उनकी सुगंध के। हां, हर ऋतु की कोई न कोई माटी और वनस्पति-गंध भी उसकी जानी हुई है जो एक बोध की तरह भीतर बस जाती है, उसे अलग-से पहचानने की, नाम देने की जरूरत नहीं रह जाती। यह दो ऑफिस परिसरों के बीच का कच्चा रास्ता है, जिसे दोनों ही ऑफिसों में काम करने वाले लोग, बस शॉर्टकट कहकर पुकारते हैं।
इस बार नलिनी इस कच्चे रास्ते पर, कोई महीने भर बाद उतरी है। उसे रिटायर हुए पांच महीने ही तो हुए हैं। तब से दो-तीन बार ही इस रास्ते पर चली है। आज एकाउंट्स विभाग में एक काम था, उसी सिलसिले में वह आई थी। दफ्तर छूट जाने के बाद भी उसके मन से दफ्तर गया नहीं है। सच पूछें तो दफ्तर से अधिक उसे इस कच्चे रास्ते से लगाव रहा है और इसकी याद उसे आती रहती है। नीम के घने पेड़ की, फूलों-वनस्पतियों की, रास्ते के दोनों ओर पसरी हुई घास की। गिलहरियों, तितलियों, चिड़ियों की। क्या रहा है इस रास्ते में जो उसे इस ओर खींचता रहा है। वह स्वयं नहीं जानती। बस इतना जानती है कि जब इधर से गुजरती है या इस रास्ते से गुजरती है तो सुकून, शांति का अनुभव करती है। इस पर वह अकसर ही खुद को अकेली मिली है। दरअसल, शॉर्टकट होने के बावजूद कर्मचारी-अधिकारी इस रास्ते का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। वे अंदर-अंदर के कॉरिडरों से, कुछ ज्यादा चलकर, मेन गेट तक या पार्किंग लॉट तक पहुंचना पसंद करते हैं। बस दोनों ऑफिसों को सर्व करने वाली कैंटीन के लड़के ही इसका इस्तेमाल करते हैं। नलिनी कभी-कभी अपने केबिन से उठकर बस इस रास्ते पर चलने के लिए आई है, खासकर सर्दियों की धूप में। खुली हवा में। उसने आकाश की ओर देखा है। नीम की ओर देखा है और तब जो कुछ भी दिख जाए, उस ओर देखा है। मसलन किसी पेड़ में फंसी हुई पतंग की ओर, कैंटीन से चले आ रहे किसी लड़के की ओर (जिसके हाथों में अमूमन स्टील की ढंकी हुई थाली होती थी) और वह उसी से पूछ लेती थी, आज खाने में क्या बना है! कभी-कभी तो खुशबू से स्वयं कुछ न कुछ जान लेती थी। वह अपना टिफिन लाती रही है ऑफिस में पर कभी-कभी कोई अच्छी सब्जी-दाल हो तो मंगा भी लिया करती थी।
गिलहरी वाले जिस दृश्य को नलिनी ने अभी देखा था, उसके बाद वह कुछ देर तक ठिठकी-सी खड़ी रह गई है। पता नहीं इस कच्चे रास्ते को वह और कब तक इस्तेमाल कर सकेगी या करती रह सकेगी? इसी का अनुमान-सा वह अपनी अधमुंदी आंखों के साथ लगा रही है। रिटायर हो जाने के बावजूद वह अपनी आयु से कम से कम दस साल छोटी लगती है। चाहे सलवार कमीज हो या साड़ी, वह पचास-पचपन से अधिक की कहां लगती है। इस बात का अंदाजा उसे न हो, सो बात नहीं है। पर रिटायर होने का एक असर तो उस पर यह हुआ है कि सचमुच का, झुर्रियोंदार बुढ़ापा दूर होने पर भी, वह अपने को उसके निकट पहुंचा हुआ मानने लगी है। कभी-कभी तो यह भी होता है कि वह सचमुच थोड़ी देर के लिए आंखें बंद कर लेती है, यह सोचती हुई कि दुनिया के तमाम दृश्य उसके लिए पुछ गए हैं, जैसे किसी का भी अंतिम समय आने पर पुछ जाते होंगे। वर्षों से वह रह तो अकेली ही रही है। पास में ठहरने के लिए, संबंधियों में आता भी है कोई तो बरस में एकाध बार ही। बस पंपा ही है उसकी सेविका, आकर बर्तन धोती है, उसके लिए खाना बनाती है और कभी-कभी फुर्सत हो तो कुछ देर के लिए उसके पास टिक भी जाती है। अपनी और आस पड़ोस की खबरें सुनाती हुई, मानों उसे बाहर की दुनिया से जोड़ती हुई। वह कभी-कभी बंगाल के अपने गांव के कुछ किस्से भी सुनाती है। यह कहते हुए, ‘आमि गंगाधार थेके एखाने एसेछि’ (मैं गंगा किनारे से यहां आई हूं) जब वह यह कहती है तो नलिनी को लगता है, जैसे पंपा कह रही हो, गंगा में ‘बहकर’ आई हूं यहां तक। सचमुच ही तो हम सभी न जाने कहां से कहां पहुंच जाते हैं, ‘बहकर’। नलिनी को थोड़ी-बहुत बांग्ला आती है। जब पिता की पोस्टिंग कलकत्ता में थी तो वहां एक स्कूल में दो साल पढ़ाई भी की है उसने। उन दिनों का वैसे बहुत कुछ भूल गई है। एलबम में एक तस्वीर जरूर है, एक स्कूली पिकनिक की, जिसमें वह भी कुछ लड़कियों के साथ बॉटनिकल गार्डन के एक पेड़ के नीचे