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कामयाबी की उड़ान

हौसलानामा एक ऐसे सकारात्मक चिंतन का पर्याय है, जिस पर किसी भी कामयाबी की गहरी बुनियाद रखी जा सकती है
हौसलानामा

अमेरिकी एक्जीक्यूटिव कोच मार्शल गोल्डस्मिथ जिन्हें अस्सी से ज्यादा सीईओ को प्रशिक्षित करने का श्रेय हासिल है, का कहना है, “मेरे लिए यह बात मायने नहीं रखती कि कारपोरेट ओहदों के पिरामिड में किसी की हैसियत क्या है और उसके आचार-व्यवहार के बारे में उसके साथ काम करने वाले क्या सोचते हैं। मेरा लक्ष्य भारी तादाद में पाए जाने वाले ऐसे लोग हैं जो अपने हिसाब से कामयाब हैं पर और अधिक कामयाब होना चाहते हैं।”

भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी ओम प्रकाश सिंह की अपने जीवन के अनुभवों को कल्पना के धागों में पिरोकर लिखी गई एक पटकथा यही काम दूसरी तरह से करती है। हौसलानामा ओम प्रकाश सिंह की ऐसी पुस्तक है जो मार्शल गोल्डस्मिथ, डेली कारनेगी या शिव खेड़ा की तरह कामयाबी के नुस्खों की इबारत सजाने वाली पुस्तक नहीं है, बल्कि यह कामयाबी की कहानी हो न हो, एक साधारण से विद्यार्थी के हौसलों की कहानी जरूर है। इसे पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार याद आते हैं, कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!

पुरलुत्फ अंदाज में लिखी गई यह पुस्तक किसी किस्सागोई से कम नहीं है। ओम प्रकाश सिंह के जीवन की वे तमाम घटनाएं और गतिविधियां इसमें हैं जिनसे होकर उनका अब तक का समय गुजरा है। परिवार का सहयोग कैसे मिला, कैसे मां, भाई और बहनों का दखल उनकी कामयाबियों में रहा है इसे उन्होंने आत्मीयता से लिखा है। उच्चाधिकारी होने के साथ-साथ कैसे वे मनुष्यता के ऊंचे पायदान पर पहुंच सके इसे बहुत विनय किन्तु पूरे विट के साथ रखने का जतन उन्होंने किया है। संयोग से वे कुछ समय खेल निदेशक भी रहे तो खेल जैसे जीवन के उपेक्षित उद्यम से बच्चों को जोड़ने का काम किया तथा वे मैराथन मैन ऑफ हरियाणा के विशेषण से नवाजे गए।

हौसलानामा एक ऐसे सकारात्मक चिंतन का पर्याय है, जिस पर किसी भी कामयाबी की गहरी बुनियाद रखी जा सकती है। बालस्वरूप राही ने लिखा है, जिनके सपनों में आग होती है रात भर करवटें बदलते हैं। ओम प्रकाश सिंह ने बचपन से लेकर आइपीएस होने तक अपने अनुभवों की अलग दुनिया देखी है। वायवीय वक्तव्यों की भरमार यहां नहीं है बल्कि जीवनानुभवों से उपजी सच्चाइयां हैं। यहां लेखक की सकारात्मक मनोभूमि से साक्षात्कार होता है। वह मानता है कि जीवन एक अंतरिक्ष यात्रा है। हमें तय करना होता है कि हम इसे कैसे अंजाम दे सकते हैं। उसकी नसीहत है कि स्कूल रटने-रटवाने का अड्डा न बनें बल्कि दिमाग खोलने की कुंजी बनें। गांव, घर, मां-पिता, भाई, रिश्तेदार सब यहां अपनी-अपनी भूमिकाओं में दिखते हैं जहां एक बच्चा बेचारी हिंदी का समर्थक होते हुए भी अपनी कामयाबी के भरोसे पर जिंदादिली के साथ कायम रहता है।

पढ़ाई के महाभारत और इमरजेंसी के दौर को याद करते हुए लेखक पाता है कि आजादी के बाद मोहभंग का आलम इतना तारी रहा कि संपूर्ण क्रांति का नुस्खा भी बेअसर साबित हुआ। वह कहता है कि राष्ट्र निर्माण कोई सरकारी पुल नहीं जिसे कोई कंस्ट्रक्शन कंपनी बना देगी। ये तो मजदूरी का काम है, सब लगेंगे तभी होगा। वह कहते हैं, “भले आदमी का जमाना न कभी था, न आएगा।” मां के फरमान पर घर से बाहर एक पहलवान टाइप लड़के के साथ निकलने पर कैसे दबंगई से उन्होंने एक चाचा के यहां रात बिताई, यह भी एक बहुत उम्दा किस्सा है और उन्हें यह एहसास हुआ कि निडरता एक खौलते तेल की कढ़ाई है जिसमें काबिलियत का कोई भी

मालपुआ छाना जा सकता है। उनकी यह बात गांठ बांधने योग्य है कि हजारों मील की यात्रा पहले कदम से शुरू होती है और मात्र एक विचार आदमी को जिता सकता है।

सिविल सेवा में आने की चाहत तो बहुतों की होती है। पर सफलता लाखों में किसी एक को मिलती है। पर वे यह बताना नहीं भूलते कि सिविल सेवा केवल बड़े खानदानों की जागीर नहीं रही। इसे कोई भी अध्यवसाय से हासिल कर सकता है। सिविल सेवा की परीक्षा के धनुर्धरों पर तो नीलोत्पल मृणाल ने एक उपन्यास डार्क हार्स ही लिख रखा है। वे यहां आइपीएस में चुने जाने से लेकर ट्रेनिंग आदि की दास्तान सुनाते हैं और मानते हैं कि सफलता किसी भगवतभक्ति से नहीं, मेहनत से मिलती है।

कहना न होगा कि आत्मविश्वास से सफलता हासिल होती है, केवल इच्छा भर से नहीं। पुलिस में रहते हुए उन्होंने यह जाना कि पुलिस की छवि द्रौपदी के चीर की तरह है। जिसके जी में आता है खींचना शुरू कर देता है। सिंह ने एक थाने में तैनाती के अपने अनुभवों का बड़ा रोमांचक बयान किया है। एक प्रमोटी डीआइजी सा’ब के साथ उनके अनुभव तीखे भी रहे। वे यह मानते हैं कि सौ में नब्बे लोग मेहनतकश होते हैं और पुलिस को चाहिए कि वह इन्हीं नब्बे लोगों से संपर्क रखे।

कुछ अध्यायों में तो वे एक व्यंग्य लेखक जैसे नजर आते हैं। जैसे ‘लाल बत्ती की विदाई’, ‘यह लूट-खसोट कब जाएगी।’ पर जो चीज उन्हें परेशान करती है वह यह कि आजादी के इतने साल बाद भी पुलिस की इमेज नहीं बदली। यह सवाल बना ही रहा कि अच्छी पुलिस कब आएगी। और अंत में अपने बुजुर्ग पिता की दास्तान वे इस किस्सागोई, इस बोध के साथ खत्म करते हैं कि लंबी आयु के माता-पिता के साथ रहना अद्‍भुत अनुभव है क्योंकि आप उनका खयाल कम, अपने चौथेपन की तैयारी ज्यादा करते हैं। यह पुस्तक जहां आम आदमी के हौसलों को एक उड़ान देती है, वहीं, एक पुलिस अधिकारी की अपने अनुभवों की गाथा सरीखी भी लगती है। 

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