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आज न वह पार्टी, न वैसी सरकार

सरकार, पार्टी, सहयोगी और यहां तक कि विपक्ष को भी साथ लेकर चलने में यकीन रखते थे वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी (1925-2018)

अटल जी के निधन के बाद सबके मन में यह सवाल उठ रहा है कि उनके जमाने की भाजपा और एनडीए सरकार तथा आज की भाजपा और एनडीए सरकार में क्या फर्क है? पहले पार्टी की बात। उन छह वर्षों में जब अटल जी प्रधानमंत्री थे तब भी कई लोग भाजपा अध्यक्ष बने। सभी को पूरा सम्मान मिला और पार्टी चलाने की पूरी छूट भी थी। उन्हें जब मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती वे अटल जी, आडवाणी जी के पास जाते थे। हम जैसे लोग जो मंत्री थे, वे भी पार्टी अध्यक्ष के साथ बहुत नजदीक से मिलकर काम करते थे। अटल जी चाहते थे कि सब मिलकर काम करें ताकि सरकार में क्या हो रहा है उसकी जानकारी पार्टी को हो और उसमें पार्टी अपनी भूमिका निभाए। अक्सर हम लोग पार्टी कार्यालय जाते थे, पार्टी अध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारियों से राय-मशविरा करते थे। हर स्तर पर पार्टी और सरकार के बीच बहुत नजदीकी थी।

लोगों की यह जानने में भी रुचि है कि संघ परिवार से वाजपेयी सरकार का कैसा संबंध था। मैं नवंबर 1993 में भाजपा में शामिल हुआ था। उससे पहले चंद्रशेखर जी की सरकार में वित्त मंत्री रहा था तो सामान्यतः लोग ये मानते थे कि वित्तीय मामले की मुझे कुछ जानकारी है। सरकार बनने से पहले भी संघ के सरसंघचालक और दूसरे वरिष्ठ पदाधिकारी तथा भाजपा की तरफ से कुछ लोग अक्सर मिलते थे और आर्थिक मुद्दों पर चर्चा होती थी। एक राय बनाने की कोशिश होती थी, लेकिन सभी मुद्दों पर ऐसा नहीं हो पाता था। सरकार बनने के बाद भी कई स्तरों पर राय-मशविरे का यह सिलसिला चलता रहा। लेकिन जो मतभेद थे वो बरकरार रहे, बल्कि सरकार में आने के बाद कुछ ज्यादा बढ़ गए। इससे संघ परिवार को निराशा हुई और उसे लगा कि भाजपा की जो आर्थिक नीति थी उससे अलग हटकर हम लोग काम कर रहे हैं।

सबसे बड़ा मुद्दा स्वदेशी का उभरकर सामने आया। मेरा शुरू से मानना रहा है कि मजबूत राष्ट्र ही स्वदेशी के सिद्धांत पर चल सकता है। मजबूत राष्ट्र बनने के लिए सबसे अधिक आवश्यकता थी कि हम तेजी से तरक्की करें। बहुत सारे क्षेत्रों में देश को मजबूत करने के लिए हमें विदेशी पूंजी और विदेशी टेक्नोलॉजी की जरूरत थी। कई ऐसे मौके भी आए जब संघ परिवार खासकर स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन अटल जी के मन में स्पष्टता थी इसलिए पार्टी का पूरा साथ मिला।

अटल जी अपने मंत्रियों को पूरा स्पेस देते थे। वे माइक्रो मैनेज करने की कोशिश नहीं करते थे। मैं वित्त और विदेश मंत्री रहा। ये दोनों ऐसे महकमे हैं जिसमें हर प्रधानमंत्री ने विशेष रुचि ली है। लेकिन, अटल जी ने मंत्रियों को अपने तरीके से काम करने की पूरी छूट दे रखी थी।

अटल जी बहुत बड़े डेमोक्रेट, बहुत अच्छे पार्लियामेंटेरियन थे और सर्वसम्मति बनाने में यकीन रखते थे। वे सहमति के साथ आगे बढ़ना चाहते थे। सहमति कैबिनेट के भीतर हो, पार्टी और सरकार के बीच हो, सहयोगी के साथ हो और विपक्ष के साथ भी। हर मसले पर व्यापक सर्वसम्मति चाहते थे ताकि रिश्तों में कोई तल्‍खी न आए। जिन मुद्दों पर सहयोगियों को दिक्कत होती थी तो वे प्रधानमंत्री जी को बताते थे। कुछ मुद्दे मसलन फूड और फर्टिलाइजर सब्सिडी के मामले में हम लोग कुछ और कदम उठाना चाहते थे लेकिन सहयोगियों के विरोध से हमें थोड़ा पीछे हटना पड़ा। विपक्ष के साथ भी हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर अटल जी विचार-विमर्श करते थे। इराक के मसले पर जब कांग्रेस अध्यक्ष और विपक्ष की नेता सोनिया गांधी ने अटल जी को पत्र लिखा तो उन्होंने तत्काल उन्हें बातचीत के लिए आमंत्रित किया। उनका मानना था कि जहां तक संभव हो खासकर राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर विपक्ष को साथ लेकर चला जाए।

अटल जी के काम करने के इन तरीकों से आज की परिस्थिति को देखें। अब आमतौर पर यह कहा जाता है कि पार्टी का कंट्रोल दो लोगों के हाथ में है। प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष के अलावा किसी तीसरे व्यक्ति की भूमिका नहीं है। यह सर्वविदित है कि नोटबंदी की जानकारी वित्त मंत्री को नहीं थी। जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती सरकार से भाजपा के समर्थन वापस लेने की जानकारी गृह मंत्री को नहीं थी। राफेल करार की जानकारी रक्षा मंत्री को नहीं थी। विदेश नीतियों के मामले में बहुत सारे ऐसे मौके आए हैं जब सुषमा स्वराज को उसकी जानकारी नहीं थी। चार वरिष्ठतम मंत्रियों का जब ये हाल है तो बाकी लोगों की बात ही छोड़ दीजिए। सरकार में हर कोई इस बात को जानता है कि पीएमओ सब कुछ चला रहा है। अभी सहयोगी दलों के साथ भाजपा के संबंध बहुत बिगड़े हैं। कुछ छोड़कर चले गए हैं तो कुछ गुस्से में अलग-थलग हैं। विपक्ष के साथ जो रिश्ता है वह सर्वविदित है कि कितना कटु हो गया है।

गुजरात दंगों के बारे में अटल जी की राय से सब परिचित हैं। उन्होंने कहा था कि राजधर्म का पालन होना चाहिए। वे चाहते थे कि नैतिक जिम्मेदारी लेकर मोदी जी इस्तीफा दें। पर पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी। अटल जी यदि बड़े डेमोक्रेट नहीं होते तो अपने फैसले पर अड़ते और कहते कि मोदी जी को इस्तीफा देना ही पड़ेगा। लेकिन, वे सर्वसम्मति के पक्षधर थे इसलिए ऐसा नहीं किया।

(लेखक वाजपेयी सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रह चुके हैं) 

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