राजस्थान की रेतीली जमीन को हरा-भरा करने के लिए 1960 में पौंग बांध का निर्माण शुरू हुआ। इसके कारण हिमाचल प्रदेश के 16,352 परिवारों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। 12 साल बाद बांध बन गया, सिंचाई के लिए रेतीली जमीन तक पानी पहुंचा और 360 मेगावाट बिजली भी पैदा हो रही है। लेकिन, विस्थापित परिवारों में से करीब आधे के जीवन में आज भी घुप्प अंधेरा है। 57 साल बाद भी आठ हजार से ज्यादा परिवार पुनर्वास और मुआवजे का इंतजार ही कर रहे हैं। मुआवजे के नाम पर दो-तीन सौ रुपये का चेक देकर सरकार इनके जख्मों को और हरा करने का काम कर रही है। हालांकि, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के आश्वासन के बाद पौंग बांध विस्थापित समिति ने अपना हालिया आंदोलन स्थगित कर दिया है, लेकिन फिलहाल दूर-दूर तक राहत के कोई आसार नहीं दिख रहे।
ऐसा लगता है कि इन उजड़े परिवारों की सुध न तो हिमाचल की सरकार को है और न ही राजस्थान सरकार को। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 1996 में केंद्रीय जल संसाधन सचिव की अध्यक्षता में पुनर्वास के लिए गठित उच्चस्तरीय समिति भी अब तक कामयाब नहीं हो पाई है। समिति बीकानेर, भारत-पाक सीमा पर मोहनगढ़, जैसलमेर जिला की रामगढ़ तहसील के हांसुवाला, गमनेवाला और लौंगेवाला में राजस्थान सरकार की ओर से पुनर्वास के लिए आवंटित मुरब्बों (जमीन का टुकड़ा) का मुआयना कर चुकी है, जबकि बांध के लिए जमीन अधिग्रहीत करने के वक्त विस्थापित परिवारों को राजस्थान के श्रीगंगानगर में इंदिरा गांधी नहर के किनारे कमांड एरिया में बसाने का वादा किया गया था।
समिति की रिपोर्ट बताती है कि जिन जगहों पर राजस्थान सरकार मुरब्बे आवंटित कर रही है वहां विस्थापितों को बसाना संभव नहीं है। सात अक्टूबर 2017 को समिति ने राजस्थान और हिमाचल के अधिकारियों के साथ मोहनगढ़ और जैसलमेर में मुरब्बे का निरीक्षण किया था। रामगढ़ तहसील के लौंगेवाला, जेमनेवाला और हांसुवाला में 613 परिवारों को मुरब्बे बांटे गए हैं। इन मुरब्बों तक पहुंचना भी मुश्किल है। बुनियादी सुविधाएं जैसे सड़कों, स्कूल, अस्पताल, पेयजल की कोई सुविधा नहीं है।
हाल ही में करीब 260 परिवारों को बीकानेर जिले की पूंगल नामक जगह पर मुरब्बे आवंटित करने की पेशकश की गई है। पौंग बांध विस्थापित समिति ने इस पेशकश को ठुकराते हुए नौ जुलाई को उच्चस्तरीय समिति और राजस्थान के अधिकारियों को चिट्ठी लिखी है। पुनर्वास में देरी के कारण सैंकड़ों परिवार जिला कांगड़ा में जगह-जगह सरकारी भूमि पर बस गए थे। लेकिन, अदालती आदेश के बाद सरकारी जमीन से कब्जा हटाने की चल रही मुहिम के कारण इनका आशियाना उजड़ने के कगार पर है। देहरा से निर्दलीय विधायक होशियार सिंह ने बताया कि उनके हलके में ऐसे कई परिवारों के खिलाफ बेदखली की कार्रवाई चल रही है। बेदखली के ऐसे मामलों की पुष्टि जिला कांगड़ा के उपायुक्त संदीप कुमार भी करते हैं।
पौंग बांध विस्थापित समिति के महासचिव एच.एस गुलेरी ने बताया कि 1973 में बांध के गेट अचानक बंद करने के कारण लोग जान बचाने के लिए भागने को मजबूर हो गए थे और उनका सब कुछ पीछे छूट गया। विस्थापित परिवारों को बसाने के लिए तलवाड़ा में एक कार्यालय है। यह कार्यालय मुरब्बों के लिए विस्थापितों का आवेदन लेकर उसे राजस्थान सरकार को भेज देता है। कार्यालय के रिकॉर्ड के मुताबिक 1973 में 9,197 परिवारों को राजस्थान सरकार ने मुरब्बे आवंटित किए थे। इनमें 1,188 परिवारों के मुरब्बे बाद में रद्द कर दिए गए।
बचे हुए 8,009 परिवारों में से आधे ही श्रीगंगानगर में बस पाए। विस्थापित समिति के अध्यक्ष हंस राज चौधरी ने बताया कि भू माफियाओं ने करीब चार हजार लोगों को बसने ही नहीं दिया। उनका दावा है कि करीब तीन दर्जन लोगों का कत्ल कर दिया गया और पुलिस ने इन मामलों को रफादफा कर दिया।
