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हिंदी का दधीचि

आज जो हिंदी साहित्य पढ़ा-लिखा जा रहा है, उसको बनाने में शिवपूजन सहाय का अभूतपूर्व योगदान है
भाषा के स्तंभः बाएं से अनूप लाल मंडल, राहुल सांकृत्यायन, छविनाथ पांडेय, शिवपूजन सहाय, डॉ. देवेंद्रनाथ शर्मा

हिन्दी साहित्य में यह तो सर्वविदित है कि महाप्राण निराला की मुक्त छंद की प्रथम कविता ‘जूही की कली’ (1916) को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रकाशित करने से इनकार कर दिया था और वह कई साल तक अप्रकाशित पड़ी रही, लेकिन यह बात अल्पज्ञात है कि उस कविता को शिवपूजन सहाय ने ही आदर्श में 1922 में प्रकाशित किया था। वह अपने नए शिल्प, नई काव्य भाषा और नए भाव-बोध के कारण युगप्रवर्तक कविता साबित हुई। इतना ही नहीं, निराला की ‘अधिवास’ कविता भी जब द्विवेदी जी ने सरस्वती में छापने से लौटा दी थी तो उसे भी शिवपूजन सहाय ने रूप नारायण पाण्डेय को भेजकर माधुरी में छपवाई थी।

निराला उस समय युवा कवि के रूप में उभर रहे थे लेकिन उनकी प्रतिभा को सहाय जी ने न फौरन पहचान लिया था, बल्कि उनके जीते जी उन्हें एक महाकवि के रूप में रेखांकित किया। उन्होंने निराला ही नहीं, बल्कि अनेक लेखकों की प्रतिभा को निखारने-संवारने का काम किया था इसलिए उन्हें “साहित्यकार निर्माता” भी कहा गया। निराला ने ‘पंत और पल्लव’ नामक लेख में इस बात को स्वीकार किया है कि शिवपूजन जी ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया था और जब रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना लिखी तो उसे उन्होंने सहाय जी को ही समर्पित किया था। शिवपूजन जी की 125वीं जयंती पर इस प्रसंग को याद करने का अवसर इसलिए बनता है कि साहित्य की नई पीढ़ी अपनी परंपरा को जाने-समझे और उसके महत्व को समझे-बूझे। आज जो साहित्य पढ़ा-लिखा जा रहा और जिस गद्य में रचनाएं हो रही हैं, उसको बनाने में शिवपूजन सहाय जैसे अनेक ऐसे हिंदी सेवियों का अभूतपूर्व योगदान रहा जिन्होंने परदे के पीछे रहकर अपनी निःस्वार्थ त्याग भावना से हिंदी भाषा का ही निर्माण नहीं किया, बल्कि इससे राष्ट्र निर्माण में भी भूमिका निभाई। बिना अच्छी भाषा के अच्छे राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता है।

यह अद्‍भुत संयोग है कि यह वर्ष राहुल सांकृत्यायन की भी 125वीं जयंती का वर्ष है। दोनों लेखक एक ही वर्ष (1893) में  जन्मे और उनका निधन भी एक ही वर्ष (1963) में हुआ। दोनों भोजपुरी भाषी थे और जनता से आजीवन जुड़े रहे। दोनों साहित्य में लोक भाषा के साथ-साथ हिंदी के भी प्रबल समर्थक थे। दोनों हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए सदैव चिंतित रहे। राहुल जी ने सौ से अधिक ग्रंथ खुद लिखकर हिन्दी के वांग्मय को भरा तो शिवपूजन जी ने अपने जमाने के सारे महत्वपूर्ण लेखकों और विद्वानों से लिखवाकर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और इतिहास तथा धर्म पर अनेक ग्रंथ प्रकाशित करके इस ज्ञान भंडार को समृद्ध किया। राहुल जी के तीन ग्रंथ भी प्रकाशित किए, जिनमें एक पर राहुल जी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। उस किताब की भूमिका में शिवपूजन जी ने राहुल जी को अंतरराष्ट्रीय स्तर का विद्वान बताया था।

