बारह साल की सुषमा की याददाश्त ठीक नहीं है। 18 मई 2016 को दिल्ली के एक नाले में अर्धनग्न अवस्था में वह बेहोश मिली थी। उसे एम्स के ट्रॉमा सेंटर में दाखिल करवाया गया। नाले में फेंकने से पहले उसे गंभीर शारीरिक यातना दी गई थी, उसके गुप्तांगों से खून निकल रहा था। जब वह ठीक हुई तो पता चला कि उसके मां-बाप नहीं हैं और उसकी यह हालत एक जानने वाले ने की थी। आज वह दिल्ली में सरकारी मदद से संचालित एक एनजीओ के चिल्ड्रेन होम में रहती है।
सुषमा के दर्द से आपको एहसास होगा कि चिल्ड्रेन होम आखिर किनका बसेरा है। इन संरक्षण गृहों में बेसहारा-बेघर, घर से भागे, तस्करों के चंगुल से बचाए गए बच्चे रखे जाते हैं। वे बच्चे भी रखे जाते हैं जो बालिग नहीं होते और किसी अपराध में शामिल होते हैं। इन संरक्षण गृहों में कुछ का संचालन तो सरकार खुद करती है, लेकिन ज्यादातर एनजीओ चलाते हैं जिन्हें सरकार से फंड मिलता है। इन केंद्रों का मकसद वंचित और उत्पीड़ित बच्चों के अधिकारों की बहाली तथा उनके जीवन को उन्नत बनाना है और माना जाता है कि यहां रह रहे बच्चे महफूज हैं।
लेकिन, बिहार के मुजफ्फरपुर, फिर उत्तर प्रदेश के देवरिया और अब दिल्ली के कड़कड़डूमा के केंद्र से उत्पीड़न की जैसी कहानियां खुल रही हैं, उससे तो अंदाजा यही लगता है कि इनमें से कई केंद्र जहन्नुम को भी मात देते हैं। ऐसा नहीं है कि पहली बार ऐसी कहानियां सामने आई हैं। मुजफ्फरपुर बालिका संरक्षण गृह में 34 नाबालिग लड़कियों के साथ ज्यादती की पुष्टि से करीब एक दशक पहले जुलाई 2007 में तमिलनाडु के महाबलीपुरम में पैसे देकर देसी-विदेशी पर्यटकों द्वारा अनाथालय में रह रहे बच्चों के शोषण किए जाने का मामला सामने आया था। इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल दाखिल की गई और बीते साल मई में शीर्ष अदालत ने देश भर में चल रहे बच्चों के सभी संरक्षण केंद्रों का जुवेनाइल जस्टिस (केअर ऐंड प्रोटेक्शन) एक्ट यानी जेजे एक्ट के तहत रजिस्ट्रेशन कराने का आदेश दिया था।
देश में कुल 9,589 चाइल्ड केयर होम हैं। इनमें 3.68 लाख बच्चे रह रहे हैं, जिनमें 1.98 लाख लड़के, 1.69 लाख लड़कियां और 92 ट्रांसजेंडर हैं। इन केंद्रों में से 8,744 को एनजीओ चला रहे हैं, बाकी राज्य सरकारें चला रही हैं। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के करीब सालभर बाद भी 3,087 चाइल्ड केयर होम ही जेजे एक्ट के तहत रजिस्टर्ड हैं। मुजफ्फरपुर कांड के बाद केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने राज्य सरकारों को दो महीने के भीतर सभी केंद्रों का सोशल ऑडिट कराने को कहा है। सितंबर तक रिपोर्ट आने की उम्मीद है।
सोशल ऑडिट का फैसला पहली बार नहीं किया गया है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को बच्चों की देखभाल करने वाली सारी संस्थाओं का ऑडिट राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) से कराने का निर्देश दिया था। लेकिन, बिहार, उत्तर प्रदेश, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, मिजोरम में आयोग को ऑडिट नहीं करने दिया गया। केंद्रीय मंत्रालय ने 2016 में भी इन केंद्रों का अध्ययन करवाया था लेकिन उसमें बच्चे किन हालात में हैं यह जानने की दिलचस्पी नहीं दिखाई गई थी। मुजफ्फरपुर कांड की परतें टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) के प्रोजेक्ट ‘कोशिश’ की सोशल ऑडिट रिपोर्ट से खुलनी शुरू हुई थीं। कोशिश के डायरेक्टर मोहम्मद तारिक ने आउटलुक को बताया, “जब इन केंद्रों का निरीक्षण होता है तो दस्तावेजों की जांच पर ज्यादा जोर दिया जाता है। वहां रह रहे लोगों का अनुभव जानने की कोशिश नहीं की जाती।”
प्रयास जेएसी सोसायटी के महासचिव आमोद के. कंठ ने आउटलुक को बताया कि मसला केवल संरक्षण गृहों का नहीं है। बच्चों के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। वे घर और बाहर कहीं सुरक्षित नहीं हैं। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने 2014 में संसद में बताया था कि 2013-14 में बाल सरंक्षण केंद्रों में 932 मामले शोषण और हिंसा के सामने आए थे। गांधी ने इसी साल 17 जुलाई को लोकसभा में बताया कि एनसीपीसीआर को इस साल अप्रैल से जून के बीच 917 शिकायतें मिलीं जिनमें 164 मामले यौन शोषण के थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि यौन शोषण से बच्चों को बचाने के लिए बनाए गए कानून पॉक्सो के तहत 2016 में 36 हजार 321 मामले दर्ज किए गए जो 2015 की तुलना में 5.5 फीसदी ज्यादा थे।
