जितना खंडित जनादेश था, उतना ही विखंडित और कुछ ज्यादा ही तीखा तथा कटु था 2004 में हुए लोकसभा चुनावों का अभियान। नतीजों के ऐलान के साथ ही सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना को लेकर चिंताजनक हद तक हल्के राजनैतिक प्रहसन ने इसे और तल्ख बना दिया था। ऐसे असामान्य राजनैतिक वातावरण में निवर्तमान और वर्तमान प्रधानमंत्री दोनों का नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष को अध्यक्षीय आसंदी तक छोड़कर आना असाधारण घटना थी। यह केवल लोकसभा के नए अध्यक्ष के पदग्रहण के वक्त रस्म का निर्वाह भर नहीं था। यह नई लोकसभा में दलों के संख्याबल की अभिव्यक्ति भी नहीं थी। एक खांटी कम्युनिस्ट का लेफ्ट-राइट-सेंटर, सबकी सर्वसम्मति से लोकसभा स्पीकर चुना जाना हालिया राजनैतिक इतिहास का विरला उदाहरण था। यह एक शख्सियत की कबिलियत और निष्पक्षता के प्रति यकीन का प्रतीक था। सोमनाथ चटर्जी (जन्मः 25 जुलाई 1929; निधनः 13 अगस्त 2018) ऐसी ही विरली शख्सियत थे।
यूं तो वाम राजनैतिक धारा ने इस देश को अनेक असाधारण नेता और कमाल के सांसद दिए हैं। लेकिन जीते जी अपनों के बाहर, बाकी राजनैतिक धाराओं के बीच भी उतनी ही स्वीकार्यता हासिल करना कठिन काम है। समूची भारतीय राजनीति में ऐसे राजनेता कम ही हुए हैं या मौजूद हैं। वामपंथी राजनीति में तो यह और भी मुश्किल है। यह ‘करेला नीमचढ़ा’ वाली बात है। हाल के दौर में ऐसे कम्युनिस्ट राजनेता ज्योति बसु थे, जिनसे प्रधानमंत्री बनने का अनुरोध किया गया। उनके बाद उनके अलावा ऐसा नाम सोमनाथ चटर्जी का है, जिन्हें निर्विरोध लोकसभा का स्पीकर चुना गया।
आदर मांगा नहीं जाता बल्कि अर्जित किया जाता है। अपनी योग्यता की धाक, पारदर्शिता की मिसाल और वैचारिक प्रतिबद्धता की निरंतरता से सोमनाथ दा ने इसे कमाया था। वे असहज परिस्थितियों में से सहज तरीके से निकलकर आए। उनकी विचारधारा और असंदिग्ध प्रतिबद्धता भी इसी आंच में तपकर फौलाद बनी थी।
लोकसभा अध्यक्ष के रूप में उनकी कुशलता का लोहा पूरे देश ने माना। इसके पीछे संसदीय कामकाज में उनकी दक्षता और कानूनों की प्रामाणिक जानकारी भर नहीं थी, बल्कि उनकी वरिष्ठता और सभी के साथ उनके निश्छल संबंध थे, जो ज्यादा कारगर थे।
एक बार भाजपा संसदीय दल ने एक संयुक्त हस्ताक्षरित ज्ञापन देकर उन पर पक्षपात का आरोप लगाया। उस ज्ञापन में अटल बिहारी वाजपेयी के भी हस्ताक्षर थे। शाम को ही सोमनाथ दा ने अटल जी को फोन लगाया और इन शब्दों में उनसे पूछा, “क्या आप मानते हैं कि मैं पक्षपात करता हूं?” अटल जी ने अपनी परिचित शैली में बात टालने की कोशिश की। सोमनाथ दा ने कहा, “नहीं, आप साफ बता दीजिए। आपके हस्ताक्षर भी उस पत्र पर हैं जिसमें यह आरोप लगाया गया है। आप ऐसा मानते हैं तो, मैं इसी वक्त अपना इस्तीफा भेज दूंगा।” वाजपेयी बोले, “अरे दादा, पार्टी का पत्र था। इसलिए हमें भी दस्तखत करने पड़े।” उसके बाद कुछ हंसी-मजाक कर अटल जी ने दादा का गुस्सा ठंडा कर दिया। अगले दिन उस मसले पर कोई चर्चा तक नहीं हुई।
