महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन की सुगबुगाहट से पहले ही केंद्र की एनडीए सरकार भी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के लिए 123वें संविधान संशोधन विधेयक को संसद में पारित करवाने की दिशा में सक्रिय हो गई थी। शायद यह भी एक वजह थी कि उसने लोकसभा के मानसून सत्र में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को झेलना बेहतर समझा, ताकि संसद को चलाया जा सके और पिछड़ा, दलित वगैरह के मुद्दों पर अपनी सक्रियता दिखाने के लिए अहम विधेयकों को पार लगाया जा सके। लेकिन क्या इससे सरकार की सरदर्दी कुछ घटेगी? क्या वह मराठा, जाट, पाटीदार, कापू जैसी अपने-अपने क्षेत्र में वर्चस्व रखने वाली जातियों को 2019 के आम चुनावों में अपने पाले में रखने में कामयाब हो जाएगी? फिर, क्या वह अनुसूचित जातियों-जनजातियों को प्रमोशन में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट में जारी सुनवाई में सकारात्मक दलील पेश करके दलित नाराजगी कुछ कम कर पाएगी? या आरक्षण का मुद्दा उसके लिए उसी तरह बड़े विपक्ष का काम करेगा, जैसा 2015 के बिहार के विधानसभा चुनावों में दिखा था?
इसमें दो राय नहीं कि अपने आखिरी वर्ष में मोदी सरकार उन सभी मामलों को कुछ दुरुस्त कर लेना चाहती है, जिस पर उसे घेरने की तैयारी विपक्ष कर रहा है। एनडीए सरकार अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, बैंकों के एनपीए, कालाधन, 'अच्छे दिन' जैसे अपने वादों पर अब शायद ज्यादा कुछ नहीं कर सकती या उसके पास इन मुद्दों पर ज्यादा कुछ करने का समय नहीं बचा है। लेकिन वह किसानों के मसलों पर आधा-अधूरा ही सही, कुछ कोशिश करते दिखना चाहती है, ताकि किसान उसके लिए नया विपक्ष न बनें। गौरतलब है कि आरक्षण की मांग कर रहीं मराठा, पाटीदार, जाट, कापू वगैरह मुख्य रूप से खेतिहर जातियां हैं और खेती-किसानी का संकट उनकी आरक्षण की मांग में और अधिक तीव्रता पैदा कर रहा होगा। असल में सरकार के लिए सबसे कठिन मोर्चा पिछडों और दलितों का बनता दिख रहा है। इसमें चाहें तो आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को भी जोड़ सकते हैं।
सरकार के लिए चिंता का सबब यह भी हो सकता है कि महाराष्ट्र में मराठा, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में जाट, गुजरात में पाटीदार, आंध्र प्रदेश में कापू काफी असर रखते हैं और जाट आरक्षण संघर्ष समिति के नेता यशपाल मलिक के मुताबिक ‘‘करीब 150 सीटों’’ को प्रभावित कर सकते हैं। यह संख्या थोड़ी ज्यादा भले लग रही हो, मगर मोटे अनुमान से भी करीब 130 सीटों पर इनके असर से इनकार नहीं किया जा सकता। और ये सीटें उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत के उसी इलाके में हैं जहां 2014 में भाजपा को 90 फीसदी से अधिक संसदीय सीटें हासिल हुई थीं। इसी क्षेत्र के बल पर वह लोकसभा में अकेले दम पर बहुमत हासिल कर पाई थी। यानी गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा में अगर इन वर्चस्वशाली और अच्छी-खासी आबादी वाली जातियों का साथ भाजपा को नहीं मिलता है तो उसके लिए खतरे की घंटी बज सकती है।
