प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अक्टूबर में देश में उच्च शिक्षा की हालत खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में जगह नहीं बना पाने को लेकर चिंता जाहिर की थी। उनकी इस चिंता को उच्च शिक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कितनी गंभीरता से लिया, इसका अंदाजा मंत्रालय के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर द्वारा पिछले दिनों छह “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” की घोषणा से लगाया जा सकता है। उन्होंने नौ जुलाई को ट्वीट कर कहा कि हमारे देश में 800 यूनिवर्सिटी हैं, लेकिन एक भी विश्व रैंकिंग की टॉप 100 या 200 में शामिल नहीं है। “इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस” के फैसले से इस उपलब्धि को हासिल करने में मदद मिलेगी। उन्होंने जिन छह संस्थानों के नाम की घोषणा की, उनमें एक जियो इंस्टीट्यूट है, जो अभी तक अस्तित्व में ही नहीं आया है। अभी सिर्फ कागजों में है। इस मामले ने सरकार की काफी किरकिरी कराई। विवाद बढ़ा तो सरकार को इस पर सफाई देनी पड़ी कि अभी जियो इंस्टीट्यूट को सिर्फ “लेटर ऑफ इंटेंट” जारी हुआ है। बहरहाल, इस मामले से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा को लेकर आजकल किस तरह के फैसले लिए जा रहे हैं।
केंद्र सरकार के इन फैसलों का मुखर विरोध कर रही कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआइ के महासचिव अंकित डेढ़ा का कहना है कि जियो अभी बना ही नहीं है और उसे पहले ही देश के छह श्रेष्ठ संस्थानों की फेहरिस्त में शुमार कर दिया गया है। उच्च शिक्षा के साथ सरकार खिलवाड़ कर रही है।
इस मामले को नजरअंदाज भी कर दें तो सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री ही उच्च शिक्षा को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं तो बेहतरी की उम्मीद कहां बची है? इसका जवाब भी 2018 की टाइम्स हायर एजुकेशन वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग से मिल जाता है। टाइम्स की इस रैंकिंग में कोई भी भारतीय यूनिवर्सिटी टॉप 200 की सूची में जगह नहीं बना पाई। यहां तक कि देश की नंबर एक उच्च शिक्षण संस्था इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस (आइआइएससी) 201–250 के ग्रुप से बाहर होकर 251–300 ग्रुप में पहुंच गई। वहीं, अक्टूबर 2017 की ही ब्रिटिश एजेंसी क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) की एशियाई विश्वविद्यालयों की रैंकिंग में भी आइआइटी-बॉम्बे (34वीं रैंकिंग) को छोड़कर शीर्ष भारतीय उच्च शिक्षण संस्थान काफी नीचे लुढ़क चुके थे। आइआइएससी, बेंगलूरू 18 पायदान फिसलकर 51वें रैंक पर जा पहुंचा, जबकि कलकत्ता यूनिवर्सिटी एशिया में 17 स्थान लुढ़कर 125वें स्थान पर रही।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार ने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाया। उसने सबसे पहले नई शिक्षा नीति लाने की घोषणा की और 31 अक्टूबर 2015 को पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी। रिपोर्ट में उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने, विदेशी संस्थाओं को अनुमति देने जैसे सुझाव दिए गए। लेकिन इसके सार्वजनिक होने के बाद विवाद पैदा हो गया।
फिर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यह जिम्मा इसरो के पूर्व प्रमुख के. कस्तूरीरंगन को सौंपा। कस्तूरीरंगन समिति का कार्यकाल तीन बार बढ़ाया गया। मंत्रालय ने जून 2017 में इस समिति को बनाया, जिसे दिसंबर 2017 तक रिपोर्ट सौंपनी थी, लेकिन फिर इसे मार्च 2018 तक का समय दिया गया। उसके बाद 30 जून तक इसका कार्यकाल बढ़ाया गया और अब इसे 31 अगस्त तक का समय दिया गया है।
पहल ज्यादा, नतीजा नामालूम
भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार 2014 में सत्ता में आई तो उसने सबको शिक्षा-अच्छी शिक्षा का वादा किया। इसके लिए कई कार्यक्रम और अभियान भी शुरू किए गए।
नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्कः सरकार ने देश के शिक्षण संस्थानों की रैंकिंग तय करने के लिए सितंबर 2015 में नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क को मंजूरी दी और 2016 से इस सिस्टम को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया। फिर देश के सभी कॉलेजों और यूनिवर्सिटी की गुणवत्ता के निर्धारित मानदंडों के आधार पर रैंकिंग शुरू की गई।
हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसीः 12 सितंबर 2016 को सरकार ने हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (हेफा) को मंजूरी दी। इसका मकसद उच्च शिक्षण संस्थाओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रयोगशालाओं और बाकी संसाधनों को उपलब्ध कराने के लिए फंड मुहैया कराना था। इसके तहत प्रावधान किया गया कि सभी उच्च शिक्षण संस्थान हेफा से लोन ले सकते हैं। हालांकि, छात्र संगठनों ने इसे उच्च शिक्षण संस्थानों में सरकार के नियंत्रण की कोशिश करार देते हुए इसका विरोध किया। ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआइएसएफ) के महासचिव विश्वजीत कुमार का कहना है, “हेफा शिक्षण संस्थानों को ग्रांट नहीं, बल्कि लोन जारी करेगी। जब लोन देंगे, तो यूनिवर्सिटी को उसे लौटाना भी होगा। यह अपने आप में सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों पर बहुत बड़ा हमला है, क्योंकि लोन लेने के लिए यूनिवर्सिटी को बिल्डिंग को गिरवी रखना होगा।”
इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड सिस्टम्स इन एजुकेशनः वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2018-19 के बजट में शैक्षणिक संस्थानों में निवेश बढ़ाने के लिए इसकी घोषणा की। इसके तहत अगले चार वर्षों में एक लाख करोड़ रुपये के निवेश की बात कही गई है। इसे भी हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी फंड मुहैया कराएगी, जिसका पहले से ही विरोध हो रहा है।
भारतीय उच्च शिक्षा आयोगः मानव संसाधन विकास मंत्री ने नई पहल के तहत उच्च शिक्षा में आमूलचूल बदलाव के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को खत्म कर एक नई संस्था भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का प्रस्ताव लाकर सबको हैरान कर दिया।
लेकिन, बिना किसी चर्चा और सलाह के भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का प्रस्ताव लाने पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, एनएसयूआइ, एसएफआइ और एआइएसएफ जैसे छात्र संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। एनएसयूआइ के अंकित डेढ़ा ने इसे उच्च शिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता में सुधार की जगह सरकारी दखल का हथकंडा करार दिया है। उनका कहना है, “सरकार उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में
सुधार लाना चाहती है, तो उसे बताना चाहिए कि यूजीसी में क्या कमी है और नई संस्था उसे कैसे दूर करेगी। हमारा स्टैंड है कि आप इसे खत्म करने का कारण बताइए।”
27 जून को इस अधिनियम के मसौदे की घोषणा पर जनता की राय के लिए पहले सात जुलाई यानी सिर्फ 10 दिन का समय दिया गया। जब सवाल उठने लगे तो उसे बढ़ाकर 20 जुलाई किया गया। सरकार की इस जल्दबाजी पर स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआइ) के महासचिव विक्रम सिंह का कहना है कि दरअसल सरकार इस प्रस्ताव के जरिए उच्च शिक्षा को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश कर रही है। अगर प्रस्तावित बिल को देखें तो यूजीसी एक स्वायत्त संस्था थी। उसे खत्म करके यह प्रस्ताव लाना साफ बतलाता है कि सरकार उसे पूरी तरह अपने नियंत्रण में ले रही है। साथ में, ऑटोनॉमी का क्लॉज डालकर प्राइवेट संस्थानों को खुली छूट देंगे, जहां पर फीस, भर्ती, आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं होगा।
विश्वविद्यालयों में बढ़ता दखल
देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पिछले चार वर्षों में अकादमिक की जगह विवादों की वजह से अधिक सुर्खियों में रही हैं। कभी राष्ट्रवाद तो कभी कुलपति की नियुक्तियां इनकी वजह बनती रही हैं। इससे शिक्षण संस्थाओं में राजनीतिक दखल बढ़ता जा रहा है। एआइएसएफ के विश्वजीत कुमार का कहना है कि सरकार की पूरी नीतियां ही शिक्षा के व्यवसायीकरण और संप्रदायीकरण के एजेंडे को पूरा करने के लिए हैं। वहीं, यूजीसी के पूर्व चेयरमैन सुखदेव थोराट भी कहते हैं कि अपने 10-15 साल के अनुभव में मैंने यही देखा है कि विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर की नियुक्तियों के जरिए राजनीतिक दखल बढ़ता है। अगर आप किसी संस्था को स्वायत्तता देना चाहते हैं तो उसे चलाने वाला व्यक्ति भी स्वायत्त होना चाहिए।
कितनी अलग होगी नई संस्था
भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के मामले में एक सवाल स्वायत्तता को लेकर उठ रहा है। यूजीसी एक्ट की धारा 4.2 में कहा गया है कि कमीशन के चेयरमैन केंद्र या राज्य सरकार के अधिकारी नहीं हो सकते हैं। इसके अलावा 12 सदस्यीय आयोग में केंद्र के दो प्रतिनिधियों के होने का जिक्र किया गया है। इसका मकसद था कि आयोग की स्वायत्तता बनी रहे। वहीं, मौजूदा प्रस्ताव के मुताबिक, कमीशन के चेयरमैन के चुनाव की प्रक्रिया सर्च ऐंड सेलेक्शन कमेटी करेगी, जिसमें एक कैबिनेट सचिव, उच्च शिक्षा सचिव सहित अकादमिक क्षेत्र से जुड़े तीन लोग होंगे।
इसके अलावा प्रस्तावित मसौदे की धारा 3.6बी में विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिक को भी अध्यक्ष बनाए जाने की बात की गई है। प्रस्तावित आयोग की धारा 8 (एफ) में “वन डोयन ऑफ इंडस्ट्री” यानी शिक्षा बाजार से जुड़े एक वरिष्ठ सदस्य को भी शामिल करने की बात कही गई है। इसके अलावा प्रस्तावित बिल में आयोग की भूमिका को सिर्फ सलाह देने तक ही सीमित किया गया है। इतना ही नहीं, प्रस्तावित मसौदे की धारा 16 के मुताबिक, नए अधिनियम के लागू होने के बाद पहले से मान्य शिक्षण संस्थान छात्रों को डिग्री या डिप्लोमा नहीं दे सकते। उन्हें आयोग के मानदंडों के आधार पर इसके लिए अधिकार लेना होगा। एचईसीआइ संस्थानों को अनुदान देने का काम नहीं करेगा। इसकी जिम्मेदारी मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास होगी।
यूजीसी एक्ट के मुताबिक, अध्यक्ष का कार्यकाल पांच साल का होता है, लेकिन प्रस्तावित मसौदे में सरकार कई आधार पर भारतीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष को हटा सकती है।
सरकार के इस प्रस्ताव पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के राष्ट्रीय महामंत्री आशीष चौहान ने भी असहमति जाहिर की है। चौहान कहते हैं, “हमारा यह मानना है कि आप अगर बदलाव लाना चाह रहे हैं तो यह पूरी तैयारी के साथ होनी चाहिए। हमारा कहना है कि पहले आप पॉलिसी बताइए। फिर उस पर चर्चा होगी, तब हम नए एक्ट को स्वीकार करेंगे। इसका मसौदा किसने बनाया और किन लोगों ने इनपुट्स दिए हैं, यह एक बड़ा सवाल है।”
उच्च शिक्षा आयोग का ढांचा
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के मसौदे के मुताबिक, यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन एक्ट-1956 को खत्म कर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग एक्ट-2018 लाया गया है। आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और 12 अन्य सदस्य शामिल होंगे, जिन्हें केंद्र सरकार नियुक्त करेगी। वहीं, आयोग का सचिव सदस्य सचिव होगा, जबकि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चयन सरकार सर्च कम सेलेक्शन कमेटी द्वारा पेश किए गए पैनल में से करेगी। इस समिति में कैबिनेट सचिव, उच्च शिक्षा सचिव और तीन विख्यात अकादमिक होंगे।
स्वायत्तता पर नीयत साफ नहीं
उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सरकार ने यूजीसी को खत्म कर भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का नया प्रस्ताव लाने का फैसला किया है। इस पर आउटलुक ने यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर सुखदेव थोराट से उनकी राय जानी...
