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सियासी पैतरों से बढ़ा विवाद

आंध्र प्रदेश में सत्ता की चाबी माना जाने वाला कापू समुदाय वोट बैंक ही बना रहा, तीखे तेवर से बढ़ी सरगर्मी
नए तेवरः एक रैली में पद्मनाभम (बीच में)

कापू आंध्र प्रदेश के तटीय इलाके (कृष्णा और गुंटूर के अलावा पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिले) में दबदबा रखने वाला समुदाय है। राज्य की कुल आबादी में 15 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाला यह समुदाय एक बार फिर खुद को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहा है। इत्तेफाकन मंडल आयोग के वक्त से हर चुनाव से पहले उनकी यह मांग बढ़ती ही जा रही है। दरअसल, सभी पार्टियां अपनी विचारधाराओं से इतर इस समुदाय को वोटों की खातिर लुभाने का कभी कोई मौका नहीं छोड़ती हैं। दो गोदावरी जिलों (पूर्वी और पश्चिमी) में 35 विधानसभा सीटें आती हैं। कापू समुदाय का इनमें 20-25 सीटों पर वर्चस्व है और वही लोग तय करते हैं कि कौन-सी पार्टी सत्ता में आना चाहती है।

अभिनेता से नेता बने एनटी रामराव के नेतृत्व में 1983 में तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) की पहली जीत या बाद में 1985 या 1994 और 1999 के चुनावों में इन दोनों जिलों ने टीडीपी की जीत में अहम भूमिका निभाई। आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद भी इन जिलों ने टीडीपी में  विश्वास जताया, क्योंकि पार्टी ने वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आती है तो कापू समुदाय को पिछड़ा वर्ग के तहत आरक्षण दिया जाएगा। कापुओं को आरक्षण और कृषि कर्जमाफी ने भी 2014 में टीडीपी को सत्ता में आने में मदद की, क्योंकि अधिकांश कापू खेती-किसानी से जुड़े हैं। इसके उलट वाइएसआर कांग्रेस को काफी नुकसान झेलना पड़ा, क्योंकि इसने कृषि कर्ज माफी और कापुओं को आरक्षण देने की मांग पर विचार करने से ही इनकार कर दिया।

अगर हकीकत देखें तो ‘मेगा स्टार’ चिरंजीवी ने भी 2009 चुनाव से पहले प्रजा राज्यम पार्टी का गठन किया, ताकि सत्ता हासिल की जा सके, जो कभी कम्मा समुदाय के नियंत्रण वाली टीडीपी, तो कभी रेड्डी के प्रभुत्व वाली कांग्रेस के बीच ही रहती थी। चिरंजीवी खुद कापू समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और पश्चिमी गोदावरी जिले के रहने वाले हैं। टीडीपी की तरफ झुकाव वाले मीडिया के एक वर्ग ने भी शुरू में चिरंजीवी की महत्वाकांक्षाओं को बल दिया। इसके बावजूद वह असफल रहे। चिरंजीवी की पार्टी 250 सीटों पर चुनाव लड़ी और सिर्फ 18 सीटें जीत पाई। चिरंजीवी ने जिन दो सीटों से चुनाव लड़ा था, उनमें से एक घरेलू शहर की पलाकोल्लू विधानसभा सीट से उन्हें शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। वहां से चिरंजीवी की हार अलग कहानी बयां करती है। उन्होंने इस हकीकत को समझा और 2011 में प्रजा राज्यम पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। बंटवारे से पहले और मौजूदा आंध्र प्रदेश में रेड्डी और कम्मा समुदाय ही लगातार राजनीतिक हालात को प्रभावित करते चले आ रहे हैं। कापू और उनके नेता मुद्रागड़ा पद्मनाभम ने 2014 में टीडीपी के सत्ता में आने के तुरंत बाद फिर से आंदोलन शुरू किया। पद्मनाभम ने अस्सी के दशक के अंत के इस्तीफे के बाद से ही खुद को सक्रिय राजनीति से दूर रखा।

उन्होंने 27 जुलाई को पूर्वी गोदावरी जिले के अपने गृह नगर किरलामपुड़ी से “अमरावती चलो” की पदयात्रा का आह्वान किया। 31 जनवरी 2016 के बाद का उनका यह आंदोलन तुनी में उस वक्त हिंसक हो गया, जब प्रदर्शनकारियों ने एक ट्रेन और दो थानों में आग लगा दी, जिसमें कई लोग और पुलिस वाले घायल हो गए।

उन्होंने राजस्थान में गुर्जर और गुजरात में पटेल आंदोलन से प्रेरणा ली और बड़ी संख्या में लोगों को पूर्वी गोदावरी जिले के तुनी में जुटने का आह्वान किया, ताकि दक्षिण-मध्य रेलवे जोन में ट्रेनों की आवाजाही को रोका जा सके। यह जोन पूर्व को पश्चिम और उत्तर को दक्षिण से जोड़ता है। मुद्रागड़ा पद्मनाभम ने जब 27 जुलाई से तीन अगस्त के बीच इसी तरह का “विधानसभा चलो” का नारा दिया, तो टीडीपी सरकार ने तुरंत उन्हें घर में नजरबंद कर दिया। चतुर नायडू सत्ता में तुरंत आ तो गए, लेकिन कापुओं से किए गए वादे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि, उन्होंने कापुओं की मांग के लिए मंजुलता आयोग का गठन कर दिया। आयोग ने बड़े पैमाने पर राज्य का दौरा किया और जानकारियां इकट्ठा की, लेकिन अभी तक रिपोर्ट पेश नहीं की है।

