सचमुच भारत टैलेंट क्रंच यानी प्रतिभा की कमी से जूझ रहा है? कुछ हफ्ते पहले छात्रों के साथ बातचीत में इंफोसिस के पूर्व प्रमुख और सह-संस्थापक एन.आर. नारायणमूर्ति ने कहा था कि “टैलेंट क्रंच” की वजह से देश में उद्यमी बनने वाले युवाओं की संख्या कम है। जॉब मार्केट में आने वाले 80 फीसदी से ज्यादा युवाओं की बेरोजगारी के लिए उन्होंने देश की शिक्षा प्रणाली को भी जिम्मेदार बताया था। लेकिन, हनी बी नेटवर्क्स के संस्थापक और आइआइएम-अहमदाबाद तथा आइआइटी-बेंगलूरू के विजिटिंग फैकल्टी प्रोफेसर अनिल गुप्ता इससे सहमत नहीं हैं। वे नारायणमूर्ति के इस निराशाजनक आकलन से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका दावा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है और 2012 से गांधीयन यंग टेक्नोलॉजिकल अवॉर्ड हासिल करने वाले युवाओं के नवाचार इसकी पुष्टि करते हैं।
गुप्ता कहते हैं, “यह पूछा जाना चाहिए कि बाजार में चल निकलने के पहले शुरुआती चरण में प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए नारायणमूर्ति जैसे लोगों ने कितना निवेश किया है? जब इंडस्ट्री से ही मदद नहीं मिल रही है तो देश के युवाओं के उद्यम क्षमता का मूल्यांकन करने का किसी को क्या अधिकार है?”
बुनियादी इनोवेशन पर जोर देने वाले गुप्ता ने बताया कि पिछले साल मलेरिया के निदान के लिए कम लागत वाले डिस्पोजेबल माइक्रोफ्लुयिड बॉयोचिप, कार्डिक बॉयोमार्कर्स की पहचान के लिए स्मार्टफोन आधारित इंपेडिमेट्रिक डिस्पोजेबल बॉयोसेंसर और कम लागत वाले इन्फ्रारेड वेन डिटेक्टर जैसे नवाचार के लिए अवॉर्ड दिया गया। इन भरोसेमंद हेल्थकेयर उपकरणों की संभावना तो शुरुआती स्तर पर सिर्फ फंडिंग से ही प्रमाणित की जा सकती है।
दिल्ली स्थित इंटरनेशनल मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के महानिदेशक देबाशीष चटर्जी तो 1.3 अरब की आबादी वाले देश में प्रतिभा की कमी पर चर्चा को ही हास्यास्पद मानते हैं। आइआइएम- कोझिकोड के निदेशक रह चुके चटर्जी ने खेल के क्षेत्र का उदाहरण देते हुए बताया कि प्रतिभा का इस्तेमाल करने और उसे सही संदर्भ में रखने की जरूरत है। खेल के क्षेत्र में लोगों के ज्यादा रुझान से पिछले कुछ साल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई प्रतिभाएं उभरी हैं।
उन्होंने बताया, “यह कार्यस्थल पर प्रतिभा को पहचानने और उसे बढ़ावा देने की क्षमता से जुड़ा है।” वे कहते हैं, “हमारी शिक्षा-व्यवस्था और प्रक्रिया में सुधार के लिए काफी कुछ करने की जरूरत है। आइटी इंडस्ट्री कई साल से सिर्फ बंधुआ मजदूरी करवाकर कमाई कर रही है और देश की इंजीनियरिंग प्रतिभाओं को ज्यादा वेतन पाने वाले क्लर्क में बदलकर नष्ट कर रही है और अब प्रतिभा के टोटा की बात हो रही है!”
योजना आयोग और यूपीए सरकार के कार्यकाल में गठित सैम पित्रोदा की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय नवाचार परिषद के सदस्य रहे अरुण मैरा ने बताया कि उपलब्ध सीमित संसाधनों का अनूठे तरीके से इस्तेमाल कर अनोखा समाधान तलाशना ही नवाचार है। वे कहते हैं, “आज जो चल रहा है, वह बबूल उगा कर आम पाने की ख्वाहिश जैसा है। नवाचार को आइटी, सिलिकॉन वैली या बेंगलूरू में कुछ अनोखा हासिल करने से जोड़कर देखा जाता है। दुर्भाग्यवश, इसे सॉफ्टवेयर समाधान से जोड़ दिया जाता है जो खाने-पीने और अन्य उत्पादों तथा सेवाओं की डिलिवरी में सुधार करता है। ऐसा खासकर नवाचार को संकुचित दायरे में देखने के बिजनेस मीडिया के नजरिए के कारण होता है।”
नतीजतन, जो लोग नीतियों, शोध और अनुसंधानों, युवाओं और संसाधनों के वितरण पर असर डाल सकते हैं, उनका झुकाव आइटी उद्यमियों को बढ़ावा देने पर ज्यादा होता है। इससे नवाचार ही पीछे छूट जाता है। इससे देश के संसाधन गलत जगह खप जाते हैं और प्रतिभा खो जाती है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय देश के 80 फीसदी विश्वविद्यालय और संस्थानों का प्रतिनिधित्व करने वाले एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटीज (एआइयू) के महासचिव फुरकान कमर के मुताबिक ऐसे देश में प्रतिभा की कमी नहीं हो सकती जहां 40 हजार से ज्यादा संस्थानों वाली उच्च शिक्षा की इकलौती सबसे बड़ी प्रणाली हो और जिसमें हर साल साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा छात्र दाखिला लेते हैं।
कमर कहते हैं, “शायद हमारे देश में मौजूद प्रतिभा को सराहना नहीं मिलती। बड़े पैमाने पर देश में शिक्षा पाने वाले लोग भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके सभी प्रतिष्ठानों को चला रहे हैं। हमारे उच्च शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाली प्रतिभाएं विकास को बरकरार रखे हुए हैं। इसलिए, मैं नहीं मानता कि इन संस्थानों से निकलने वालों में प्रतिभा की कमी है।”