संसदीय लोकतंत्र में उनकी निष्ठा तार्किक थी। एक बार जब लोकसभा अध्यक्ष के रूप में वे भोपाल आए। माकपा के दफ्तर में अपने भाषण में उन्होंने कहा, “डोंट अंडर एस्टीमेट विजडम ऑफ कांस्टीट्यूशन मेकर्स।”-स्वतंत्र भारत में सभी को मताधिकार देने वाली संसदीय प्रणाली का उनका चयन भारत जैसे राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए जरूरी था। भाषाओं, बोलियों, संस्कृतियों, जातियों, जीवन-शैली, खानपान, धर्मों और राष्ट्रीयताओं की विविधता वाला भारत हम सबका है; यह विश्वास संसदीय प्रणाली और संघीय ढांचा ही कायम रख सकता है। इसे कमजोर करने का मतलब होगा भारत को कमजोर करना।”
संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च मंच- लोकसभा के तंत्र को लोकोन्मुखी बनाने की उनके कार्यकाल में नई-नई पहलें और कोशिशें हुईं। शून्यकाल का सीधा प्रसारण उन्होंने ही शुरू कराया। सांसदों की जानकारी को अद्यतन बनाए रखने के लिए अलग-अलग विषयों पर सभा-सम्मेलनों की शृंखलाएं शुरू कीं। संसद की समृद्ध लाइब्रेरी को सभी के लिए खोल दिया, यहां तक कि बच्चों के लिए भी एक जगह बनाई।
यह उनकी हैसियत थी कि वे खुले सत्र में प्रधानमंत्री को संसदीय मर्यादा सिखा सकते थे और बाकायदा ऑन रिकॉर्ड कह सकते थे कि जब लोकसभा चल रही हो तब प्रधानमंत्री या मंत्रियों को देश-विदेश की यात्राएं नहीं करनी चाहिए, उन्हें सदन में रहना चाहिए। यह स्पीकर के नाते दिए सोमनाथ चटर्जी का निर्देश था जिसने सदन की स्थायी समितियों की रिपोर्टों पर धूल की परत दर परत जमने की परंपरा तोड़ी और स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों पर कार्रवाई रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखा जाना अनिवार्य किया।
अपने संवैधानिक पद के दायित्व से जुड़ी जिम्मेदारियों और उनसे जुड़ी मर्यादा को वे जोड़ कर देखते थे। उसके प्रति किसी प्रकार का अनादर उन्हें मंजूर नहीं था। एक बार लोकसभा अध्यक्ष के नाते उन्हें ऐसे देश की यात्रा पर जाना था जो उन दिनों इतना डरा और घबराया हुआ था कि हर किसी की जामातलाशी पर आमादा था। देश के रक्षा मंत्री की कपड़े उतरवाकर तलाशी ले चुका था। सोमनाथ दा ने स्पष्ट रूप से कहा, “जिस देश में भारतीय जनता के प्रतिनिधि, मंत्री और संसद सदस्य के कपड़े उतारे जाते हों और तलाशी ली जाती हो, मैं उस देश में नहीं जाऊंगा।”
सोमनाथ दा की पारिवारिक पृष्ठभूमि वामपंथी नहीं थी, वे खुद भी पहला चुनाव माकपा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े और जीते थे। वे अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा एक जमाने के धाकड़ बैरिस्टर एनसी चटर्जी के बेटे थे, जो खुद बाद में कम्युनिस्ट पार्टी समर्थित निर्दलीय के रूप में जीतकर लोकसभा सदस्य बने। उनकी बेमिसाल अध्ययनशीलता और मानवीय तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति लगाव ने ही उन्हें पहले दमन-उत्पीड़न के शिकार कम्युनिस्टों के मुफ्त के वकील के रूप में बंगाल के वामपंथी आंदोलन के साथ जोड़ा, फिर मार्क्सवादी बनाया। अंततः वे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व केंद्रीय समिति तक पहुंचे।
