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नए विमर्श के सामने सवाल

नई वैचारिकी को वातानुकूलित कमरों में अंग्रेजी गिटपिट से बाहर निकल कर कच्ची बस्तियों में जाना होगा
जैसे-जैसे समाज पेचीदा हुआ है, स्‍त्री-विमर्श का ढांचा भी जटिलतर हो गया है

रोज सुबह का अखबार ‌स्त्रियों के ऊपर हुए अत्याचार, आक्रमण और यौ‌न हिंसा की खबरों से पटा पड़ा रहता है। उत्तर भारत का कोई भी राज्य इससे अछूता नहीं। अब तक स्‍त्री की स्थिति पर हजारों पुस्तकें लिखी गई हैं। दुखद यह है कि स्‍त्री की दुर्दशा भी एक बिकाऊ माल बन गई है। स्‍त्री-विमर्श की वैचारिकी के बरक्स स्‍त्री की निरुपायता निहत्‍थी खड़ी है।

नए स्‍त्री-विमर्श को सबसे ज्यादा चिंता करनी चाहिए कन्या शिशु की, जिसके प्रति इन वर्षों में सर्वाधिक हिंसा बढ़ी है। वहशी शिकारी नवजात बच्ची को भी अपना शिकार बनाने से नहीं चूकते। इनमें अधिसंख्य बच्चियों की नृशंस हत्या कर दी जाती है। जो उपचार, शल्यक्रिया के बाद जीवित बच जाती हैं उनका मनोवैज्ञानिक उपचार, सामाजिक स्वीकार एक लंबी दुरूह प्रक्रिया होती है। आज बच्चियां न घर में सुरक्षित हैं, न स्कूल- कॉलेज में। स्‍त्री-विमर्श का यह प्रमुख मुद्दा होना चाहिए। नई वैचारिकी को वातानुकूलित कमरों में अंग्रेजी गिटपिट से बाहर निकल कर उन कच्ची बस्तियों की गलियों में जाना होगा, जहां भाषण की जगह राशन और समीक्षा की जगह रक्षा की जरूरत है।

अब एक नजर पिछले एक दशक के महिला लेखन पर डालना प्रासंगिक होगा, क्योंकि यह स्‍त्री की अवस्थिति, संघर्ष, प्रगति और चेतना का एक प्रामाणिक आईना है। इसमें वरिष्ठ से लेकर युवा रचनाकारों का योगदान रहा है। स्‍त्री का जो बेधक, बेधड़क, बुलंद रूप आज सामने आ रहा है उसके पीछे हमारी पूर्व और अपूर्व रचनाकारों का योगदान रहा है। महादेवी वर्मा ने 1934 में ही लिख दिया था, “हमें न किसी पर जय चाहिए न पराजय, न किसी की प्रभुता चाहिए न किसी पर प्रभुत्व, केवल अपना वह स्‍थान चाहिए, वह स्वत्व चाहिए जिसके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकतीं।” लोग स्‍त्री विमर्शकार, सिमोन द बोवुआ के सिर विजय और विचार का सेहरा बांधते हैं जबकि सिमोन से बहुत वर्ष पहले महादेवी वर्मा ने अपने गद्य से और सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने पद्य से स्‍त्री की शक्ति का जयघोष किया था।

आज जिस दलित चेतना के विमर्श को जातिगत ध्रुवीकरण का बहाना बनाकर राजनैतिक भूलभुलैया में डाला जा रहा है, वह मन्नू भण्डारी के उपन्यास महाभोज में बड़ी दो-टूक अभिव्यक्ति से स्पष्ट किया गया।

हंस पत्रिका के संपादन में लगे प्रसिद्ध रचनाकार राजेंद्र यादव जी ने उस चौखटे को तोड़ने की पहल की जो स्‍त्री के जीवन को सीमित कर रहा था, घर-परिवार का चौखटा। वर्षों उपेक्षित पड़ी दुखी विवाहिताएं अपने कोटरों से बाहर निकल आईं। राजेंद्र जी ने धिक्कार से, मक्कार से, जयकार से सिद्ध किया कि स्‍त्री लेखक को सबसे पहले देह-मुक्ति की मांग सामने रखनी चाहिए। समस्त प्रतिबंध देह पर लगाए जाते हैं। उनसे अपने को मुक्त करो।

उनका आंदोलन बहक गया। देह की स्वाधीनता को वे परम से चरम तक ले गए। इसका एक कैपस्यूल बन गया जिसे खाते ही फॉर्मूला लेने की थोक फैक्टरी चल निकली। उन्होंने दकियानूसी लेखिकाओं को दबंग बनाया और असली दबंगों को दकियानूस कह कर दरनजर किया। विचित्र स्थिति थी कि स्‍त्री अपनी मुक्ति का पाठ एक पुरुष से सीख रही थी जिसका एकमात्र सरोकार था अपनी पत्रिका का उत्‍थान। उनके दिए विमर्श से विवाद भी फैले और विखंडन भी।

आज ऐसा महसूस हो रहा है कि स्‍त्री-विमर्श की तालाबंदी और कोष्ठक-कारावास से स्‍त्री-लेखक ही विद्रोह कर रही है। जैसे-जैसे समाज पेचीदा हुआ है, स्‍त्री-विमर्श का ढांचा भी जटिलतर हो गया है। अब बात केवल घर-परिवार की जकड़बंदी की नहीं रही। आज अल्पशिक्षित घरों की लड़कियां भी नौकरी और स्व-रोजगार के विकल्प चुन रही हैं। बहुत-सी चेतना का प्रसार अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं ने किया है। आर्थिक दबावों से उदारीकरण के प्रति स्वीकार भाव बढ़ा है। घर से बाहर पैर रखने की आजादी मिलने पर ‌स्त्रियों ने एक नवीन अधिकार चेतना भी अर्जित की है।