जगदीश चंद्र माथुर ने एक संस्मरण में लिखा है कि शिवपूजन जी ने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के माध्यम से जो कार्य किया है, वैसा काम हिंदी प्रदेश में ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारत की किसी संस्था ने भी नहीं किया। यह अलग बात है कि उसी बिहार में वह संस्था उनके निधन के बाद लगातार जर्जर होती गई और अनाथ हो गई। आज वह उपेक्षित धूल-धूसरित पड़ी है। शिवपूजन जी ने अपने जीवनकाल में ही उसके क्षरण को भांप लिया था। अपनी डायरी में लिखा है, “बिहार राष्ट्र भाषा में आकर मैंने बड़ी गलती की।”

शिवपूजन जी उच्च मूल्यों वाले आदर्शवादी व्यक्ति थे जिनके लिए हिंदी और साहित्य राष्ट्रनिर्माण का संकल्प था। आज हिंदी की दुर्दशा को देखकर वे बहुत विचलित होते। यह हादसा केवल शिवपूजन सहाय के साथ ही नहीं, उस दौर के अनेक हिंदी लेखकों के साथ हुआ जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के जरिए आजादी की लड़ाई का सपना देखा था। जिस तरह प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जी के आह्वान पर सरकारी स्कूल की नौकरी छोड़ी, उसी तरह शिवपूजन जी ने भी 1920 में आरा में सरकारी स्कूल की नौकरी त्याग दी थी और पत्रकारिता की ओर उन्मुख हुए थे। 1921 से लेकर 1963 में निधन तक उन्होंने कुल तेरह पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। शायद ही हिंदी के किसी लेखक ने इतनी पत्रिकाओं का संपादन किया हो। इनमें तीन-चार पत्रिकाएं तो हिंदी साहित्य का कालजयी इतिहास बन चुकी हैं। मतवाला में शिवपूजन जी का सान्निध्य निराला के साथ रहा तो माधुरी में प्रेमचंद और हिमालय में दिनकर और रामवृक्ष बेनीपुरी का सान्निध्य रहा। इन सभी पत्रिकाओं में केंद्रीय भूमिका शिवपूजन जी की रही। पर अपने संकोची स्वभाव के कारण वे परदे के पीछे रहे।

अपनी विनम्रता, सरलता, सादगी, सज्जनता और संत स्वभाव के लिए मशहूर शिवपूजन जी ने अपने जीवन में किसी बात का न तो कोई श्रेय लिया न ही अपने किए का किसी से प्रचार किया, न अपना दुखड़ा किसी को सुनाया और न किसी के सामने हाथ पसारा। यहां तक कि उनके बीमार होने पर बेनीपुरी जी ने उनके इलाज के लिए जो राशि हिंदी के लेखकों से एकत्रित की, उसे भी शिवपूजन जी ने लौटा दिया और चंदा एकत्रित करने के लिए बेनीपुरी जी को मना भी किया। दिनकर ने लिखा है कि उनके अभाव की कहानी पटना शहर में घर-घर में फैली थी। अभाव भी इतना कि 1960 में जब उन्हें काजी नजरुल इस्लाम और नवीन जी के साथ पद्मभूषण मिला तो वे उसे ग्रहण करने दिल्ली भी नहीं आ सके। लेकिन अब उनकी डायरी और पत्रों के प्रकाशित होने से पता चलता है कि कितने आर्थिक कष्ट में उनका जीवन बीता और उनके आत्मीय लोगों ने भी उनका कितना आर्थिक शोषण किया। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह जैसे लेखक ने उस जमाने में उन्हें रॉयल्टी के 25 हजार रुपये नहीं दिए, जबकि शिवपूजन जी ने उनकी ही नहीं उनके पिता की हर रचना को संपा‌दित कर सजाया-संवारा और पुस्तकाकार प्रकाशित किया। राजा जी ने लिखा है कि शिवपूजन जी के कारण ही मेरे पिता को ब्रजभाषा के कवि के रूप में मान्यता मिली, जो भारतेंदु के मित्र थे। राजा जी के पुत्र उदयराज सिंह ने लिखा कि मेरे पिता की हर रचना शिवपूजन जी के संपादन और देखरेख में छपी। राजा जी ने भी शिवपूजन जी के निधन पर एक संस्मरण में अपना आभार प्रकट किया है कि ‘किसी में रंगो-बू ऐसा न पाया था।’ ऐसा अनोखा व्यक्तित्‍व उस दौर के शायद ही किसी लेखक का हो।