उत्तर प्रदेश में उसे सपा-बसपा-रालोद और शायद कांग्रेस के महागठबंधन से भी निपटना पड़ सकता है। कैराना के उपचुनाव में यह दिख चुका है कि जाट रालोद की ओर लौट रहे हैं। पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश में भी उसे सपा-बसपा की ताकत से टकराना पड़ सकता है। इसलिए शायद एनडीए सरकार उन जातियों में अपनी पैठ मजबूत करने की मंशा रखती है, जिन्हें अति पिछड़ी जातियां कहा जाता है। वह उत्तर प्रदेश में उस राजनाथ फॉर्मूले पर काम कर सकती है जिसमें अब तक प्राप्त आरक्षण में उन्हें कुछ अधिक तरजीह देने की बात है। इसकी एक दलील यह भी है कि पिछड़ों में यादव, कुर्मी जैसी कुछ वर्चस्वशाली जातियों को ही आरक्षण का लाभ मिलता रहा है। यही दलील विपक्ष खासकर समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियों को आशंकित करती है। ऐसा नहीं है कि इन दलों की दलील में दम नहीं है। अब तक सरकारी नौकरियों में आरक्षण से लाभ पाए आंकड़ों को देखें तो उनकी आशंकाएं समझ में आती हैं। अभी भी अफसरशाही और उच्च संस्थानों में एक मोटे अनुमान से अनुसूचित जाति-जनजाति या पिछड़ी जातियों के लोग बमुश्किल 3-4 प्रतिशत ही पहुंच पाए हैं। देश में खरबपतियों की फेहरिस्त दुनिया के अमीर देशों से होड़ लेने लगी है लेकिन ऊपरी हलकों में इन जातियों की पहुंच नहीं हो पाई है। सरकारी ही नहीं, गैर-सरकारी संस्थानों में अभी भी पिछड़ी और निचली जातियों के बेहद थोड़े लोग ही पहुंच पाए हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में भी इनकी पहुंच गिनती की है। यह अवस्था कई दशकों के आरक्षण व्यवस्था के बाद है।
लेकिन अति पिछड़ी जातियों को अपने पाले में रखने में भाजपा या एनडीए कितनी सफल हो पाती है, यह तो आगे दिखेगा। फिलहाल तो उसे आरक्षण की नई सुगबुगाहटों से निपटना पड़ेगा। मामला पिछड़ा और आरक्षण की सियासत का ही नहीं है, बल्कि दलित सियासत का भी है। इसी वजह से केंद्र सरकार के अब तक के कार्यकाल में दलित उत्पीड़न की वारदातों से उपजी नाराजगी को भी कम करने की कोशिशें शुरू हो गई हैं। यह नाराजगी इस साल 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के अनुसूचित जाति उत्पीड़न कानून को भी कुछ नरम बनाने संबंधी फैसले से और भड़क उठी। फिर यह फैसला सुनाने वाली पीठ के एक जज आदर्श कुमार गोयल को रिटायर होने के बाद राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का अध्यक्ष बनाने से भी नाराजगी तेज हुई। इसलिए सरकार अनुसूचित जाति उत्पीड़न कानून में संशोधन की पहल कर चुकी है, ताकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर दलितों में भरोसा जगाया जा सके। शायद रामविलास पासवान सहित एनडीए के दलित सांसदों की यह मांग भी सुन ली जाए कि न्यायाधीश गोयल को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण से हटाया जाए। दलितों को प्रमोशन में भी आरक्षण देने पर गौर करने की बातें भी चल पड़ी हैं।
बहरहाल, आइए यह देखते हैं कि जाट, पाटीदार, मराठा, कापू जातियों की आरक्षण की मांग की पृष्ठभूमि क्या है? इसके मौजूदा आंदोलनों के बारे में और इनके प्रमुख नेताओं से बातचीत अगले पन्नों में देखने को मिलेगी।
जाट जिरह