एक और टॉलीवुड स्टार पवन कल्याण ने 2014 चुनाव से पहले युवा सेना पार्टी बनाकर इस आंदोलन में कूदने की धमकी दी। हालांकि, अंतिम समय में उन्होंने टीडीपी-भाजपा गठबंधन को सहयोग देने की घोषणा की और चंद्रबाबू नायडू को सत्ता में लौटने में मदद मिली। पवन कल्याण फिर से सुर्खियों में हैं और टीडीपी, भाजपा तथा वाइएसआर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं। इस बार दावा कर रहे हैं कि वह अपने समुदाय के लोगों को नहीं छोड़ेंगे। हालांकि, अभी तक यह साफ नहीं है कि वह पद्मनाभम से जुड़ेंगे या लड़ाई को तार्किक निष्कर्ष पर ले जाने के लिए उनसे अपनी पार्टी में शामिल होने के लिए कहेंगे।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि दोनों कापू नेताओं को एक-दूसरे पर भरोसा नहीं है और इनका अपना निजी एजेंडा है। अतीत में चिरंजीवी की प्रजाराज्यम पार्टी की शर्मानक हार से भी पता चलता है कि कापुओं में एकता की कमी है। अफवाहें इस बात की भी हैं कि मुद्रागड़ा पद्मनाभम टीडीपी प्रमुख से हाथ मिलाने को तैयार हैं। उधर, भाजपा से तनावपूर्ण संबंधों के बाद पवन कल्याण भी कमजोर टीडीपी की मदद के लिए तैयार हो सकते हैं। इस तरह वाइएसआर कांग्रेस को स्पष्ट जीत से रोकने के लिए राजनीतिक मैदान में कदम रख सकते हैं।

ऐसे में 2019 चुनाव के बाद भी कापू आरक्षण की केतली उबलती रहेगी।

हमसे अारक्ष्‍ाण्‍ा छीनने की साजिश्‍ा रची गई

कापू समुदाय अरसे से ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग कर रहा है। आउटलुक ने आरक्षण, इसकी जरूरत और आंदोंलनों के बारे में कापू नेता मुद्रागड़ा पद्मनाभम से बात की। मुख्य अंशः

आपको क्यों लगता है कि कापू आरक्षण के हकदार हैं?

दरअसल, हम कापू बलिजा, ओंतारी और तेलगा के नाम से भी जाने जाते हैं और हमें अंग्रेजों के समय में 1915 से ही आरक्षण मिल रहा था। लेकिन आजादी के बाद हमसे आरक्षण छीनने की साजिश रची गई। हालांकि, हमारे दलित मुख्यमंत्री दामोदर संजीवैया ने कापुओं की स्थिति को समझा और दोबारा आरक्षण दिया। लेकिन उनके इस्तीफे के बाद फिर आरक्षण छीन लिया गया। इसलिए आरक्षण के लिए लड़ना हमारा अधिकार है।

कई लोगों का मानना है कि आज कापू आर्थिक और अन्य रूप से एक समृद्ध जाति हैं।

यह सच नहीं है। क्या कोई मुझे बता सकता है कि राज्य की 20 फीसदी कापू आबादी में से कितने परिवार आर्थिक और शैक्षिक रूप से मजबूत हैं?

राज्य सरकार के एफ कैटेगरी के तहत पांच फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव को केंद्र के पास सहमति के लिए भेजने पर आप क्या कहेंगे?

टीडीपी ने विधानसभा चुनाव से पहले हमसे वादा किया था। सत्ता में आने के दो साल बाद भी हमें भरोसा था और लगा कि शायद उन्हें और समय की जरूरत है। लेकिन, आज पहले वादे को लागू न कर और फिर केंद्र की रजामंदी मांगने से, हमें सत्तारूढ़ पार्टी के व्यवहार से निराशा हुई है।

सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 फीसदी की जो सीमा लगाई गई है, उस पर क्या कहेंगे?

समय आ गया है कि राज्य और केंद्र सरकारें आरक्षण नीति की समीक्षा करें। अब केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण की ऊपरी सीमा पर कैसे अपना पक्ष रखती है, यह हमारी समस्या नहीं है।

क्या आपको नहीं पता कि हरियाणा में जाट और राजस्थान में गुर्जरों के आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया था?

नहीं! किसी को भी इन राज्यों के लोगों की मांग से हमारी मांग की तुलना नहीं करनी चाहिए। हमारी मांग आरक्षण फिर से लागू करना है, क्योंकि हमें 1915 से और फिर राज्य के मुख्यमंत्री दामोदर संजीवैया के कार्यकाल के दौरान यह मिल रहा था।

मुस्लिम समुदाय भी आरक्षण मांग रहा है, इस पर आपका क्या कहना है?

अगर किसी समुदाय में लोग गरीब हैं और आरक्षण के हकदार हैं, तो किसी भी सरकार के लिए सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से उन्हें ऊपर उठाने में कुछ भी गलत नहीं है।

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