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अंग के इंतजार में खत्म होती जिंदगियां

लिविंग डोनर लाखों में, लेकिन गिनती के कडैवर डोनर और संसाधनों की कमी से प्रत्यारोपण अब भी जटिल
ट्रांसप्‍लांट की लंबी वे‌ट‌िंग

अगस्त माह की 13 तारीख यानी ‘वर्ल्ड ऑर्गन डोनेशन डे’ से एक दिन पहले इंदौर में तीन लोगों को नई जिदंगी देकर 14 साल की अंजलि दुनिया से विदा हो गई। सड़क हादसे में जख्मी इस बच्ची को जब डॉक्टरों ने ब्रेन डेड घोषित किया तो उसके माता-पिता उसका अंगदान करने को राजी हो गए। मेडिकल साइंस की भाषा में अंजलि जैैसे लोग ‘कडैवर डोनर’ कहलाते हैं। देश में अंग प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे लाखों लोगों में से महज कुछ सौ को ही कडैवर डोनर मिल पाते हैं, क्योंकि ब्रेन डेड के ज्यादातर मामलों में परिजन वैसा साहस नहीं दिखा पाते जैसा अंजलि के मां-बाप ने दिखाया। 

एम्स दिल्‍ली के ऑर्गन रिट्रीवल बैंकिंग ऑर्गनाइजेशन (ओआरबीओ) की विभागाध्यक्ष  डॉ. आरती विज ने आउटलुक को बताया, “हमारे समाज में ब्रेन डेड को लोग सहजता से स्वीकार नहीं करते। ऐसे लोगों के ठीक होने की आस परिजन अंत‌ तक नहीं छोड़ते। इसके अलावा कई बार धार्मिक मान्यताओं और भ्रम के कारण भी परिजन अंगदान की सहमति देने से हिचकते हैं।” बीते एक दशक में देश में 30 लाख से ज्यादा लोगों की मौत समय पर अंग नहीं मिलने के कारण हो चुकी है। फिलवक्त, करीब तीन लाख लोगों को किडनी चाहिए, जिनमें आठ हजार का ही ट्रांसप्लांट हो पाया। पचास हजार में से 339 ही हार्ट और 80 हजार में से महज 709 ही लिवर ट्रांसप्लांट करा पाए।

देश में अंग प्रत्यारोपण क्षेत्र के भयावह हालात के ये आंकड़े गवाही भर हैं और वह भी तब, जब लिविंग डोनर यानी मृत्यु के बाद अंगदान की शपथ लेने वालों के लिहाज से हम दुनिया के अव्वल देशों में हैं। राष्ट्रीय अंग और ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (नोटो) की निदेशक डॉ. वसंती रमेश ने बताया कि देश में करीब 18 लाख लिविंग डोनर हैं। इसी साल नौ जून को नोटो के एक कैंपेन के दौरान आठ घंटे के भीतर 24,166 लोगों ने ऑनलाइन अंगदान की शपथ ली। ऐसा कर भारतीयों ने एक दिन में 3,200 शपथ के अमेरिकियों के वर्ल्ड रिकॉर्ड को तोड़ दिया।

नोटो के पूर्व निदेशक डॉ. विमल भंडारी ने बताया, “लिविंग डोनर से किडनी या लिवर का कुछ हिस्सा ही ट्रांसप्लांट किया जा सकता है। अधिकांश प्रत्यारोपण मसलन- ह‌ार्ट, फेफड़ा, पैंक्रीअस, आंत के लिए कडैवर डोनर की जरूरत होती है, जिनकी संख्या बेहद कम है।” भारत में कडैवर डोनर प्रति दस लाख पर एक से भी कम है, जबकि दुनिया में सबसे ज्यादा स्पेन में यह आंकड़ा प्रति दस लाख में 36 है। देश में हर साल करीब डेढ़ लाख लोगों की सड़क दुर्घटना में मौत होती है। इसके अलावा अन्य कारणों से भी करीब एक लाख लोग ब्रेन डेड होते ह‌ैं। यदि इनके अंग मिल जाएं तो इस समस्या का हल निकल सकता है।

हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रेन डेड मामलों में जागरूकता की कमी इस समस्या का इकलौता कारण नहीं है। सरकारी अस्पतालों में संसाधन तथा विशेषज्ञों की कमी और अंगदान की जटिल प्रक्रिया भी इसकी बड़ी वजह है। देश में पहला प्रत्यारोपण मई 1965 में किडनी का मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल में हुआ था। 1994 में पहला हार्ट ट्रांसप्लांट और 2004 में पहला पैंक्रीअस ट्रांसप्लांट एम्स दिल्ली में हुआ। अंगदान को लेकर पहली बार व्यवस्थित पहल भी एम्स ने ही 2002  में ओआरबीओ की स्‍थापना करके की। इस साल एम्स में लिवर ट्रांसप्लांट और स्किन बैंक की शुरुआत होने की उम्मीद है। लेकिन, इन सालों में निजी क्षेत्र में ट्रांसप्लांट के संसाधन और विशेषज्ञ जिस तेजी से बढ़े वैसा सरकारी अस्पतालों में नहीं हुआ।

