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इलाज के हक की लंबी लड़ाई

दो दशक के संघर्ष ने कमजोर तबके के ल‌िए खोला दिल्ली के निजी अस्पतालों में न‌िःशुल्क इलाज का रास्ता, मगर मुश्क‌िलें कम नहीं
मददगारः तीस हजारी अदालत में मरीजों और उनके परिजनों के साथ अशोक अग्रवाल

-रामबाबू कुमार को ब्रेन ट्यूमर है। इलाज के लिए वह बिहार से दिल्ली आया है। लेकिन, एम्स ने तत्काल उपचार से इनकार करते हुए उसे छह महीने बाद आने को कहा। उसकी हालत ऐसी नहीं थी कि इलाज के लिए दिसंबर तक इंतजार कर सके। 27 साल के रामबाबू का अब मैक्स पटपड़गंज में इलाज चल रहा है। ईडब्‍ल्यूएस कोटे से!

-65 वर्षीय नारायण रैगर निःसंतान हैं और 750 रुपये मासिक पेंशन पर गुजारा करते हैं। इलाज के लिए वे राजस्‍थान के टोंक जिले से दिल्ली पहुंचे थे। कई सरकारी अस्पतालों का चक्कर काटने के बाद भी इलाज का नंबर नहीं आया तो प्राइवेट अस्पताल में आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के कोटे ने उम्मीद जगाई। महाराजा अग्रसेन हॉस्पिटल में उनका मुफ्त उपचार हुआ और अब वे स्वस्‍थ हैं।

दिल्ली के नामचीन निजी अस्पतालों में मुफ्त इलाज पाने वाले ऐसे कई लोग आपको मिल जाएंगे, जो आर्थिक तौर पर कमजोर हैं। हाल ही में इंडियन स्पाइनल इंजरी सेंटर में सर्जरी करवाने वाली 97 वर्षीय धरमा देवी के बच्चे दिहाड़ी मजदूर हैं। खेती-किसानी से आठ लोगों के परिवार को पालने वाले मध्य प्रदेश के मणिराम भदौरिया फोर्टिस एस्कॉर्ट हॉर्ट इंस्टीट्यूट से एंजियोप्लास्टी करवा चुके हैं। डेंगू होने पर वसंत कुंज के फोर्टिस हॉस्पिटल में भर्ती होने वाली 45 साल की रेशमा देवी के पति मजदूरी करते हैं।

कुछ साल पहले तक दिल्ली के जिन अस्पतालों में गरीब-गुरबा घुसने की नहीं सोच सकते थे, उन अस्पतालों से आज इलाज कराकर निकल रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अशोक अग्रवाल और उनकी संस्था सोशल ज्यूरिस्ट के पिछले दो दशक के संघर्ष और अदालत की वजह से यह संभव हो पाया है। निजी अस्पतालों में आर्थिक तौर पर कमजोर तबके को उसका हक दिलाने की इस मुहिम में अब कई अन्य संस्थाएं भी जुट गई हैं।

संघर्ष का यह सिलसिला शुरू होता है साल 1997 में। इस संघर्ष को याद करते हुए अशोक अग्रवाल बताते हैं कि दिल्ली में 1996 में अपोलो हॉस्पिटल की शुरुआत हुई थी। उसमें एक पुअर वार्ड भी था, जिस पर बाद में ताला जड़ दिया गया। दिसंबर 1997 में सोशल ज्यूरिस्ट ने इस तालेबंदी को लेकर दिल्ली हाइकोर्ट में याचिका दाखिल की। क्योंकि, अपोलो हॉस्पिटल को ओपीडी (जहां मरीज को डॉक्टरी परामर्श मिलता है) में 40 फीसदी और आइपीडी (जहां उपचार के लिए मरीज भर्ती किए जाते हैं) में 30 फीसदी मरीजों को निर्धन कोटे के तहत मुफ्त इलाज देने की शर्त पर ही जमीन दी गई थी। इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने उन सभी संस्थाओं की सूची मांगी जिन्हें अस्पताल बनाने के लिए रियायती दर पर सरकार ने जमीन दी थी।

अदालत के निर्देश पर जो जानकारी सामने आई, वह काफी चौंकाने वाली थी। सरकार ने कुल 56 अस्पतालों के लिए जमीन दी थी। जिनमें से 23 अस्पतालों को 10 फीसदी से लेकर 70 फीसदी लोगों का निर्धन कोटे के तहत मुफ्त उपचार करने की शर्त पर सस्ती जमीन मिली थी। उस समय इन 23 में से 18 अस्पताल चल रहे थे, लेकिन कोई भी अस्पताल सरकारी शर्त के मुताबिक गरीबों को उनके हक का इलाज मुहैया नहीं करा रहा था।

