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सतत ‘भारत जिज्ञासा’ यानी नायपॉल

‘भारत-चिंता’ उनके मन में (लिखने में भी) बनी रही, नोबेल पुरस्कार लेते हुए भी भारतवंशी होना नहीं भूले
वी.एस. नायपॉल (1932-2018)

जब भी वी.एस. नायपॉल (विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल ः जन्म 19 अगस्त 1932- निधन, 11 अगस्त 2018) का नाम किसी प्रसंग में सामने आता है, या उनके बारे में सोचता हूं, तो सबसे पहले उनके उपन्यास अ हाउस फॉर मिस्टर विश्वास का ध्यान आ जाता है। यह 1961 में आया था और उसके आने के कुछ ही समय बाद, अपने कथाकार-पत्रकार मित्र अशोक सेकसरिया के कहने पर उसे पढ़ा था। वह इस उपन्यास के घोर प्रशंसक बन चुके थे (और आजीवन उनके प्रिय लेखक नायपॉल बने रहे)। मैं 22-23 बरस का था। कोलकाता में था। और तब यह उपन्यास बहुत ‘अपना’ लगा था। वह मानो किसी भी भारतीय मध्यवर्गीय परिवार, पढ़े-लिखे परिवार, की जीवन-कथा के ‘समांतर’ चलने वाला परिवार था। पर, हमें सुदूर त्रि‌निदाद में भी ले गया था, जहां ‘विदियाधर’ का जन्म हुआ था। और वह उपन्यास हमारे लिए एक ‘यात्रा’ भी बना था-प्रवासी, भारतवंशी परिवार (परिवारों) के बीच की एक यात्रा का।

फिर पढ़ी थी उनकी पुस्तक ऐन एरिया ऑफ डार्कनेस, जो भारत पर नायपॉल की पहली किताब थी और 1964 में आयी थी। तब तक मैं दिल्‍ली आ चुका था। युवा था 24 बरस का। और याद है कि इसके आते ही लेखकों-पत्रकारों-बुद्धिजीवियों के बीच घमासान ही तो छिड़ गया था। और सचमुच तब के ‘टी हाउस’ और ‘कॉफी हाउस’ के प्यालों में ‘तूफान’ आ गया था, जिसे देखिए वही इस किताब के बारे में, उसके पक्ष-विपक्ष में कुछ न कुछ कह-बोल-लिख रहा होता था, उसे पढ़े या बिना पढ़े भी। याद नहीं पड़ता कि कभी और किसी किताब पर भारत में ऐसा घमासान छिड़ा हो। इसे लेकर अनंत बहसें हुई थीं और अब भी होती हैं। भारतवंशी नायपॉल की भारत-आलोचना तब बहुतों को अखरी थी।

इस आलोचना को झेलकर नायपॉल रुके नहीं, और भारत की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों, और भारतीयों की कुछ आदतों और जीवन-शैलियों, को लेकर उन्होंने दो और किताबें लिखीं, इंडिया अ वुंडेड सिवि‌लिजेशन (1975) और इंडिया ः अ मिलियन म्यूटिनीज नाउ (1989)। इन दोनों पर भी तीखी प्रतिक्रियाएं हुईं, पर, अंतिम, इंडिया ः अ मिलियन म्यूटिनीज नाउ मानो नायपॉल और उनके तीव्र आलोचकों के बीच, ‘संधि’ कराने वाली किताब साबित हुई और बहुतों को लगा कि नायपॉल ‘अब’ भारत को ज्यादा अच्छी तरह समझने लगे हैं, उसके उतने तीखे आलोचक नहीं ही रहे, बल्कि कई मामलों में उसके पक्षधर बन चुके हैं। इन किताबों में क्या है, यह तो पढ़कर ही जाना जा सकता है, क्योंकि उनका सार-संक्षेप तो कठिन क्या, एक असंभव काम होगा, पर जो बात इनके बारे में सहज ही कही जा सकती है वह तो यही है कि एक ‘भारत-चिंता’ इस भारतवंशी के मन में (लिखने में भी) आजीवन बनी रही और वे भारत कुछ अधिक बार आने भी लगे। जब उन्हें नोवेल पुरस्कार मिला (2001 में) तो उसे ग्रहण करते हुए भी वे अपने भारतवंशी होने को भूले नहीं, और यह भी नोट किया कि जिस ‘चागुआनास या चागुआनाज’ (नायपॉल ने स्वयं लिखा है कि इसका उच्चारण कठिन है) में उनका जन्म हुआ और जिसे भारतीय मूल के लोग ‘चौहान’ करके पुकारने लगे थे, नाम की ‘कठिनाई’ के कारण ही, वहां उनका बचपन किन परिस्थितियों में बीता था। जाहिर है, यह सब बहुत विस्तार के साथ तो नहीं कह सकता था, पर, था।

