थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ताजा रिपोर्ट का यह निष्कर्ष पूरी तरह सही हो या न हो कि महिलाओं के लिए भारत दुनिया का सबसे असुरक्षित देश है, लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं के लिए भारत निश्चय ही बेहद असुरक्षित है। वर्ष 2016 के लिए उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिदिन 106 बलात्कार हो रहे थे। आज भी जिस तरह कमसिन बालिकाओं और महिलाओं के साथ यौन दुर्व्यवहार और बलात्कार होने की खबरें नियमित रूप से मिल रही हैं, उनसे यह बात पुष्ट हो जाती है कि हम कितना भी “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” के आदर्श वाक्य का पाठ करें और इस बात को चाहे जितना दोहराएं कि हमारा समाज और हमारी सभ्यता-संस्कृति नारी को देवी और मातृशक्ति के रूप में पूजती है, वास्तविकता इसके ठीक उलट है। इसलिए क्या हमें उसी सभ्यता-संस्कृति परंपरा पर यह जानने के लिए आलोचनात्मक दृष्टि नहीं डालनी चाहिए कि कहीं इस नारी-विरोधी दृष्टि और संवेदनहीनता की जड़ें उसी में तो नहीं जमी हुई हैं?
नारी का आदर्श मानी जाने वाली सीता का जीवन त्रासदी से भरा था और उन्हें कभी अपने पति से न्याय नहीं मिला। राम को वनवास भेजे जाने के सभी अयोध्यावासी खिलाफ थे और उनसे अनुरोध कर रहे थे कि पिता की मृत्यु के बाद वे राजपाट संभालें और वनवास के लिए न जाएं। लेकिन तब राम ने जनमत की परवाह नहीं की। रावण का वध करने और लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने सबके सामने सीता को संबोधित करके जो कहा, वह निष्ठुरता की पराकाष्ठा थी। उन्होंने कहा कि उन्होंने रावण पर विजय अपने अपमान का बदला लेने के लिए प्राप्त की है, सीता को पुनः प्राप्त करने के लिए नहीं। सीता जहां चाहे, जाने के लिए स्वतंत्र हैं। फिर सीता की सबके सामने अग्निपरीक्षा ली गई। लेकिन उसमें उत्तीर्ण होने के बाद भी अंततः गर्भवती सीता को घर से निकाल दिया गया।
राम ने इतना नैतिक साहस भी नहीं दिखाया कि सीता को बता कर निकालते। सीता को तो घर से निकाले जाने का तब पता चला जब लक्ष्मण ने जंगली पशुओं से भरे सुनसान जंगल में उन्हें रथ से उतार कर बताया और विदा ली। यह तो सीता का भाग्य था कि उन्हें वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय मिल गया, वरना राम ने तो उन्हें जंगली जानवरों का आहार बनने के लिए भेज ही दिया था। क्या आज भी पति इसी तरह बिना किसी कुसूर के पत्नियों को घर से नहीं निकाल रहे? और क्या उन्हें समाज की प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति प्राप्त नहीं हो रही?
कौरवों की राजसभा में ही द्रौपदी का सार्वजनिक रूप से अपमान और उन्हें निर्वस्त्र करने की कोशिश ही नहीं की गई थी, बाद में भी उनका शीलहरण करने के प्रयास किए गए। वनवास के दिनों में दुर्योधन के बहनोई जयद्रथ ने पांडवों के आश्रम में जाकर द्रौपदी के साथ बलात्कार करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप अर्जुन ने उसका वध करने की प्रतिज्ञा की। लेकिन, क्या बलात्कार का दुष्कर्म करने की कोशिश के दोषी जयद्रथ के सम्मान पर कोई आंच आई? नहीं, वह पहले की तरह ही एक सम्मानित राजा बना रहा। महाभारत में ही शकुंतला की कथा है जो बहुत बाद में लिखे गए कालिदास के नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् की कथा से बहुत भिन्न है और इसमें दुष्यंत जानबूझकर शकुंतला को न पहचानने का दिखावा करता है और उसे बहुत कठोर शब्दों में बुरा-भला कहने के अलावा उसके चरित्र पर भी लांछन लगाता है। क्या आजकल ऐसे किस्से देखने-सुनने में नहीं आते?
महाभारत के ही उद्योगपर्व में आया माधवी का आख्यान उसके प्रति इतने अमानवीय, बर्बर और संवेदनहीन बरताव की कथा कहता है कि आज भी उसे पढ़कर दिल दहल उठता है। ऋषि विस्वामित्र ने शिष्य गालव से गुरु दक्षिणा में उच्च कोटि के आठ सौ ऐसे घोड़े मांगे जिनका पूरा शरीर सफेद और कान केवल एक तरफ रंगीन हो। गालव राजा ययाति के पास गया और उन्होंने बिना मांग सुने देने का वचन दे दिया। जब मांग सुनी तो बोले कि मेरे पास तो नहीं हैं, तुम मेरी पुत्री माधवी को ले जाओ और उसे राजाओं को देकर दक्षिणा एकत्रित करो। माधवी को लेकर गालव हर्यश्व, दिवोदास और उशीनर नामक राजाओं के पास गए जिन्होंने माधवी से पुत्र पैदा किए और दो-दो सौ घोड़े दिए। फिर भी दो सौ घोड़ों की कमी थी, जिसे गालव ने माधवी को ऋषि विस्वामित्र को अर्पित करके पूरा किया। ऋषि ने भी उसे अपने पास रखकर एक पुत्र प्राप्त किया। अंत में माधवी को पिता ययाति को सौंप दिया गया जिन्होंने उसके लिए स्वयंवर का आयोजन किया। लेकिन चार-चार पुरुषों द्वारा वस्तु की तरह भोगी जाने के बाद लगभग पत्थर बन चुकी माधवी ने स्वयंवर में ही अपने राजसी वस्त्रों और रथ का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया। क्या आज के हमारे समाज में इस कथा की अनुगूंजें सुनाई नहीं पड़तीं? क्या आज भी बालिका हो या युवा, अधेड़ हो या वृद्धा, सभी स्त्रियों को केवल भोग्या नहीं समझा जा रहा?
बलात्कार की लगभग रोज आने वाली खबरों ने हमें उनके प्रति संवेदनशून्य बना दिया है और अब ये घटनाएं ‘सामान्य’ लगने लगी हैं। इस स्थिति में बदलाव कानून को कड़ा बनाने से नहीं, परिवार के भीतर के माहौल को बदलने से ही आ सकता है। लेकिन जिस देश में ब्राह्मण समाज का एक मुखर हिस्सा मातृहंता परशुराम को नायक के रूप में स्थापित करने में लगा हो, वहां जब तक हम धर्म, पुराणकथाओं और परंपरा से प्राप्त आख्यानों पर आधुनिक और आलोचनात्मक दृष्टि से विचार नहीं करेंगे, नारी-विरोधी अपराधों में कमी आने की उम्मीद करना व्यर्थ ही होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)