शुरुआत में यह नियम बनाया गया था कि विस्थापित परिवार आवंटित जमीन बीस साल तक किसी को हस्तांतरित नहीं कर सकते। बाद में इस अवधि को बढ़ाकर 25 साल कर दिया गया। इसका उल्लंघन करने पर आवंटन रद्द करने का नियम था। 1990 में राजस्थान सरकार ने कानून बनाया कि जिन विस्थापितों ने नियमों का उल्लंघन किया है उनके मुरब्बे स्थानीय लोग खरीद सकते हैं। जब राजस्थान सरकार ने इन मुरब्बों को स्थानीय लोगों को बेचना शुरू किया तो मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया। शीर्ष अदालत ने जिला जजों को इस बात की जांच करने के आदेश दिए कि विस्थापितों को बलपूर्वक निकाला गया था या फिर उन्होंने मुरब्बे बेचे थे।
हंसराज चौधरी ने बताया कि जिला जजों के सामने करीब 2,400 मामले आए। इनमें 341 मामलों में दावा गलत पाया गया, जबकि 300 शिकायतें वापस ली गईं। बाकी मामले अदालतों में चल रहे हैं। इतना ही नहीं जिनके मुरब्बे रद्द किए गए उनकी जगह पर राजस्थान के लोगों को बसा दिया गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक ये दूसरे विस्थापितों को दिए जाने थे।
सैंकड़ों परिवार ऐसे हैं जिन्हें आज भी मुआवजा की राशि लेने के लिए नोटिस भेजे जा रहे हैं। कांगड़ा जिले के राजा का तालाब िस्थत भू अर्जन अधिकारी कार्यालय में अभी भी मुआवजे से संबंधित 2,200 फाइलें लंबित हैं। बीते 18 जून को भी कुछ लोगों को मुआवजे के चेक दिए गए हैं। इसी दौरान गांव हटली तहसील नूरपुर के कुलदीप सिंह के नाम 265 रुपये का चेक काटा गया था। लेकिन, यह चेक भी बाउंस हो गया, क्योंकि बाबुओं ने चेक पर खाता नंबर ही नहीं लिखा था।
हिमाचल की भाजपा सरकार को समर्थन दे रहे निर्दलीय विधायक होशियार सिंह का कहना है कि विस्थापितों को नर्मदा बांध विस्थापितों की तरह प्रति हेक्टेयर 30 लाख रुपये मुआवजा मिलना चाहिए। उन्होंने बताया कि इन सालों में जिस पार्टी की भी प्रदेश में सरकार रही हो उसने विस्थापितों के साथ हुए अन्याय पर राजस्थान सरकार के पास कभी विरोध या नाराजगी दर्ज नहीं कराई। ऐसे में ठाकुर के नेतृत्व वाली सरकार विस्थापित परिवारों के जख्म पर मरहम लगाने में कितनी कामयाब होती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
“सही दिशा में बढ़ रहे”
पौंग बांध विस्थापितों के पुनर्वास को लेकर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से आउटलुक की बातचीत के अंशः
57 साल बाद भी पुनर्वास का काम पूरा नहीं हो पाया है। आठ हजार से अधिक विस्थापित परिवारों को बसाने के लिए सरकार के पास कोई ब्लू प्रिंट है?
बहुत कुछ पहले हो चुका है। कितने परिवार विस्थापित हैं और कितनी जमीन है यह सब रिकॉर्ड पर है। पहली बार मुख्य सचिव के स्तर पर हमारी सरकार ने बातचीत को आगे बढ़ाया है। राजस्थान और हिमाचल की सरकारें सही दिशा में आगे बढ़ रही हैं।
यदि राजस्थान सरकार विस्थापित परिवारों को नहीं बसा पाई तो हिमाचल में जमीन देकर प्रदेश सरकार इनका पुनर्वास करेगी?
अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। सब कुछ प्रक्रिया में है। विस्थापितों के मसले को लेकर सरकार संजीदा है। हिमाचल सरकार ने राजस्थान सरकार के समक्ष नए सिरे से अपनी बात रखी है। मुख्य सचिव ने संक्षिप्त रिपोर्ट दी है। सरकार विस्तृत रिपोर्ट का इंतजार कर रही है।
नर्मदा बांध विस्थापितों की तर्ज पर तीस लाख रुपये हेक्टेयर की दर से मुआवजा देने की विस्थापित परिवारों की मांग पर सरकार गौर करेगी?
विस्थापितों के लिए जो भी संभव होगा, उसे करने का प्रयास किया जाएगा। राजस्थान सरकार से मिलकर समस्या का हल निकाला जाएगा।