लिएंडर पेस ने 1991 में प्रोफेशनल टेनिस में कदम रखा और 1996 में ओलंपिक के सिंगल्स मुकाबले में ब्रॉन्ज मेडल जीतकर सनसनी मचा दी थी। ऐसा लग रहा था मानो टेनिस में नए युग का आगाज हो चुका है। लेकिन पेस के प्रोफेशनल टेनिस में आने के 27 साल बाद अब भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय टेनिस की पहचान लगभग 45 साल के लिएंडर पेस, महेश भूपति या फिर सानिया मिर्जा ही बनी हुई हैं। इन स्टार खिलाड़ियों के अलावा भारतीय टेनिस में एक खालीपन-सा लगता है। देश में आखिर इन जैसा टेनिस का कोई दूसरा सितारा क्यों नहीं उभर पाया, जो ओलंपिक या फिर ग्रैंड स्लैम में अपना दमखम दिखा सके।
ऐसा नहीं है कि युवा या फिर बाकी खिलाड़ियों ने प्रदर्शन नहीं किए। रोहन बोपन्ना से लेकर विष्णु वर्धन, सोमदेव देववर्मन, युकी भांबरी जैसे खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, लेकिन वह पहचान नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। वहीं, साकेत मायनी, रामकुमार रामनाथन, अंकिता रैना या फिर सुमित नागल जैसे खिलाड़ी नेशनल लेवल की प्रतिस्पर्धा तक ही सिमट कर रह गए हैं। ऐसे में भारतीय टेनिस पेस, भूपति और सानिया मिर्जा पर ही आकर थम जाता है।
सवाल उठता है कि आखिर भारतीय टेनिस के साथ समस्या क्या है? इस पर ग्रैंड स्लैम विजेता सानिया मिर्जा कहती हैं, “हमारे पास अच्छा तंत्र नहीं है। अगर छह साल का कोई लड़का या लड़की रैकेट पकड़ना चाहती है तो उसे पता ही नहीं होता कि क्या करना है। ट्रायल ऐंड एरर की प्रक्रिया से गुजरकर हम 20 साल में एक चैंपियन निकाल पाते हैं। अगर हमारे पास अच्छा तंत्र होता तो हम हर दो साल में चैंपियन निकालते।” तो, फिर तंत्र का यह फसाना है क्या? आखिर इसी तंत्र से तो ये सितारे भी निकले हैं। क्या इन दो-ढाई दशकों में इसमें कोई विशेष गड़बड़ी पैदा हुई है?
फेडरेशन का पेच
देश में टेनिस को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी ऑल इंडिया टेनिस एसोसिएशन (एआइटीए) पर है। खिलाड़ी अक्सर एसोसिएशन के उदासीन और मदद न करने वाले रवैए को इसका कारण बताते हैं। इस कारण 2013 में महेश भूपति, सोमदेव देववर्मन जैसे खिलाड़ियों ने इस एसोसिएशन के विरोध में इंडियन टेनिस एसोसिएशन बनाई। एसोसिएशन की बड़ी विफलता उभरते खिलाड़ियों की पहचान न कर पाना भी है। लिएंडर पेस 45 तो रोहन बोपन्ना 39 साल के हो चुके हैं। इस तरह देखें तो भारतीय टीम की बागडोर ऐसे हाथों में हैं, जिनका सुनहरा दौर काफी पहले बीत चुका है। इससे खिलाड़ियों में अहं की भावना और गुटबाजी बढ़ रही है, जिससे विवाद बढ़ रहे हैं। इसका हालिया उदाहरण 18 अगस्त से दो सितंबर के बीच होने वाले एशियाड खेलों के लिए पुरुषों के डबल्स के लिए चुनी गई टीम है। पेस के साथ सुमित नागल को डबल्स वर्ग में रखा गया, जिस पर एन. श्रीराम बालाजी और विष्णु वर्धन ने सवाल खड़े किए हैं।