फिलहाल, देश में ऑर्गन ट्रांसप्लांट के 301 केंद्र हैं जिनमें से 75 फीसदी से ज्यादा प्राइवेट हैं। ये केंद्र भी असमान रूप से फैले हैं। मसलन, बिहार में केवल एक किडनी प्रत्यारोपण केंद्र है तो दिल्ली में 36। यूपी में चार केंद्र हैं जो दिल्ली से सटे नोएडा में सिमटे हैं। करीब बारह राज्यों में आज तक एक भी ट्रांसप्लांट नहीं हो पाया है। 95 फीसदी ट्रांसप्लांट निजी क्षेत्र में होते हैं। लेकिन, प्राइवेट अस्पतालों में जिस पैमाने पर ट्रांसप्लांट हो रहा है उस तरह से ऑर्गन रिट्रीव नहीं होता। डॉ. भंडारी ने बताया कि दुर्घटना के बाद ज्यादातर लोग सरकारी अस्पतालों में लाए जाते हैं। इन अस्पतालों में ‌विशेषज्ञ, संसाधन और अंगदान के लिए काउंसलिंग करने वाले पर्याप्त नहीं है। लिहाजा कडैवर डोनर तेजी से नहीं बढ़ रहे। दूसरी ओर,  निजी अस्पतालों में ज्यादातर ब्रेन डेड मरीज ऐसे होते हैं जो पहले से ही कई बीमारियों से ग्रस्त होते हैं और उनकी उम्र ज्यादा होती है। साथ ही अंगदान की जटिल प्रक्रिया के कारण भी प्राइवेट हॉस्पिटल ऑर्गन रिट्रीव को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाते।

डॉ. विज ने बताया कि किसी मरीज को ब्रेन डेड सामान्य डॉक्टर घोषित नहीं कर सकता। इसके लिए विश्‍ोषज्ञता की जरूरत होती है और बाकायदा इसकी  एक तय प्रक्रिया है। देश के ज्यादातर अस्पतालों में ऐसे विशेषज्ञ नहीं हैं। अस्पतालों में अंगदान के लिए मरीजों के परिजनों की काउंसलिंग करने वाले मोहन फाउंडेशन की प्रोग्राम मैनेजर (दिल्ली-एनसीआर) डॉ. मुनीत कौर साही ने बताया, “कई बार परिजन अंगदान को तैयार हो जाते हैं, लेकिन विशेषज्ञों की कमी के कारण डोनर का मिलान करना मुश्किल हो जाता है। और ऐसे मामलों में हर पल बेहद कीमती होता है। जितनी ज्यादा देर होगी डोनर के अंगों का इस्तेमाल होने की संभावना उतनी कम होती जाएगी।” फोर्टिस मालार, चेन्नै में कार्डियक साइंसेज के निदेशक डॉ. के.आर बालकृष्‍णन ने बताया, “किडनी एक या दो दिनों के भीतर और हार्ट छह घंटों के भीतर प्रत्यारोपित करना जरूरी होता है।” संसाधनों और विशेषज्ञों की कमी स्वीकार करते हुए केंद्रीय स्वास्‍थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने बताया कि इसे दूर करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

ज्यादातर ट्रांसप्लांट सेंटर प्राइवेट होने के कारण अंग प्रत्यारोपण कराना सामान्य लोगों के बूते की बात भी नहीं है। देश में सबसे ज्यादा प्रत्यारोपण तमिलनाडु में होता है। ट्रांसप्लांट अथॉरिटी ऑफ तमिलनाडु के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में करीब एक चौथाई हार्ट और लिवर ट्रांसप्लांट विदेशियों के होते हैं। साफ है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में ही प्राइवेट हॉस्पिटल भारतीयों पर विदेशियों को प्राथमिकता दे रहे हैं। डॉ. साही के मुताबिक यदि मरीज किसी तरह ट्रांसप्लांट करवा भी ले तो उसके लिए बाद दवा वगैरह पर होने वाला खर्च उठाना भारी पड़ जाता है। यूरोपीय देशों में इस पर होने वाला खर्च सरकार उठाती है। 

लिवर और हार्ट ट्रांसप्लांट पर 20-25 लाख रुपये और किडनी ट्रांसप्लांट पर 8-10 लाख रुपये का खर्च आता है। अपोलो दिल्ली में लिवर ट्रांसप्लांट डिपार्टमेंट के प्रमुख डॉ. नीरव गोयल ने आउटलुक को बताया कि ट्रांसप्लांट के बाद पहले छह महीने दवा पर अमूमन 20 हजार रुपये और उसके बाद करीब दो साल तक आठ-दस हजार रुपये का खर्च आता है। फिर जीवन भर दवाओं पर तीन-पांच हजार रुपये हर महीने खर्च करने पड़ते हैं। जाहिर है उपचार और दवाएं सस्ती किए बिना ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए प्रत्यारोपण कराना मुमकिन नहीं होगा।