जाहिर है, आज की स्‍त्री रचनाकार ने संकट और सुविधा के इन सूत्रों को अपनी रचना में पकड़ा और प्रकट किया है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक से यह परिवर्तन देखा जा सकता है। नीलाक्षी सिंह की कहानी 'परिन्दे का इंतजार सा कुछ' और वंदना राग की कहानी 'युटोपिया' सांप्रदायिक उन्माद और उसके परिणामों का आकलन युवा स्‍त्री-चेतना के संदर्भ में करती हैं। हमारा शहर उस बरस उपन्यास में यही काम गीतांजलिश्री करती हैं। सबसे खास बात यह है कि आज की स्‍त्री रचनाकार और विमर्शकार अपने लिए आदर्श समाज का अबोध स्वप्न नहीं देख रही। उसे पता है गतिशील समाज कभी भी आदर्श नहीं हो सकता। समाज में झोल रहेगा, गड्ढे आते रहेंगे। इसी संकटग्रस्त समाज में स्‍त्री को अपने खड़े हो सकने की जगह निकालनी है। इसी प्रकार आज की स्‍त्री यह कामना नहीं करती कि उसे पुरुष के रूप में कोई अक्षत, अखंड, अकलंक, आज्ञाकारी मानुष मिल जाएगा।

उसे क्या वह तिलक चंदन चढ़ाकर पूजेगी? उसने आज टूटा-फूटा, कमजोरियों से भरा, गलतियों से गुंथा इंसान मंजूर कर लिया है। वह खुद भी आदर्श नहीं यथार्थ है। वह अपनी रचनाओं के माध्यम से न केवल पुरुष की सीमाएं पहचानती, पकड़ती है, वरन अपनी भी। स्‍त्री-विमर्श के नवाचार में एक से एक प्रतिभाशाली, पराक्रमी रचनाएं हमारे सामने आई हैं, जिनमें से कुछ के नाम याद आ रहे हैं। कहानियों में मधु कांकरिया की ‘दो चम्मच औरत’, ‘युद्ध और बुद्ध’, प्रत्यक्षा की ‘जंगल का जादू,’ ‘तिलकित,’ मनीषा कुलश्रेष्ठ की ‘किरदार’, ज्योति चावला की ‘तीस साल की सांवली लड़की’, गीताश्री की ‘सोनमछरी’, आकांक्षा पारे काशिव की  ‘मणिकर्णिका’, योगिता यादव की ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’, वंदना राग की ‘शहादत और अतिक्रमण’ तथा ‘मार्स पर चूहे’, अल्पना मिश्र की ‘स्याही में सुर्खाब के पंख’, नीला प्रसाद की ‘सातवीं औरत का घर’, सिनीवाली शर्मा की ‘हंस-अकेला रोया’, प्रज्ञा की ‘उलझी यादों के रेशम’, किरण सिंह की ‘द्रौपदी पीक’, ‘शिलावहा’ और ‘संझा’। ये सभी रचनाएं अपने समय और देश-परिवेश के अंतर्द्वंद्वों को पकड़ती हैं और युग में फैली असहिष्‍णुता के लिए आवाज उठाती हैं। आधुनिक समय में मध्ययुगीन कट्टरता और पाशविक अत्याचार का शिकार पुरुष और स्‍त्री दोनों हो रहे हैं। नए स्‍त्री-विमर्श या रचनात्मक तथा बौद्धिक विमर्श को इनसे जूझते हुए इनकी पड़ताल करनी होगी अन्यथा उदारवाद और भूमंडलीकरण के सकारात्मक लाभ हमें कभी उपलब्‍ध नहीं होंगे।

समाज की संरचना में स्‍त्री की सार्थक भूमिका है। पुरुष की तरह स्‍त्री के पास भी रचने की शक्ति है। कोख से लेकर कलम तक वह सृजन करती है। आज इतनी बड़ी संख्या में ‌स्त्रियां लिख रही हैं गोया अपनी स्थिति, परिस्थिति, संगति और विसंगति को उलट-पलट कर हर कोण से परख रही हैं। यह प्रक्रिया गहरी सामाजिकता से संबद्ध है, अतः इसमें पुरुष को बाहर नहीं रखा जा सकता। नए विमर्श में, बहुत-सी सहमति, प्रगति के बावजूद विषमता के बिन्दु आते रहते हैं। पुरुष ‘पावर फेमिनिज्म’ स्वीकार नहीं कर पाते। शिक्षा, रोजगार और प्रगति की स्पर्धा में जब पुरुष समानता की कतार में अपने को पिछड़ता हुआ पाता है, तो वह हिंसा का सहारा ले लेता है। इसलिए हिंसा के आंकड़े जितने अशिक्षित और विपन्न वर्ग में हैं उससे ज्यादा शिक्षित और संपन्न वर्ग में हैं। संविधान में स्‍त्री के अधिकारों के लिए रक्षक-कानूनों की कमी नहीं है। कमी इच्छा-शक्ति में है। नए-नए विवाद सामने आ रहे हैं, विमर्श बूढ़े हो रहे हैं, आंदोलन  शिथिल पड़ गए हैं। स्‍त्री और शेष समाज के बीच साम्यवाद स्‍थापित करने के लिए, साहित्य, दर्शन, अर्थशास्‍त्र, राजनीति और मनोविज्ञान का मिला-जुला मंच बनाना आवश्यक होगा।

(लेखिका प्रख्यात साहित्यकार हैं)

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