जो भी हो, भारत संबंधी किताबों के अलावा नायपॉल के उपन्यास, यात्रा वृत्तांत, निबंध, साहित्यिक निबंध लगातार आते रहे और भारत में भी खूब पढ़े जाते रहे। जिस दिन नायपॉल का निधन हुआ, उसके अगले दिन ही, मैंने और मेरी पत्नी ज्योति ने उनकी वे पुस्तकें शेफ से निकालकर देखीं, जो हमारे पुस्तक संग्रह में हैं। कुल सात मिलीं ः द राइटर ऐंड द वर्ल्ड (निबंध), द नाइट वॉचमैन, अ आकरेंस बुक (कहानियां), द मिडल पैसेज अ कैरिवियन जर्नी (यात्रा वृत्तांत), अ राइटर्स पीपुल वेज ऑफ लुकिंग ऐंड फीलिंग (निबंध), गेर्रिलाज (उपन्यास), अ टर्न इन द साउथ (यात्रा वृत्तांत) और लिटरेरी अकेजंस (निबंध)। अ हाउस फॉर मिस्टर विश्वास की प्रति नहीं मिली, इसका अफसोस हुआ क्योंकि उसे दोबारा पढ़ने का, देखने का मन हुआ। शायद कोलकाता के युवा दिनों में ही कहीं छूट गई या पढ़ने के लिए किसी को दे दी और फिर वापस नहीं आई। यह व्यक्तिगत प्रसंग मैं इसलिए ले आया कि इस बहाने मैं उनकी पुस्तकों की कुछ तो ‘गिनती’ कर ही सकूंगा, और इससे यह भी झलका सकूंगा कि न जाने कितने हजारों-लाखों घर इस देश में होंगे, जिनमें ऐसी ही ‘गिनती’ शायद की गई होगी। दुनिया की तो खैर बात ही क्या करें, वहां तो यह संख्या करोड़ों में होगी।

अंग्रेजी में लिखने वाले, त्रिनिदाद छोड़कर इंग्‍लैंड में बस गए वी.एस. नायपॉल की पुस्तकों के अनुवाद तो दुनिया की कई भाषाओं में हुए हैं। अब चूंकि उनके यहां पुस्तकें विविध विधाओं की हैं तो किसी भी पाठक के लिए यह संभव है कि वह उनमें से किसी विधा की पुस्तकों को अधिक पसंद करने लगे। सो, मेरे लिए नायपॉल के साहित्यिक निबंध और अन्य निबंध, कुछ अधिक प्रिय रहे हैं, उनके यात्रा वृत्तांत भी। उनमें कुछ बड़ी दिलचस्प चीजें हैं। नायपॉल के निबंधों की एक खूबी यह है कि हैं वे निबंध, पर, उनमें कथा-रस बहुत है। ऐसा ही है उनका एक निबंध ‘लुकिंग ऐंड नाट सीइंग ः द इंडियन वे’। इस अकेले निबंध में कई घटनाएं और पात्र हैं, विस्तार भय से उनमें से कुछ की चर्चा करूंगा। स्वयं यह निबंध कई चीजों के बारे में है ः परिवार के बारे में, उनकी भारत-जिज्ञासा के बारे में और स्वयं उनके लेखक बनने के बीजों के बारे में भी है (नायपॉल 9-10 बरस की उम्र से अपने पिता के रिपोर्टर्स पैड पर पेंसिल से एक डायरी लिखा करते थे। डायरी में इंट्री करने के लिए कई बार घटनाओं और प्रसंगों की कमी पड़ जाती थी तो वह कुछ ‘कल्पना’ से भी लिख डालते थे, या कुछ पारिवारिक ‘घटनाएं’, जो होती तो सच्ची थीं पर, वे लिखने में अदल-बदल जाती थीं या कहें अतिरंजित हो जाती थीं)।