जाट समुदाय काफी समय से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी कैटेगरी के तहत आरक्षण की मांग करता आ रहा है। 1991 में गुरनाम सिंह कमीशन की एक रिपोर्ट आई, जिसमें जाट समुदाय को पिछड़ी जाति में रखा गया था। लेकिन भजनलाल सरकार ने उस अधिसूचना को वापस ले लिया, जिसके तहत उन्हें पिछड़ा वर्ग में रखा जाना था। इसके बाद दो नई कमेटियां बनीं, लेकिन दोनों ने जाट समुदाय को पिछड़ी जाति में शामिल नहीं किया। फिर 1997 में जाटों ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल करने की मांग की, जिसे राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने रद्द कर दिया था। इसके बाद 2004 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार सत्ता में आई, तो केंद्र से जाटों को आरक्षण देने की मांग कई बार की गई और 2014 में हुड्डा सरकार ने जाट समेत चार जातियों को 10 प्रतिशत आरक्षण के साथ विशेष पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल किया। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने विशेष पिछड़ा वर्ग की सिफारिशों को मानने से मना कर दिया। उधर, मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की उस सिफारिश को नामंजूर कर दिया, जिसके तहत नौ राज्यों में जाटों को ओबीसी आरक्षण दिए जाने की सिफारिश की गई थी। इन राज्यों में हरियाणा, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड शामिल किए गए थे।
गुर्जर असंतोष
आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर आंदोलन 2006 में पहली बार सुर्खियों में आया। 2007 में चले आंदोलन में पुलिस कार्रवाई में 26 लोग मारे गए। 2008 में यह आंदोलन फिर से चल पड़ा। दौसा से भरतपुर तक पटरियों और सड़कों पर बैठे गुर्जरों ने रास्ता रोक दिया और देश के अन्य हिस्सों से राज्य का संपर्क टूटने लगा। इस बीच गुर्जर आंदोलन छिट-पुट चलता रहा और पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग को लेकर मई 2015 में एक बार फिर आंदोलन शुरू हुआ और यह उग्र हो गया। दरअसल, गुर्जर राजस्थान में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे थे। उनका कहना है कि हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में गुर्जर जाति को आरक्षण मिला हुआ है, तो राजस्थान में उन्हें क्यों इस सुविधा से वंचित रखा जा रहा है। राजस्थान में मीणा जाति का राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर गुर्जर जाति से कहीं बेहतर है, फिर भी उन्हें यह आरक्षण प्राप्त है। फिलहाल, राजस्थान में गुर्जरों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में रखा गया है, लेकिन वे अनुसूचित जनजाति के तहत मिलने वाली आरक्षण सुविधा की मांग कर रहे हैं।
राजस्थान की आबादी में गुर्जर लगभग 11 फीसदी हैं। यूं तो राजस्थान में गुर्जर ओबीसी में आते हैं, लेकिन सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या न के बराबर है। गुर्जर इसके पीछे ओबीसी में मीणा और जाट जैसी संपन्न बिरादरियों की मौजूदगी मानते हैं। इसलिए सेना के रिटायर्ड कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला के नेतृत्व में गुर्जर राजस्थान में कई बार आंदोलन कर चुके हैं।
पाटीदार पेशकदमी
गुजरात में हार्दिक पटेल की अगुआई में पटेलों ने आरक्षण की मांग को लेकर जुलाई 2015 में व्यापक आंदोलन किया। दरअसल, राज्य में दो दशक से ज्यादा समय से चल रहे पाटीदार आरक्षण आंदोलन ने जुलाई 2015 में उग्र रूप धारण कर लिया। राज्य के तमाम हिस्सों में पाटीदार समुदाय से ताल्लुक रखने वाले युवा सड़क पर आ गए। धीरे-धीरे आंदोलन की आग तेज होने लगी। करीब दो महीने तक चले इस आंदोलन की आंच पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में भी महसूस की जाने लगी। हार्दिक और अन्य पटेल नेता इसके लिए खेती-किसानी के संकट, छोटे उद्योग-धंधों के बर्बाद होने और पहुंच से बाहर होती महंगी शिक्षा को मुख्य वजहों में गिनाते हैं। उनकी दलील है कि अगर दूसरे राज्यों में उनकी तरह की मध्य तथा खेतिहर जातियों को आरक्षण हासिल है तो उन्हें भी इसका हक है। बाद के दौर में हार्दिक निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग करने लगे हैं।