इसके अलावा डोनर मिलने पर अंगों को स्टोर कर समय के भीतर उसे जरूरतमंद तक पहुंचाना भी बड़ी चुनौती है। इसके कारण कभी-कभी ऑर्गन का इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। इसी साल फरवरी में नोटो को ब्‍लड ग्रुप एबी निगेटिव हार्ट डोनेट किया गया। लेकिन, उत्तर भारत में इस ग्रुप से मैच करता पेशेंट नहीं मिलने के कारण इसका इस्तेमाल नहीं हो पाया।

डॉ. विज ने बताया, “स्वास्‍थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ाने और शुरुआत में ही समुचित उपचार उपलब्‍ध कराने पर ऑर्गन फेल्योर के मामलों में कमी लाई जा सकती है। साथ ही सरकारी अस्पतालों में संसाधन बढ़ाने की जरूरत है।” डॉ. भंडारी का मानना है कि यदि सरकार देश के सभी मेडिकल कॉलेजों को कम से कम ऑर्गन रिट्रीवल सेंटर के तौर पर विकसित कर देती है तो संकट पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।

जाहिर है, डोनर का इंतजार करते लोगों की जिंदगी ‘अंगदान, महादान’ के नारों से ही नहीं बचेगी। इसके लिए स्वास्‍थ्य क्षेत्र की कंप्लीट सर्जरी की जरूरत है, जो फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है।

‘हर राज्य में होगा सोटो’

अंगदान और प्रत्यारोपण को बढ़ावा देने के लिए सरकार के प्रयासों पर केंद्रीय स्वास्‍थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल से अजीत झा की बातचीत के अंशः

अंग प्रत्‍यारोपण के क्षेत्र में संसाधनों की कमी कैसे दूर होगी?

सरकारी अस्पतालों में इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी से सरकार वाकिफ है। इसे दूर करने के लिए राष्ट्रीय अंग प्रत्यारोपण कार्यक्रम के तहत कई कदम उठाए गए हैं। नए ऑगर्न रिट्रीवल और ट्रांसप्लांट सेंटर खोलने के लिए सरकार वित्तीय मदद दे रही है। पहले से जो सेंटर हैं उनकी क्षमता बढ़ाने पर भी काम चल रहा है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में राष्ट्रीय अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (नोटो) स्‍थापित किया गया है। नोटो में एक नेशनल बॉयोमटेरियल सेंटर भी शुरू किया गया है। ‌तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, चंडीगढ़ और असम में रीजनल सेंटर बनाए गए हैं। इसके अलावा हर राज्य में सरकार राज्य अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (सोटो) की स्‍थापना करने जा रही है।

लिविंग डोनर तो हैं, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद कडैवर डोनर नहीं मिल रहे?

अंगदान को बढ़ावा देने के लिए मानव अंग प्रत्यारोपण (संशोधन) अधिनियम 2011 लाया गया। प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ में भी लोगों से अंगदान की अपील की थी। अब बड़ी संख्या में लोग अंगदान की शपथ ले रहे हैं। लेकिन, लिविंग डोनर से डिमांड और सप्लाई के बीच का भारी अंतर कम नहीं हो सकता। हर साल करीब दो लाख लोगों की मौत सड़क दुर्घटना में होती है, वे या जो ब्रेन डेड हैं वे संभावित डोनर हो सकते हैं। ऐसे लोगों के परिजनों को अंगदान के लिए राजी करने के लिए ट्रांसप्लांट कॉर्डिनेटर हायर करना अनिवार्य कर दिया गया है। कॉर्डिनेटर की भर्ती के लिए वित्तीय सहायता दी जा रही है। अंगदान और प्रत्यारोपण में शामिल हर स्तर के कर्मचारियों को विशेष प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। मेडिकल कॉलेजों को ऑगर्न रिट्रीवल सेंटर बनाने और क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने के प्रयास भी जारी हैं।

ज्यादातर ट्रांसप्लांट सेंटर निजी क्षेत्र में होने के कारण गरीबों के लिए इलाज कराना मुमकिन नहीं होता?

राष्ट्रीय आरोग्य निधि के तहत गरीब मरीजों को ट्रांसप्लांट के लिए मदद दी जाती है। इसके बाद दवा वगैरह के लिए गरीब मरीजों को हर महीने दस हजार रुपये भी मिलते हैं।

कानून के दुरुपयोग की भी कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इसे रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं?

लिविंग डोनर से अंग लेने पर सौदेबाजी की आशंका होती है। वैसे, इसे रोकने के लिए समुचित कानूनी प्रावधान किए गए हैं। हमारी कोशिश है कि ब्रेन डेड डोनर बढ़ें। ऐसा होने पर न केवल डिमांड और सप्लाई के बीच गैप कम होगा, बल्कि सौदेबाजी की आशंका भी कम हो जाएगी। ऑर्गन रिट्रीव कर उसे स्टोर और एलोकेट करने की प्रक्रिया को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी बनाने पर भी सरकार का जोर है।

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