सरकार यूजीसी को खत्म कर उसकी जगह 'भारतीय उच्च शिक्षा आयोग' का प्रस्ताव लाई है। आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
इसके सकारात्मक पहलू के साथ-साथ कुछ सीमाएं भी हैं। आयोग के मौजूदा ढांचे को देखें तो इसमें एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और 10-12 सदस्य शामिल हैं। वैसे, आयोग सारे फैसले लेता है। लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय का सचिव इसका पदेन सदस्य होता है, तो एक तरह से मंत्रालय भी फैसले लेने की प्रक्रिया में शामिल है।
नए मसौदे में इसे दो भागों में बांटा गया है, जिसके तहत आयोग में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्य होंगे। इसके अलावा एक सलाहकार परिषद होगी और मानव संसाधन विकास मंत्री इसके अध्यक्ष होंगे तथा राज्यों की उच्च शिक्षा परिषद पदेन सदस्य। यह एक सकारात्मक कदम है, क्योंकि लगभग सत्तर फीसदी स्टेट यूनिवर्सिटी हैं और नब्बे फीसदी स्टेट कॉलेज हैं, लेकिन नीतियां बनाने में राज्यों की कोई भूमिका नहीं होती है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने दो स्तरीय प्रणाली आयोग और गवर्निंग काउंसिल का सुझाव दिया था। गवर्निंग काउंसिल में राज्यों और विभिन्न क्षेत्रों जैसे दवा, नर्सिंग, कृषि आदि के लिए बनी परिषदों के प्रतिनिधि होंगे। यह नीति बनाने की प्रक्रिया का फैसला करती। इसके लिए परिषद और राज्यों की सहमति की जरूरत होती और आयोग उसे लागू करता। यह अधिक सही होता, लेकिन मसौदे में परिषदों को शामिल नहीं किया गया है।
यूजीसी से उलट भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के पास अनुदान देने का अधिकार नहीं होगा। इसे आप किस तरह देखते हैं?
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास फंड जारी करने का अधिकार होगा। लेकिन हमें नहीं पता कि फंडिंग से जुड़े प्रशासनिक कार्य कौन करेगा, मंत्रालय या नई संस्था। वैसे, फंडिंग का अधिकार मंत्रालय के पास होना सही नहीं लगता है। फंड अकादमिक कार्यों के आधार पर जारी किए जाते हैं, ऐसे में इसका अधिकार रेगुलेटरी बॉडी के पास ही होना चाहिए।
यूजीसी एक स्वायत्त संस्था है, लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के प्रावधानों को लेकर आपको क्या लगता है, क्योंकि इसमें संस्थानों की स्वायत्तता पर जोर है।
मुझे लगता है कि यूजीसी जैसे संस्थान की स्वायत्तता बनी रहनी चाहिए। अपने 10-15 साल के अनुभव में मैंने यही देखा कि विश्वविद्यालयों में वाइस चांसलर की नियुक्तियों के जरिए राजनीतिक दखल बढ़ता है। अगर आप किसी संस्था को स्वायत्तता देना चाहते हैं तो उसे चलाने वाला व्यक्ति भी स्वायत्त होना चाहिए। उसकी नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। खुले तौर पर उसकी पृष्ठभूमि पर चर्चा होनी चाहिए। लेकिन मुझे मसौदे में यह सब नहीं दिखता है।
नए मसौदे में रेगुलेशन के बारे में प्रावधानों पर आपका क्या कहना है?
यूजीसी एक्ट में भी इसका मुख्य काम गुणवत्ता के मानकों का समन्वय बनाए रखना है। इसका मतलब है कि एक सामान्य मानक बनाए रखने के लिए मानदंड और योग्यताएं निर्धारित करना है। मेरी एकमात्र चिंता यह है कि हर राज्य में अलग-अलग स्थितियां हैं। सभी के लिए एक मानदंड और रेगुलेशन से कोई मदद नहीं मिलने वाली है।