दिल्ली कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (डीसीपीसीआर) के 2009-15 तक सदस्य रहे और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील शशांक शेखर ने आउटलुक को बताया, “जेजे एक्ट में इन केंद्रों की जिस तरह से परिकल्पना की गई है, वैसा जमीन पर नहीं है। मेरे हिसाब से बच्चों की रक्षा और बेहतरी के लिए जो संसाधन होने चाहिए, वे शेल्टर होम में नहीं हैं। अनियमितताएं तब सामने आती हैं जब कोई बच्चा मर जाता है, भाग जाता है या बाहर की कोई एजेंसी कुछ उजागर करती है। साफ है कि राजनैतिक दबाव भारी है और बच्चे सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं।”
दिल्ली में शेल्टर होम चलाने वाले एक एनजीओ के प्रमुख ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि ऐसा ही चलता रहा तो प्रताड़ना का यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा। उन्होंने बताया कि नियम यह है जिस एनजीओ को संरक्षण गृह चलाने का टेंडर दिया जाए, तीन साल बाद उसकी फिर से पड़ताल की जाए। सब कुछ ठीक मिलने पर ही दोबारा टेंडर दिया जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता। जाहिर है, एनजीओ चलाने वाले संगठन, अधिकारियों और नेताओं की सांठगांठ के कारण ही ऐसा नहीं होता है। कभी-कभार अनियमितताएं सामने आ भी जाती हैं तो उन्हें ‘मैनेज’ कर लिया जाता है। मुजफ्फरपुर मामले में भी शुरुआत में ऐसी ही कोशिश हुई थी। अब सीबीआइ मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर और दबाव बढ़ने पर इस्तीफा देने को मजबूर हुईं बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा के बीच संबंधों की पड़ताल कर रही है।
प्रयास देश के नौ राज्यों में बच्चों के लिए 47 शेल्टर होम चला रहा है। इनमें से 21 दिल्ली और बिहार में हैं। टिस के प्रोजेक्ट ‘कोशिश’ की सोशल रिपोर्ट में जिन कुछेक केंद्रों की तारीफ की गई है, उनमें प्रयास का शेल्टर होम भी है। कंठ ने आउटलुक को बताया, “संरक्षण गृहों में रह रहे बच्चे कानूनी तौर पर सरकार की जिम्मेदारी हैं। इन केंद्रों में बच्चों को लाने से लेकर उनकी निगरानी तक से कई सरकारी महकमे जुड़े हुए हैं। यहां रह रहे बच्चों को वे सभी 56 अधिकार हासिल हैं जिनका जिक्र यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ चाइल्ड में किया गया है। मोटे तौर पर कहें तो बुनियादी जरूरतें बच्चों का अधिकार हैं। ऐसे में उस निगरानी या अध्ययन का क्या मतलब रह जाता है जिनमें बच्चों की जरूरत पर ही ध्यान न दिया जाए।” साफ है कि संरक्षण गृहों की नियमित निगरानी होती और नियमों का सही तरीके से पालन होता तो ऐसी स्थितियां शायद ही आतीं। लेकिन, जैसा कि मुजफ्फरपुर और देवरिया मामले के मुख्य आरोपी की ऊंची पहुंच से जाहिर होता है, पूरी व्यवस्था ही ठप हो चुकी है।
ऐसा भी नहीं है कि देश भर में चल रहे ऐसे हजारों केंद्रों में घुप्प अंधेरा ही पसरा है। 16 साल की हिना खातून 2017 में मानव तस्करों के चंगुल से बचाई गई थी। वह फिलहाल फरीदाबाद में अपने मां-बाप के साथ रहती है। परिवार के पास जाने से पहले वह कई महीनों तक दिल्ली के एक चिल्ड्रेन होम में रही। हिना ने बताया कि वहां उसे सदमे से बाहर आने में हर तरह की मदद दी गई और संचालकों की वजह से ही वह अपने मां-बाप से दोबारा मिल पाई। 15 साल की लक्ष्मी दास को तो उसकी मां ही सड़क पर छोड़कर चली गई थी। वह 2014 से दिल्ली के एक चिल्ड्रेन होम में रह रही है। इस बार सातवीं में 85 फीसदी अंक हासिल किया है और इंजीनियर बनने के सपने देखती है।
पर, अफसोस हर बच्चे की कहानी हिना और लक्ष्मी जैसी नहीं है और वैसी तो बिलकुल नहीं है जिसकी परिकल्पना जेजे एक्ट में की गई है। तो, कब संरक्षण गृहों को 'मैनेज' करके यातना गृहों में बदलने का सिलसिला टूटेगा?
(पहचान गुप्त रखने के लिए बच्चियों के नाम बदल दिए गए हैं)