इस बीच, जून 2000 में दिल्ली सरकार ने निजी अस्पतालों में गरीबों के मुफ्त इलाज की हकीकत जानने के लिए जस्टिस ए.एस. कुरैशी के नेतृत्व में एक समिति बनाई। इस समिति ने सरकार से सस्ती जमीन या दूसरी रियायतें हासिल करने वाले सभी निजी अस्पतालों के ओपीडी में 25 फीसदी और आइपीडी में 10 फीसदी इलाज गरीबों को मुफ्त दिए जाने की सिफारिश की। लेकिन निजी अस्पताल जब इस सिफारिशों को मानने को तैयार नहीं हुए तो साल 2002 में अशोक अग्रवाल ने फिर हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए मई 2007 में दिल्ली हाइकोर्ट ने निजी अस्पतालों को इस सीमा का पालन करने का आदेश दिया। बीस अस्पताल इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन सितंबर 2011 में शीर्ष अदालत ने उनकी याचिका खारिज कर दी। लेकिन यह जंग यहीं खत्म नहीं हुई। इसके बाद मूलचंद, सेंट स्टीफंस, रॉकलैंड और सीताराम भरतिया हॉस्पिटल ने हाइकोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि यह फैसला उन पर लागू नहीं होता, क्योंकि जमीन देते वक्त यह शर्त नहीं जोड़ी गई थी। हाइकोर्ट ने उनकी दलील स्वीकार कर ली, जिसके खिलाफ अशोक अग्रवाल फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। आखिरकार, सुप्रीम कोर्ट ने चारों अस्पतालों की दलील खारिज कर रियायत हासिल करने वाले सभी निजी अस्पतालों को गरीबों को मुफ्त उपचार देने का फैसला बीते नौ जुलाई को सुनाया।

गरीबों के हिस्से के सस्ते इलाज की अशोक अग्रवाल की यह जंग आज भी जारी है। लेकिन, इस बीच अदालत के दबाव में बहुत से निजी अस्पतालों गरीबों को भर्ती करने लगे हैं। इस लंबी लड़ाई से पता चलता है कि चैरिटी के नाम पर बड़े-बड़े वादे कर ‌सरकार से रियायत लेने वाले बाद में कैसे अपने मकसद और वादों से मुकर जाते हैं। जाहिर है समाज सेवा मोटी कमाई का जरिया बन चुका है। मानवता तो दूर कई अस्पताल सरकार और अदालत के आदेशों को भी मानने को तैयार नहीं हैं। नौ जुलाई के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि रियायती जमीन हासिल करने वाले सभी निजी अस्पतालों को ओपीडी में 25 फीसदी और आइपीडी में 10 फीसदी गरीबों को मुफ्त उपचार देना ही होगा। इसका पालन नहीं करने पर कार्रवाई की चेतावनी भी दी है। फिर भी कुछ अस्पताल आनाकानी कर रहे हैं। ‌दिल्ली के मदनपुर खादर जेजे कॉलोनी की रीना सरकार ने बताया कि आठ जुलाई को वह गंभीर हालत में कैंसर पीड़ित पिता 54 वर्षीय जगदीश को राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट ऐंड रिसर्च सेंटर में लेकर गई। अस्पताल ने यह कहते हुए उपचार करने से इनकार कर दिया कि ‘यहां ईडब्‍ल्यूएस कोटा लागू नहीं होता।’

अशोक अग्रवाल बताते हैं  कि राजीव गांधी और बीएलके जैसे अस्पताल अब भी गरीबों का मुफ्त इलाज नहीं कर रहे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी सेंट स्टीफंस हॉस्पिटल और मूलचंद खैरातीराम हॉस्पिटल से गरीबों को लौटाए जाने की कई शिकायतें उन्‍हें मिली हैं। उन्होंने 11 जुलाई को दिल्ली के स्वास्‍थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को पत्र लिखकर इन अस्पतालों से ईडब्ल्यूएस कोटे से की गई कमाई वसूलने की मांग की है। इस मसले पर अस्पतालों का पक्ष जानने की आउटलुक ने कोशिश की, लेकिन उनका जवाब नहीं मिला।

दिल्ली सरकार के स्वास्‍थ्य सेवा महानिदेशालय में सीनियर मेडिकल ऑफिसर (ईडब्‍ल्यूएस) डॉ. रघुराज ने बताया कि फिलहाल दिल्ली के 48 निजी अस्पतालों में ईडब्ल्यूएस कोटा के तहत 650 बेड उपलब्‍ध हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसे अस्पतालों की संख्या 50 से ऊपर हो गई है और आरक्षित बेड बढ़कर करीब आठ सौ हो गए हैं।