सितारों के टंटे
वैसे सबसे अधिक नुकसान दो बड़े स्टार खिलाड़ियों के बीच अहं के टकराव से हुआ है। 1999-2001 तक लिएंडर पेस और महेश भूपति ने साथ-साथ खेला और दोनों ने तीन ग्रैंड स्लैम का खिताब भी जीता। लेकिन जल्द ही दोनों के बीच मनमुटाव शुरू हो गया।
2012 में जब एआइटीए ने पेस और भूपति को जोड़ीदार बनाने का फैसला किया तो भूपति और बोपन्ना ने पेस के साथ खेलने से इनकार कर दिया। इसके बाद पेस ने कहा कि मिक्सड डबल्स में सानिया मिर्जा को उनका जोड़ीदार नहीं बनाया गया तो वे नहीं खेलेंगे। सानिया के साथ खेलने के इच्छुक भूपति ने इसकी आलोचना की तो सानिया ने भी इस फैसले को पेस को खुश करने के लिए उन्हें ‘चारे’ की तरह इस्तेमाल करने वाला बता डाला। इस तरह की टकराहटों से भारतीय टेनिस को नया सितारा तो मिला नहीं, बल्कि वह और पीछे चला गया। जिस तरह बैडमिंटन में पुलेला गोपीचंद ने ज्लावा गुट्टा, साइना नेहवाल विवाद प्रकरण में अपने अहं को आड़े नहीं आने दिया और बैडमिंटन की बेहतरी के लिए लगातार काम करते रहे, उसी तरह ये स्टार खिलाड़ी खुद को संभालते और टेनिस की बेहतरी के लिए अपने अनुभव का इस्तेमाल करते तो शायद स्थिति अलग हो भी सकती थी।
मदद न मिलना
समस्या सिर्फ व्यवस्था या खिलाड़ियों के अंह की टकराहट तक ही सीमित नहीं है। इसकी एक बड़ी वजह है कि हम जूनियर स्तर पर टैलेंट को बढ़ावा नहीं दे पा रहे हैं। दरअसल, टेनिस बहुत महंगा खेल है। पश्चिम बंगाल की नेशनल लेवल की एक पूर्व खिलाड़ी और कोच ने बताया कि एक बढ़िया टेनिस रैकेट और जूते की कीमत करीब 10 हजार रुपये पड़ जाती है। रैकेट में तार चढ़ाने में चार सौ रुपये लग जाते हैं और महीने में एक बार ऐसा करना ही पड़ता है। अगर इसमें कोचिंग और यात्रा का खर्च जोड़ दें तो सालाना एक लाख से तीन लाख के बीच खर्च पड़ता है। अगर खिलाड़ी कोई प्रतियोगिता जीतता भी है, तो उसकी राशि खुद की देखभाल में ही खर्च हो जाती है।
बहुत कम टेनिस खिलाड़ियों को ही स्पॉन्सरशिप मिल पाती है। मिलती भी है, तो सिर्फ कपड़े और रैकेट वगैरह की ही मद में। बाकी यात्रा पर होने वाला सबसे ज्यादा खर्च खुद उठाना पड़ता है, क्योंकि एसोसिएशन यह सुविधा नहीं देता है।
डेविस कप में प्रदर्शन
भारत आखिरी बार 31 साल पहले 1987 में डेविस कप के फाइनल में पहुंचा था। इससे पहले दो बार और 1966 तथा 1974 में फाइनल में पहुंच चुका है। 1966 में उसे ऑस्ट्रेलिया, तो 1987 में स्वीडन के हाथों हार का सामना करना पड़ा। 1974 में रंगभेद के विरोध में भारत ने दक्षिण अफ्रीका के साथ खेलने से इनकार कर दिया और दक्षिण अफ्रीका को विजेता घोषित कर दिया गया। इन तीनों मौकों को छोड़कर भारत एशिया-ओशियाना ग्रुप और वर्ल्ड प्ले ऑफ से आगे कभी नहीं बढ़ पाया।