उनकी यह दलीय निष्ठा अप्रिय स्थितियों वाले बाद के दिनों में भी शिथिल नहीं हुई। वे बंगाल में माकपा की चुनावी सभाओं में बोलते रहे, ममता बनर्जी की तानाशाही के खिलाफ मुखर रहे, मजदूरों-किसानों के सवाल उठाते रहे।
उनके निधन के बाद उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व और असाधारण योगदान से अधिक उनके राजनैतिक उत्तरार्ध के एक हादसे को तूल देने की कोशिश हुई है। यह न्यायसंगत नहीं है। उनकी निष्ठा में कभी तरलता नहीं आई। खुद उनकी बेटी के शब्दों में पार्टी से हटाए जाने के बाद भी उन्होंने कभी माकपा के बारे में कटु शब्द नहीं बोला।
दलीय राजनीति में कई मर्तबा द्वैत उपस्थित होता है और द्वंद्व के मौके आते हैं। यह द्वैत कॉमरेड सोमनाथ चटर्जी के जीवन में भी उपस्थित हुआ। उन्होंने अपनी किताब कीपिंग द फेथः मेमोयर्स ऑफ ए पार्लियामेंटेरियन में बड़ी बेबाकी से इसे बयान किया है। सभी राजनैतिक दलों में निर्णय तक पहुंचने की एक पद्धति होती है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी कहीं ज्यादा उदार और खुली है। वह मत भिन्नताओं को दबाती नहीं, बल्कि प्रोत्साहित करती है। लोकतांत्रिक तरीके से नतीजे पर पहुंचती है। जनवादी केंद्रीयता इसी का नाम है।
भारत की राजनीति और कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में इसकी अनगिनत मिसालें हैं। बड़े-बड़े दिग्गज और कुर्बानियों के प्रतीक नेताओं की अपनी भिन्न राय के बावजूद समष्टि को व्यक्ति से ऊपर, बहुमत को अल्पमत से ऊपर और देश-जनता तथा पार्टी हितों को अपने निजी हित और पसंद-नापसंद से ऊपर रखने के न जाने कितने उदाहरण हैं।
यह सिर्फ सद्भावना और आदर्श की बात नहीं है। इसके पीछे एक सारतत्व है कि अकेला विचार परिवर्तन नहीं कर सकता, लक्ष्य तक नहीं पहुंचा सकता। उसके अनुरूप संगठन और उस संगठन के साथ करोड़ों अवाम की संलग्नता अपरिहार्य होती है। आखिर एक खास ढांचे और प्रणाली में समाहित होना ही तो संगठन में शामिल होना कहलाता है।
कहते हैं कि विचार वही जिंदा रहता है जिसके लिए लोग मरने को तत्पर होते हैं। यह मरना हमेशा दैहिक कुर्बानी नहीं होती, व्यवहार में इसका अर्थ सामूहिकता में निजता का लोप होता है। व्यक्ति का समष्टि में विलीनीकरण एक नए तरह के रसायन को जन्म देता है। यही वह रसायन है जो बदलाव के इंजन का ईंधन है। तत्व कितने भी मौलिक और शुद्ध, कीमती और दुर्लभ क्यों न हों, यौगिक तभी बनता है जब रासायनिक क्रिया होती है। ऊर्जा और नवोन्मेष दोनों की जरूरी शर्त यही है। माकपा का संविधान अद्भुत रूप से मानवीय और कमाल का लोकतांत्रिक है। यह कहता है कि कॉमरेडों के बारे में राय किन्हीं इक्का-दुक्का घटनाओं के आधार पर नहीं, उनके पार्टी सेवा के पूरे रिकॉर्ड और समग्र योगदान के आधार पर बनाई जाएगी।
सोमनाथ दा समकालीन भारतीय राजनीति के क्षितिज के चमकते सितारे थे। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी और बंगाल के राज्य सचिव डॉ. सूर्यकांत मिश्र का उन्हें अंतिम सलाम करने के लिए पहुंचना निजी उपस्थिति नहीं थी, माकपा के वरिष्ठ पुरोधा के प्रति आदरांजलि थी।
(लेखक माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य हैं और मध्य प्रदेश राज्य शाखा में महासचिव हैं)