शिवपूजन जी उन लेखकों में से थे जिनका व्यक्तित्व ही उनके कृतित्व को खा गया। शायद यही कारण है कि अक्सर चर्चा उनके सद्‍गुणों की ही होती है। वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद की तरह सादगी, सरलता के प्रतीक थे और दोनों में परस्पर मैत्री और सम्मान का भाव था। लेकिन अपने लिए कुछ न करना दोनों का स्वभाव और नैतिकता थी। इस गहरे नैतिक बोध से शिवपूजन जी ने साहित्य की सेवा की थी। पर महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ और राजेंद्र प्रसाद अभिनंदन ग्रंथ का भी श्रेय नहीं लिया। यहां तक कि द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ में उनका नाम तक नहीं। राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ में उनका लेख तक नहीं, जबकि कॉलेज से दो साल का अवकाश लेकर वह ग्रंथ तैयार किया। आज जब हिंदी के लेखकों में इतनी आत्ममुग्धता और यश की होड़ मची है, यह देखकर आश्चर्य होता है कि इसी हिंदी साहित्य में शिवपूजन जी जैसा लेखक हुआ जिसे ‘हिंदी का दधीचि’, ‘हिंदी का अजातशत्रु’, ‘संत साहित्यकार’ जैसी अनेक उपाधियां हिंदी समाज ने दी थीं। निराला ने तो उन्हें ‘हिंदी भूषण’ कहा था। हिंदी के विकास के लिए उन्होंने अपना निजी लेखन तक छोड़ दिया, जबकि प्रेमचंद की रंगभूमि के समय ही उनका देहाती दुनिया जैसा प्रयोगशील आंचलिक उपन्यास छपा जिससे हिंदी में आंचलिकता की शुरुआत हुई जो बाद में रेणु में निखर कर आई। शिवपूजन जी का समस्त लेखन राष्ट्रवादी आख्यान से जनवादी आख्यान की यात्रा है। प्रेमचंद की तरह हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता दोनों की आलोचना की और ग्रामीण जनता को अपनी रचना का आधार बनाया तथा रूढ़ियों पर प्रहार किया, लेकिन परंपरा को पूरी तरह खारिज भी नहीं किया, बल्कि भारतीयता को महत्व दिया। अपनी प्रगतिशीलता को कभी प्रदर्शित नहीं किया। उनके साहित्य और जीवन में कोई फांक या पाखंड नहीं रहा। शब्द और कर्म पर उनका हमेशा जोर रहा। उन्हें किसी विचारधारा के फ्रेम में नहीं देखा जा सकता है और न ही लेखक संगठनों के संकीर्ण बाड़े में बांधा जा सकता है। वैसे, राहुल जी ने उन्हें एक पत्र में लिखा है– आपका सोवियत प्रेम प्रकट है।

शिवपूजन जी ऐसे गांधीवादी थे जो प्रेमचंद, निराला और प्रसाद के बीच त्रिकोण बनाते थे और समाजवादी बेनीपुरी उन्हें अपना साहित्यिक पिता मानते थे। रामविलास शर्मा ने सही लिखा है-‘शिवपूजन जी पुरानी पीढ़ी के साहित्यकार थे, उनका रंग-ढंग समझना आसान न था।’

(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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