भाजपा शासित एक राज्य के वरिष्ठ मंत्री का कहना है कि हमारे लिए केंद्र सरकार सबसे अहम है। हम वहां आ जाएंगे तो राज्य में सत्ता तो वैसे ही आसान हो जाएगी क्योंकि हरियाणा जैसे राज्यों का रुख केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में ही रहा है। तो, जोर केंद्र फतह पर ही है।