पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में जब-जब जम्हूरियत का जश्न होता है, दुनिया भर की निगाहें उम्मीद पाल बैठती हैं। हिंदुस्तान में यह उम्मीद बेशक कुछ ज्यादा ही असर पैदा करती है क्योंकि बंटवारे के बाद से ही चली आ रही रंजिश और खूरेंजी की आंच बुझाने की आस भी जो हमेशा ही बनी रहती है, भले ही वह कितनी बेमानी क्यों न हो या हर बार निराश ही क्यों न करती रही हो। आखिरी बार यह उम्मीद 2013 के चुनावों में भी बनी थी, जब पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) के नेता नवाज शरीफ 126 सीटों के साथ निर्णायक जीत लेकर आए थे। पूर्व फौजी हुक्मरान जनरल मुशर्रफ के हाथों तख्तापलट और देशनिकाला झेल चुके नवाज ने फौज पर अंकुश लगाने का कुछ जज्बा दिखाया था और इसी जज्बे के साथ वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह का न्योता मिलते ही फौरन भारत पहुंच गए थे।
जाहिर है, यह तब फौज के हुक्मरान जनरल कियानी को पसंद नहीं आया था। उसके कुछ महीनों बाद पठानकोट हवाई ठिकाने में आतंकी हमला हुआ। उससे माहौल फिर उसी मुकाम पर पहुंच गया। फिर नवाज को फौज समर्थक कट्टरपंथी तत्वों और इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए- इंसाफ ने 'भारत-समर्थक' बताने में कोई कोताही नहीं बरती। फिर तो कश्मीर घाटी में हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद उपजे हालात में नवाज ने भी कट्टर रुख अपना लिया। लेकिन नवाज को इतने से राहत नहीं मिली। पनामा पेपर्स लीक मामले में विदेश में धन जमा करने और भ्रष्टाचार के आरोप में नवाज को न सिर्फ सत्ता गंवानी पड़ी, बल्कि विशेष अदालत ने उन्हें और उनकी बेटी मरियम को उम्रकैद की सजा भी सुना दी। बेशक, कई हलकों में इस सजा को फौज के दबाव में बेजा माना गया। शायद इसी वजह से वे अपनी बेटी के साथ लंदन में अपनी मरणासन्न पत्नी को छोड़कर आखिरी बार अपनी किस्मत आजमाने और फौज से टक्कर लेने के लिए मुल्क लौट आए और गिरफ्तार हो गए। अगर शरीफ के प्रति सहानुभूति काम कर गई तो वे नेशनल असेंबली की 272 सीटों के लिए चुनाव में 148 सामान्य सीटों वाले पंजाब में अपना झंडा बुलंद कर सकते हैं। 2013 में यहां उनकी पार्टी 118 सीटें जीती थी।
लेकिन 25 जुलाई के इन चुनावों में फौजी हुक्मरानों ने ऐसी बिसात बिछाई कि इमरान खान की पार्टी और हाफिज सईद के जमात-उद-दावा की अल्लाह-ओ-अकबर तहरीक पंजाब में नवाज के प्रति सहानुभूति तोड़ने की मुहिम में जुट गईं। फौज की शह से और भी कई कट्टरपंथी तत्व धुर भारत विरोधी बोल के साथ मोर्चें पर जुटे थे। इसके अलावा सिंध की 61 सीटों में बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अपनी पिछली बार की 30 सीटें ही बचाने में लगी रही। बलूचिस्तान, खैबर पख्तुनवा, फाटा से किसी तरह फौज विरोधी ताकतों के उभरने की उम्मीद कम ही थी। ऐसे में पीएमएल (एन) और पीपीपी की गठजोड़ से ही फौज को चुनौती मिल सकती है, बशर्ते इतनी सीटें वे जीत जाएं। लेकिन यह तो कयास ही है!