अचरज नहीं, नायपॉल ने एक बार अपनी यह प्रसिद्घ उक्ति कही थी, ‘उपन्यास कभी झूठ नहीं बोलता’।

बहरहाल ‘लुकिंग ऐंड नॉट सीइंग ः द इंडियन वे’ में एक घटना लिखी है वह है-उनकी नानी ने एक बार जब चटाई (गद्दा) बुनने (बनाने) वाले को बुलाया तो नायपॉल, जो तब किशोर ही थे, उसकी तल्लीनता से बड़े प्रभावित हुए। वह चटाई (गद्दा), बुनने/बनाने वाला नारियल के रेशों को गूंथता, सीता (सिलाई करता), कपड़े के खोल में वह सब भरता और वे उसे ऐसा करते हुए देखते। वह भारतीय मूल का था और हिंदी बोलता था। हालांकि, नायपॉल के पास भारतवंशियों से सुन-सुनकर हिंदी शब्दों का भंडार तो इकट्ठा हो गया था, पर वे उन्हें लेकर कोई वाक्य न बना पाते थे। और उस गद्दे बनाने वाले को अंग्रेजी बमुश्किल थोड़ी-बहुत ही आती थी, पर, वह उससे यह पूछने में सफल हो गए कि ‘भारत कैसा है? जहां से वह आया है, वह जगह कैसी है?’ तो वह नायपॉल को सिर्फ इतना बता पाया कि ‘वहां रेलवे स्टेशन था।’ हां बाद में, नायपॉल को ऐसे लोग नई पीढ़ी के मिले, जो भारत हो आए थे और वहां से लौटकर, गांधी की, आजादी की लड़ाई की बातों के साथ और भी बहुत कुछ बताते थे। पर, पहले से जो कई पीढ़ियां त्रि‌निदाद में रह रही थीं, वह अपने भारत-अतीत को भूल चुकी थीं। स्वयं नायपॉल को यह बात सालती थी कि उन्होंने अपने बिलकुल युवा दिनों में जो समय अपने संयुक्त परिवार में और अन्य भारतवंशियों के अपने में ‘बंद’ जीवन में बिताया उसमें यह स्मृति तो थी कि उनके पुरखे भारत से आए थे, पर, इसके अलावा वह भारत के बारे में और कुछ न जानते थे।

स्वाभाविक था कि नायपॉल की भारत-जिज्ञासा शांत न हो पाने के कारण बढ़ती ही गई थी। ऐसा ही तो होता है। जापानी मूल के नोवेल पुरस्कार विजेता काजुओ हशिगुरो के माता-पिता तब इंग्‍लैंड आ गए थे, जब काजुओ 4-5 वर्ष के थे। और अनंतर जापान के बारे में सोचा और पूछा करते थे, जब तक कि वह बहुत बाद में स्वयं जापान नहीं हो आए।