दिल्ली के स्वास्‍थ्य सेवा महानिदेशक डॉ. कीर्ति भूषण ने आउटलुक को बताया, “ईडब्‍ल्यूएस कोटे  के तहत वे लोग मुफ्त उपचार पा सकते हैं जिनकी फैमिली इनकम 13,890 रुपये मासिक या इससे कम है। आय का सेल्फ डिक्लरेशन देकर भी इस सुविधा का लाभ उठाया जा सकता है।” गरीबों के मुफ्त इलाज में निजी अस्पताल आनाकानी नहीं करें इसके लिए दिल्ली सरकार ने लायजनिंग ऑफिसर नियुक्त कर रखे हैं। निगरानी के लिए एक मॉनिटरिंग कमेटी भी है, जिसका इसी साल जनवरी में दायरा बढ़ाया गया है। दिल्ली में फिलहाल 25 लायजनिंग ऑफिसर हैं। ऐसे शरणार्थी जिनकी फैमिली इनकम 13,890 रुपये मासिक या इससे कम है वे भी इसका लाभ उठा सकते हैं। बीते तीन साल में माता चानन देवी अस्पताल में म्यांमार से आईं करीब छह सौ महिलाओं की मुफ्त डिलिवरी बताती है कि शरणार्थी भी ईडब्‍ल्यूएस कोटे  का लाभ उठा रहे हैं।

अदालत में ओपीडी

दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट के लॉयर्स चेंबर नंबर 478-479 के बाहर हर शनिवार को मरीजों और उनके परिजनों का जमावड़ा लगा रहता है। सुबह सात बजे से ही लोग टोकन लेने पहुंचने लगते हैं। अशोक अग्रवाल इसे अपना ‘ओपीडी’ कहते हैं। 14 जुलाई की सुबह नौ बजे जब आउटलुक की टीम यहां पहुंची तो बारिश के बावजूद करीब सौ लोग जुटे थे। बिजली नहीं थी, इसलिए चेंबर के बाहर ही अग्रवाल अपने साथियों के साथ एक-एक कर सबकी परेशानी सुनते हैं। इसके बाद ईडब्‍ल्यूएस कोटे के तहत इन लोगों का ‌अलग-अलग निजी अस्पतालों में इलाज कराने की व्यवस्‍था की जाती है। यहीं हमारी मुलाकात फातिमा से हुई। फातिमा ने बताया कि उसकी छह साल की बेटी के दिल में छेद था। एम्स में नंबर नहीं मिल रहा था। अग्रवाल की मदद से उसकी बच्ची का एस्कॉर्ट हॉर्ट इंस्टीट्यूट में ऑपरेशन हुआ और अब वह ठीक है। फातिमा अपने पड़ाेसी नौशाद अंसारी को मदद दिलाने के लिए यहां पहुंची थी, जो अपनी बीवी की इलाज के लिए हफ्तों से अस्पतालों का चक्कर काट रहा था।

दिल्ली के निजी अस्पतालों में ईडब्ल्यूएस कोटे के पालन को लेकर गैर सरकारी संगठन ‘समा’ ने 2012 में एक अध्ययन किया था। संगठन की पदाधिकारी सुशीला सिंह बताती हैं, “अध्ययन में हमने पाया कि हाइकोर्ट के आदेश के बाद भी ईडब्‍ल्यूएस कोटे के आधे से ज्यादा बेड खाली थे। जानकारी के अभाव में गरीब निजी अस्पतालों तक पहुंच नहीं रहे थे और जो पहुंचते थे उनमें से ज्यादातर को अस्पताल कोई न कोई बहाना बनाकर लौटा देते थे।”

वैसे, बीते कुछ सालों में तस्वीर बदली है। दिल्ली ही नहीं दूसरे राज्‍यों के लोग भी इस सुविधा का लाभ उठाने लगे हैं। डॉ. रघुराज बताते हैं कि बड़े अस्पतालों में अमूमन अब कोटे के बेड खाली नहीं रहते। अग्रवाल के अनुसार ईडब्‍ल्यूएस कोटे के अस्सी फीसदी से ज्यादा बेड भरे रहते हैं। अब चैरिटीबेड्सडॉटकॉम जैसी वेबसाइट भी हैं, जहां यह जानकारी हासिल कर सकते हैं कि किस अस्पताल में ईडब्‍ल्यूएस कोटे के कितने बेड खाली हैं। छह साल पहले शुरू हुई इस वेबसाइट के संचालक ललित भाटिया और गगन भारती ने बताया कि निजी अस्पतालों में भर्ती करवाने के लिए उनके पास औसतन सौ फोन रोज ‌आते हैं। इसके अलावा वे सरकारी अस्पतालों में जाकर भी जरूरतमंदों का पता लगाते हैं।

अग्रवाल ने बताया कि जब से दिल्ली सरकार ने आमदनी के सेल्फ डिक्लरेशन की व्यवस्‍था और आइसीयू के दस फीसदी बेड को भी निःशुल्क कोटे में शामिल किया है चीजें तेजी से बदली हैं। लेकिन, यह भी सच है कि जो लोग सीधे अस्पताल पहुंचते हैं उन्हें अमूमन निजी अस्पताल मुफ्त उपचार से मना कर देते हैं। तब उनकी एकमात्र उम्मीद अशोक अग्रवाल जैसे लोगों पर आकर टिक जाती है।

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