कमर यह बात मानते हैं कि देश में मौजूद संसाधनों और संभावनाओं का पूरी तरह इस्तेमाल करने में हम असमर्थ हैं। उन्होंने बताया कि स्नातकों की संख्या और गुणवत्ता के लिहाज से काफी कुछ किया जा सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि विश्वविद्यालयों और संस्थानों को पीछे क्या खींच रहा है? कमर इसके लिए संसाधनों की कमी, फैकल्टी की गुणवत्ता और स्वायत्तता की कमी को कमर जिम्मेदार मानते हैं।
साठ के दशक में शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी खर्च करने का वादा किया गया था। लेकिन, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आधी फंडिंग के साथ यह आज भी अधूरा है। नतीजाः न केवल प्रति छात्र खर्च कम है, बल्कि मानवीय और ढांचागत दोनों लिहाज से संसाधनों की स्थिति खस्ताहाल है। जहां, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय छात्र-शिक्षक का अनुपात 1:10 या 1:5 पर लाने की कोशिश में हैं, वहीं भारत के ज्यादातर विश्वविद्यालय में 23 छात्रों पर एक शिक्षक हैं। पूरी स्वायत्तता नहीं होने के कारण देश के सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों के पास भी पाठ्यक्रम, पढ़ाए जाने वाले विषयों या शैक्षणिक पद्धति के साथ प्रयोग, सुधार और बदलाव की आजादी बेहद कम है।
कॉर्न फेरी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक रुझानों के मद्देनजर अगले दशक में भारत टैलेंट सरप्लस वाला इकलौता देश हो सकता है। इसकी वजह बड़ी आबादी से पैदा होने वाले अवसर और चुनौतियां हैं, जिसे जनसंख्यागत लाभ बताया जाता है। बेशक दांव ऊंचे हैं। इसलिए, शैक्षणिक गुणवत्ता में सुधार और युवाओं की प्रतिभा को बढ़ावा देने की चुनौती सामने है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पूर्व चेयरमैन प्रो. सुखदेव थोराट ने कहा, “देश की सार्वजनिक उच्च शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता बढ़ाने की जरूरत है। निजी क्षेत्र के उच्च शैक्षणिक संस्थानों को गरीबों की पहुंच में लाने के अवसर पैदा करने होंगे। हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो अवसरों की गैर-बराबरी से जनसंख्यागत लाभ आपदा बन जाएगा। शैक्षणिक विषमता सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी का कारण बन जाएगी। शिक्षा बराबरी लाने में सकारात्मक भूमिका निभाने में असमर्थ होगी।”
हरियाणा के सोनीपत स्थित ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में जिंदल सेंटर फॉर सोशल इनोवेशन ऐंड एंटरप्रेन्योरशिप के संस्थापक निदेशक जेरेमी वेड ने बताया कि वैश्विक अर्थव्यवस्था चौथी औद्योगिक क्रांति की बाट जोह रही है। उच्च तकनीकी कुशलता के मुकाबले नई तकनीक मसलन, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और एडवांस्ड रोबोटिक्स के तेजी से विकास के कारण वैश्विक स्तर पर प्रतिभा की कमी हो रही है।
वेड का मानना है कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए विश्वविद्यालयों और पेशेवर कॉलेजों की तैयारियां पूरी नहीं हैं। उन्होंने कहा, “सभी देश आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए उन्नत तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करने में सक्षम ज्यादा से ज्यादा लोगों को तैयार करने की चुनौती से जूझ रहे हैं। यह भारत के लिए भी सच्चाई है।”
नवाचार की कमी के कारण उद्यमशीलता में पिछड़ने की बात से असहमति जताते हुए चेन्नै स्थित एसआरएम यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट पी. सत्यनारायणन ने बताया, “मैं इस मसले को अलग तरीके से देखता हूं। मुझे लगता है कि नवाचार की नहीं, दिशा की कमी है। भारतीय छात्रों को जमीनी हकीकतों के हिसाब से तैयार नहीं किया जा रहा। बिजनेस मैनेजमेंट या इंजीनियरिंग की कक्षाओं में उन्हें किताबी ज्ञान दिया जाता है। छात्रों को व्यावहारिक शिक्षा मिल ही नहीं रही है।” सत्यनारायणन का मानना है कि छात्रों को ज्यादा मदद और प्रोत्साहन की दरकार है ताकि वे सोचना शुरू करें और जोखिम उठाने को तैयार हो सकें तथा पूंजी और पैसे कमाने की सोच से परे जा पाएं।
क्या शैक्षणिक संस्थान अकेले नवाचार और उद्यमशीलता को बढ़ावा देने की कोशिश कर सकते हैं? जैसा कि विशेषज्ञों का मानना है कि प्रतिभाओं की कमी को लेकर चिंतित होना ही पर्याप्त नहीं है। जरूरत सरकार और शैक्षणिक संस्थानों में निवेश के लिए आगे आने और कॉरपोरेट द्वारा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने एवं उनका उपयोग करने की है। नवाचार लाने के लिए आवश्यक धन और कौशल को देखते हुए ज्यादा से ज्यादा इन्क्यूबेटर और वित्तीय मदद की जरूरत है ताकि प्रतिभा को बढ़ावा मिल सके और उद्यमिता के सपने बेमानी न हो जाएं।