जो भी हो ‘भारत जिज्ञासा’ के साथ-साथ, नायपॉल को इंग्‍लैंड (लंदन) में जो जीवन जीने को मिला कॉस्मोपोलिटन जीवन-चरित्रों के बीच, उसने मानो उनके सामने चरित्रों की एक भीड़ ही तो जुटा दी-जिसमें और भी इजाफा किया उनकी यात्राओं ने। नायपॉल के चरित्र चाहे औपन्यासिक हों या यात्रावृत्तों के ‘यथार्थ’ चरित्र, उनमें विभिन्न प्रकार की जीवन शैलियां झलकती ही हैं, जिनमें ‘रात का चौकीदार’ जैसा एक चरित्र भी है, चाभियों का एक बड़ा गुच्छा ‘सा‌थ’ में लिए हुए, जिसके प्रसंग से मानो एक नहीं कई ‘कहानियां’ खुलती जाती हैं।

कह सकते हैं कि नायपॉल ने ‘जीवित चरित्रों’ को सामने रखकर विभिन्न विधाओं में जो कुछ लिखा, उसमें कथा-रस के साथ-साथ एक जीवन-रस भी है और चीजें मानो एक ‘स्क्रीन’ पर आपके समक्ष घटित होती रहती हैं। उनमें एक विचित्र ‘विरोधी’ भाव भी है, जिसे अंग्रेजी में ‘कॉमिक’ कहा गया है, पर वह मुझे ‘कॉमिक’ उतना नहीं लगता जितना हल्के से गुदगुदा देने वाला भाव है और एक ‘तिरछी’ नजर भी। कह सकते हैं कभी-कभी उनमें ‘ट्रैजिक-कॉमिक’ साथ-साथ चलते हैं। जीवन के बहुतेरे रंग उनके यहां हैं। वे ‘दुख’ के साथ ठहरते जरूर हैं, पर, जल्दी ही उससे छुटकारा चाहने लगते हैं।

अचरज नहीं कि उनमें चीजों को लेकर ‘सब कुछ डूब गया’ या ‘डूब रहा है’ की जगह फिर जीवन के बीच जाने का, वहां से ऊर्जा पाने का, एक भाव बना ही रहता है। ‘कल्पनाएं’ फंतासियां, अमूर्त ‘उड़ानें’ उनके यहां कम हैं और जहां-जहां किसी ‘एबसर्ड’ स्थिति का भाव बनता भी है, वह उसे थोड़ी देर तक रहने तो देते हैं, पर, ‌फिर उसे ‘खारिज’-सा करते हुए आगे बढ़ जाते हैं। निश्चय ही वह अपने में पाठक को अच्छे अर्थों में ‘उलझाए’ रखने वाले लेखक हैं। अगर मैं लेखकीय मिजाज के हिसाब से यह कहूं कि उनमें कुछ प्रेमचंद वाले गुण हैं-तो, शायद यह गलत नहीं होगा। हालांकि, यह बात बिलकुल सच है कि हर अच्छा लेखक अपनी तरह का होता है। हां, कभी-कभी थोड़ी-बहुत समानताएं देखने को मिलती हैं और उसी के आधार पर हम ऐसा कुछ सोच या कह बैठते हैं।