कापू में कशमकश
आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय की आरक्षण की मांग काफी पुरानी है। वे लगातार ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग करते रहे हैं। हालांकि, फरवरी 2016 में कापू आरक्षण आंदोलन की मांग उग्र और हिंसक हो गई और प्रदर्शनकारियों ने पूर्वी गोदावरी जिले के तुनी रेलवे स्टेशन पर रत्नाचल एक्सप्रेस के चार डिब्बों में आग लगा दी। सड़कों पर बस सेवाएं ठप कर दी गईं। प्रदर्शनकारी और पुलिस के बीच हिंसक झड़प में सैकड़ों लोग घायल हुए। कापू समुदाय आंध्र प्रदेश में खुद को पिछड़ी जाति का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा है और इस आंदोलन की अगुआई काकीनाडा के पूर्व सांसद मुद्रागड़ा पद्मनाभन कर रहे हैं। पद्मनाभन फिलहाल किसी पार्टी से जुड़े हुए नहीं हैं। दरअसल, कापू आंध्र-तेलंगाना क्षेत्र की तीन बड़ी जातियों में से एक जाति समूह है। वे राज्य में पिछड़ी जाति का दर्जा चाहते हैं, ताकि उन्हें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ मिल सके। 2014 के विधानसभा चुनावों में चंद्रबाबू नायडू ने कापुओं को पिछड़ी जाति का दर्जा दिए जाने का वादा किया था, लेकिन अभी तक उन्होंने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। कापुओं के पास पद्मनाभन, पूर्व केंद्रीय मंत्री पल्लम राजू और पूर्व राज्य मंत्री वाट्टी वसंत कुमार (दोनों कांग्रेस में हैं) और वाईएसआर कांग्रेस में शामिल बोत्स सत्यनारायण और उम्मारेड्डी वेंकटेशन वारलु जैसे नेता हैं। पल्लम राजू, वाट्टी वसंत कुमार और बोत्स सत्यनारायण कापुओं के आंदोलन को अपना समर्थन दे रहे हैं।
मराठा मुहिम
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण को लेकर लंबे समय से चल रहा आंदोलन एक बार फिर शुरू हो गया है। मराठों के लिए ओबीसी वर्ग के तहत आरक्षण की मांग पहली बार 1990 के दशक में उठी। उसके बाद मराठा महासंघ और मराठा सेवा संघ के नेतृत्व में 1997 में सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन हुआ। प्रदर्शनकारियों का कहना था कि मराठा उच्च जाति से नहीं, बल्कि कुंबी हैं, जो पश्चिमी इलाके का एक खेतिहर समुदाय है।
जून 2014 में कांग्रेस-राकांपा की सरकार ने मराठों और मुसलमानों के लिए एक अलग कोटे को मंजूरी दी। सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मराठों को 16 फीसदी तो मुसलमानों को पांच फीसदी का आरक्षण दिया गया। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा से यह अधिक हो गया और पांच महीने बाद बॉम्बे हाइकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी। बाद में, महाराष्ट्र विधानसभा ने मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक पास किया। लेकिन इस पर अब भी रोक कायम है।
यानी 2019 की चुनावी बिसात पर मुद्दे सजते जा रहे हैं, देखना यह है कि इन मसलों से कौन सियासी लाभ उठा पाता है, भाजपा और एनडीए या फिर विपक्ष की तमाम पार्टियां। यह नजारा 2014 के बिलकुल उलट दिख रहा है इसलिए नतीजों पर पहुंचने के पहले इंतजार ही बेहतर है।