साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार होने का आरोप झेल रही उत्तर प्रदेश की साढ़े चार साल पुरानी समाजवादी पार्टी की सरकार और संगठन दोनों के सामने बड़ा संकट है। विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं लेकिन पार्टी संगठन में उथल-पुथल मची हुई है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के मतभेद खत्म होने का नाम नहीं ले रहे। चुनावों की दहलीज पर खड़े उत्तर प्रदेश के प्राय: सभी दल मुख्यत: जब अपना मुकाबला सपा से मान रहे हैं, तब इस पार्टी की अंदरुनी खींचतान समाप्त करने के प्रयास भले ही तात्कालिक तौर पर कामयाब दिखाई पड़ रहे हों पर भविष्य की बड़ी चुनौतियों से पार्टी भी इनकार नहीं करती।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव के बीच उभरे विवादों को विरोधी दलों के नेता हवा देने में लगे हैं। सपा के पुराने और नए पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं के बीच विभाजक रेखा खींच गई है। पार्टी के युवा और फ्रंटल संगठन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के समर्थन में हैं। युवा संगठन के प्रतिनिधियों ने अखिलेश यादव के समर्थन में प्रदर्शन भी किया जिसका परिणाम यह हुआ कि विधान परिषद के सदस्य सुनील सिंह साजन, आनंद भदौरिया, संजय लाठर सहित कई युवा नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। यही नहीं, बड़ी संख्या में युवा कार्यकर्ताओं, जो कि विभिन्न पदों पर थे, ने भी इस्तीफा देना शुरू किया। हालत यह है कि पार्टी के बड़े और पुराने नेताओं को साधकर उन्हें युवाओं के साथ एकजुट करने के लिए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह को खुद मैदान में उतरना पड़ा। पार्टी पर उनकी मजबूत पकड़ बनी हुई है, यह एक बार फिर साबित हुआ। क्या युवा, क्या पुराने, क्या नए, सभी मुलायम के इशारे पर पार्टी के लिए एक बार फिर विवादों, संघर्ष का रास्ता छोडक़र एक मंच पर आने को सहमत हो गए। उनके प्रयासों से पार्टी, संगठन और सरकार फिर पटरी पर लौटते प्रतीत हो रहे हैं।
पिछले 27 साल से उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारों के दौर में 2012 के विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक साबित हुए। उन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने अपूर्व बहुमत के साथ जीत दर्ज की। तब राजनीति के अखाड़े में ‘बच्चे’- टीपू (घर का पुकारने का नाम) यानी अखिलेश यादव के करिश्मे को सभी ने माना। और, आज साढ़े चार साल बाद तमाम उथल-पुथल के बाद भी यह मौन सहमति उभरी है कि सपा के पास अखिलेश यादव का कोई विकल्प नहीं है। संभवत: यही वजह है कि मतभेदों को भुलाकर पार्टी के सभी धड़े एक बार फिर साथ आने को तैयार हुए।
सपा के इस सियासी संकट के केंद्र में सपा सुप्रीमो के छोटे भाई और कद्दावर मंत्री शिवपाल सिंह यादव के विभाग छीने जाने और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को पार्टी अध्यक्ष पद से मुक्त कर दिए जाने का मामला प्रमुख रहा। मुख्यमंत्री के चाचा शिवपाल की बगावत से बड़ा भूचाल आया। उन्होंने प्रदेश के मंत्री पद और प्रदेश के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। सपा सुप्रीमो की मौजूदगी में अपना त्यागपत्र सौंपते हुए शिवपाल ने 24 साल पहले सपा की स्थापना के समय से चला आ रहा अपना मजबूत रिश्ता एक बार में तोड़ लिया। सपा परिवार में छोटे-मोटे विवादों के बावजूद चाचा शिवपाल और उनकी पत्नी सरला यादव की छत्रछाया और परवरिश में पले-बढ़े अखिलेश यादव का चाचा से कभी बहुत बड़ा विवाद नहीं रहा। चाचा के इस्तीफे के साथ ही अखिलेश के चचेरे भाई आदित्य ने भी यू.पी. को ऑपरेटिव फेडरेशन के चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया।
वस्तुत: सपा में विवादों का नया सिलसिला राज्य सरकार के दो मंत्रियों राजकिशोर और गायत्री प्रजापति को हटाने के मुख्यमंत्री के निर्णय से शुरू हुआ। इसमें और भी घटनाक्रम जुड़ते चले गए। अखिलेश ने प्रदेश के मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटाकर उनकी जगह राहुल भटनागर को मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। इसके बाद अखिलेश यादव को पार्टी प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर सपा सुप्रीमो ने यह पद शिवपाल को सौंप दिया। उसी रात मुख्यमंत्री ने शिवपाल यादव से उनके प्रमुख विभाग पी.डब्ल्यू.डी. सहित सात विभाग वापस ले लिए। शिवपाल ने तत्काल पार्टी अध्यक्ष और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
इस पूरे विवाद पर मुख्यमंत्री अखिलेश की टिप्पणी थी, ‘सारा झगड़ा मुख्यमंत्री की उस कुर्सी का है, जिस पर मैं बैठा हूं। कोई अच्छा आदमी विकल्प के रूप में मिले तो मैं मुख्यमंत्री पद छोड़ सकता हूं।’ लेकिन मुख्यमंत्री के इस बयान के दूर तक के मायने निकाले गए। चाचा शिवपाल ने कहा, ‘मुझे मुख्यमंत्री पद की कोई ख्वाहिश नहीं है। चुनाव में बहुमत मिला तो अखिलेश को दुबारा मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव लाया जाएगा। अखिलेश मेरे बेटे की तरह हैं। अखिलेश को अक्ल से काम लेना चाहिए। उन्हें अनुभव की जरूरत है।’ चाचा और भतीजा के बीच जारी जंग के बीच सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने साफ कहा कि पार्टी संगठन और सरकार में कोई मतभेद है ही नहीं। अखिलेश को हमारी बात माननी ही पड़ेगी, टाल नहीं सकते। खैर अखिलेश ने पिता की बात मानी। लेकिन इसे झगड़े का अंत नहीं कहा जा सकता।
सपा में इस विवाद की जड़ को बाहरी लोगों की करतूत माना जा रहा है। मुलायम सिंह, अखिलेश, शिवपाल और इस प्रकरण के एक और सूत्रधार रामगोपाल यादव सभी मानते हैं कि बाहरी लोग पार्टी में फूट पैदा कर रहे हैं। संकेत आजम खां और अमर सिंह की ओर है, इन्हीं बाहरी में से एक अमर सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर चुनाव में ठाकुर वोटरों को लुभाने की मुलायम सिंह यादव की रणनीति कितनी कारगर होगी, यह समय बताएगा। मंत्री पद से हटाए गए गायत्री प्रजापति की वापसी, शिवपाल के सभी विभागों को वापस दिए जाने और अपने संकट के दौर के साथी अमर सिंह को सपा का राष्ट्रीय महासचिव बनाए जाने के बाद पार्टी में ‘रार’ फिलहाल थम गई है। समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह ही सुप्रीमो हैं और पार्टी में उन्हीं की चलती है।