मूलतः तो नायपॉल को कथाकार-उपन्यासकार ही माना जाएगा, उनके बिना वह न तो नोबेल पुरस्कार विजेता होते, न ‘सर’ उपाधि के अधिकारी, न दुनिया उन्हें उस रूप में जानती, जिस रूप में आज जानती-मानती है। पर, इसमें सच्‍चाई है कि कुछ मामलों में संभवतः नायपॉल को उपन्यासकार भर होना नाकाफी लगता रहा है। उपन्यास के खास गुणों और उसके कुछ ‘कमजोर’ पक्षों से भी वह परिचित थे। अगर नायपॉल ने यह कहा कि ‘उपन्यास’ कभी झूठ नहीं बोलता तो ‘लुकिंग ऐंड नॉट सीइंग ः इंडिया वे’ निबंध में यह भी कहा कि, ‘‌रीडर्स ऑफ नावेल्स फारगेट ऐज दे रीड’ (उपन्यासों के पाठक उन्हें पढ़ने के साथ भूलने भी लगते हैं) और इसमें एक बड़ी सच्‍चाई है। हम पढ़े हुए उपन्यासों के चरित्रों के नाम, प्रसंग, घटनाएं, उनका कथा-क्रम आदि आम तौर पर भूल जाते हैं। पर, उन्हें पढ़ने का और उनसे कुछ पाने का (अनुभव, जीवनानुभव, ज्ञान) एक बोध बना रहता है। और वह ‘बोध’ विश्वास  का यह बोध भी लाता है कि जिस लेखक के उपन्यास हमने पढ़े हैं, स्वयं उसके बारे में क्या बोध हुआ है? उसे हमने बड़ा, गंभीर-अगंभीर, साधारण-असाधारण कैसा लेखक पाया है? सो, जो भी उनके उपन्यास पढ़ेगा वह मानेगा कि वह एक ‘बड़े’ लेखक थे, कि उनके पास देने को बहुत कुछ था। उनका अपना एक ‘वर्ल्ड व्यू’ था और सिर्फ उनके यात्रा-वृत्तांत ही पढ़ते हुए नहीं, कुछ भी पढ़ते हुए हम एक ‘यात्रा’ करते हैं।

जब मैं 1984 में आयोवा (अमेरिका) के इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम में भाग लेने के लिए गया था तो वहां अन्य लेखक मुझसे स्वभावतः नायपॉल के बारे में मेरी राय जानना चाहते थे, खास तौर पर ऐन एरिया ऑफ डार्कनेस के बारेे में, तब जो कुछ मैं कहता था, उनके बारे में, वही आज भी कहता हूं कि ‘आलोचना का तो स्वागत ही करना चाहिए’ वह भी अगर वह किसी लेखक की ओर से आई हो, भले ही उसके तथ्यों में कुछ त्रुटि हो, या हम उससे सहमत न हों। क्योंकि उसने कुछ अनुभव किया होगा, कोई ‘बोध’ उसे हुआ होगा, तब उसने कोई बात कही है।’ अगर मुझे ठीक से याद है तो आजादी के बाद जो चुनाव हुए थे, उनमें से अजमेर क्षेत्र के चुनावों की एक रपट नायपॉल ने लिखी थी।

उसे पढ़कर मुझे लगा ‌था कि परिस्थितियों की, चरित्रों की, ‘राजनीति’ की कितनी गहरी समझ उनमें थी। उन्हें जब जो जैसा लगा है, उन्होंने कहा है। कैरीवियाई, डेरेक वॉल्काट को भी उन्हीं की तरह अनंतर नोबेल पुरस्कार मिला। युवा दिनों में ही कवि वाॅल्‍काट से उनकी जो कुछ मुलाकातें हुई थीं, उन्हें दर्ज करते हुए नायपॉल ने एक सुंदर संवेदनशील पीस लिखा है।

सो, व्यक्ति हों, या सभ्यताएं, या कथा-पात्र, या जगहें, या परिवार, या किताबें और लेखक या संस्‍थाएं-कब नायपॉल ने उनके बारे में लिखते हुए यह भान नहीं कराया कि आप एक ‘खरा’, कभी-कभी दो टूक ‘स्वर’ नहीं सुन रहे हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से द टर्न इन द साउथ नाम का यात्रा वृत्तांत इसीलिए बहुत अच्छा लगा था। रंगभेद को वहां, अमेरिका के दक्षिण में, नायपॉल ने एक बिलकुल अलग तरह से ‘देखा’ (बात लेखकीय दृष्टि की कर रहा हूं) और दर्ज किया है।

उनका कुछ भी पढ़िए, आप कभी निराश न होंगे। कुछ न कुछ मिलेगा। किसी भी लेखक-पाठक के लिए यह प्राप्ति ही क्या कम है!

(लेखक वरिष्ठ कवि, आलोचक और कला पारखी हैं)

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