बैठी हुई है। बरगद के उस पेड़ के नीचे नहीं जिसका बहुत नाम है। पंपा, जब अपने गांव का वर्णन करती है वहां के फूल-पौधों-तालाबों का तो नलिनी को बहुत अच्छा लगता है। तब वह कोलकाता के उपनगरों के उन घरों के बारे में सोचने लगती है जो उसने ट्रेन की खिडक़ी से देखे हैं। छोटे-छोटे घर। सामने बगीची। उनके पास दो-एक साइकिलें खड़ी हुई या मोटर बाइकें। छतों पर कुछ बेलें-लताएं चढ़ी हुईं। पीछे की ओर कोई कच्ची सडक़, कहीं दूर जाकर खो जाती हुई। उन घरों को देखकर उसे लगता रहा है भले ही उनके निवासियों के अपने संघर्ष हों पर वहां प्रेम है, आत्मीयता है, खरापन है। कुछ वैसा ही जैसा पाथेर पांचाली में दिखता है। जिसे दोबारा देखते हुए भी उसकी आंखों में जल छलक आया था। हो न हो, ऑफिस परिसर के इस कच्चे रास्ते के प्रति उसका प्रेम, उन्हीं स्मृतियों की देन है।
तीस वर्ष उसने इस ऑफिस को दिए हैं। जीवन का एक ढर्रा बना तो उसने उसे स्वीकार कर लिया। पब्लिक रिलेशंस विभाग में थी तो बहुतों से मिली है। इन्हीं में था भूषण भी जो कई प्रसंगों में, कई अवसरों पर कार्यालय आया करता था। उसने यह महसूस किया था कि वह उसकी ओर कुछ ज्यादा ही खिंच रहा है और बाद में जो हुआ सो हुआ पर स्वयं नलिनी मन ही मन बराबर यह स्वीकार करती रही है कि वह भी उसकी ओर खिंची ही थी। तभी तो जब भूषण ने विवाह का प्रस्ताव उसके सामने रखा था तो उसने स्वीकार कर लिया था। पांच वर्षों के विवाहित जीवन को अवश्य ही वह काफी कुछ भुला चुकी है, भुला देना चाहती है पर उन दिनों की एक बड़ी निशानी उसका बेटा आयुष तो है ही, जिसे उसने बड़ा किया है हर तरह से। आयुष ज्यों-ज्यों बड़ा हुआ, भूषण से उसका संपर्क बढ़ा। पिता-पुत्र में ‘दोस्ती’ हुई। अवश्य ही नलिनी इस ‘दोस्ती’ सर्किल का अंग नहीं बनी। वह अलग और दूर ही रही है, भूषण की दुनिया से। अब तो आयुष भी पिछले चार वर्षों से विदेश में है। फोन जरूर आता है उसका। मां की चिंता भी करता है पर न जाने क्यों एक दूरी का भाव उससे अब नलिनी का बना ही रहता है। कभी-कभी पंपा जब सुबह आती है और नलिनी उसके शरीर पर वह कुछ ऐसे निशान देखती है, जो एक तरह के आक्रमण के ही निशान होते हैं, पशु-भाव वाले तो वह बस पूछ लेती है, ‘कल फिर कुछ हुआ क्या? तू यह सब क्यों सहती है? यह प्रताड़ना।’ नलिनी जानती है कि पंपा बांग्लाभाषी होने के कारण प्रताड़ना का मतलब अच्छी तरह समझती है। नलिनी नहीं सह सकी थी भूषण के घर वालों की मानसिक और धक्का-मुक्की वाली प्रताड़ना और एक दिन पता नहीं किस साहस से, आयुष को लेकर उस चक्र से बाहर आ गई थी। अब भी राहत की सांस लेती है, वह अपने इस निर्णय पर।
आज इस कच्चे रास्ते पर चलते हुए विजन की भी याद तैर आई है। कैसा तो एक अच्छा संबंध, दोस्ती वाला, विजन के साथ बना था ऑफिस में। डायवोर्सी नलिनी और विवाहित विजन की इस दोस्ती के किस्से बनने शुरू हुए तो नलिनी को बहुत कोफ्त हुई थी लोगों की सोच पर। फिर विजन को एक अच्छी नौकरी मिली मुंबई में और उसने सपरिवार दिल्ली छोड़ दी।
आजकल फुर्सत के क्षणों में किसी नदी पर तैरती नन्हीं डोंगियों जैसी कितनी ही स्मृतियां, उसके सोच पटल पर तैर आती हैं। कभी कोई, कभी कोई। कुछ इस तरह से मानों वे किसी और से संबंध रखती हों और नलिनी बस उन्हें निहार रही हो। एक शाम नलिनी अकेली थी घर में पंपा भी काम करके जा चुकी थी तब पहली बार नलिनी को सचमुच कई तरह अकेले होने का अहसास हुआ था। न जाने कैसे यही कच्चा रास्ता उभर आया था, सांत्वना बनकर। मानों उसकी याद भी एक सांत्वना हो। फिर वह लिफ्ट न लेकर, उस शाम तीसरी मंजिल के फ्लैट की सीढ़ियों से नीचे उतरी थी, सैर के लिए। सैर करते-करते न जाने कब कैसे उसे स्मृति और सोच की डोंगियों पर इस विशाल दिल्ली में अपने जैसे कई स्त्री-मुख दिखने लगे थे। सीढ़ियों या लिफ्ट से उतर कर सैर के लिए जाते हुए या किसी कच्चे रास्ते पर चलते हुए...।
कवि, कथाकार, कला समीक्षक, अनुवादक। सद्य प्रकाशित ग्लोब और गुब्बारे तथा स्मृतियां बहुतेरी। संगीत नाटक अकादेमी की पत्रिका संगना के संपादक। मोबाइल: 09810973590