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नुक्कड़ की डफली के बदले सुर-साज

कभी सामाजिक और राजनैतिक सरोकारों के प्रति जागरूक करने का जरिया रहे नुक्कड़ नाटक सरकारी संदेशों और मार्केटिंग का साधन बने
सरोकारः दिल्ली विश्वविद्यालय में एक नुक्कड़ नाटक का दृश्य

समाज या राजनीति के तेवर बदले तो रंगमंच की सबसे छोटी और फौरी संदेश पहुंचाने वाली विधा नुक्कड़ नाटकों के रंगढंग भी बदलने लगे। अब चुनावी राजनीति और नेताओं की छवि चमकाने और कॉरपोरेट मार्केटिंग की डफली भी नुक्कड़ों पर जोर से बोलने लगी है। इससे नुक्कड़ नाटकों को सामाजिक सरोकारों का संदेश पहुंचाने का माध्यम मानने वाले रंगकर्मियों में नई बहस छिड़ गई है। सवाल है ‌कि बदलते दौर की रवायत के मायने आखिर क्या हैं?  यह सही है कि मजलूमों और गरीबों की आवाज बने नुक्कड़ नाटकों का समय के सा‌थ रूप भी बदला है और इन्हें प्रदर्शित करने का ढंग भी और कभी महज सत्ता के विरोध में ही स्वर बुलंद करने वाले इन नाटकों में अब बाजार की पैठ भी बढ़ी है। अब ये सरकार और राजनैतिक पार्टियों के प्रचार-प्रसार का साधन भी बन गए हैं। वैसे, गंभीर नुक्कड़ नाटक टोलियों में नए सामाजिक मुद्दों की महक भी आई है। मसलन, नारी मुक्ति, थर्ड जेंडर के अधिकारों की लड़ाई लोगों में नई संवेदनाएं पैदा करती है।

हालांकि, बदलाव की इस बानगी को देखने का सबका अपना अलग-अलग नजरिया है, लेकिन अपनी लीक से हट कर इनके इस बदले स्वरूप में कुछ रंगकर्मियों को किसी खतरे का अंदेशा लग रहा है। ऐसे में इस आशंका को भी बल मिल रहा है कि कहीं बदलाव के लबादे में नुक्कड़ नाटकों को इनके असल रूप से न बिसरा दिया जाए।

ऐसे में कहीं न कहीं सियासी हाथों का खिलौना बन उनके प्रचार में लगे नुक्कड़ नाटक उस डर को बढ़ाते हैं कि बदलाव के बहाने कहीं इन्हें इनके असल मकसद और स्वरूप से भटका कर अलग रविश पर न ले जाया जाए। इस संबंध में प्रसिद्ध रंगकर्मी प्रवीण शेखर इनमें आ रहे बदलावों की बात करते हुए कहते हैं, “आज के नाटकों में बदलाव मकसद और विषय को लेकर है। पहले जहां नुक्कड़ नाटक मकसद या संदेश लिए हुए था, वह गायब होकर अब यह ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों का भोंपू बन गया है। कॉरपोरेट इनका इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में इसका सौंदर्य पक्ष गायब हुआ है। हालांकि, अभी भी दिल्ली के स्कूल-कॉलेजों और जननाट्य मंच आदि कुछ जगहों के नुक्कड़ नाटक उम्मीद बढ़ाते हैं।” ऐसे में कह सकते हैं कि यह नाटक अपने मकसद, सिद्धांत को लेकर अपना प्रभाव बनाए रखने में कामयाब रहेगा। यह सही है कि अब जो नाटक सत्ता की नीतियों के विरोध में होते हैं, उनके किए जाने पर या तो बैन लगा दिया जाता है या फिर रंगकर्मी खुद ही सत्ता के सीधे-सीधे विरोध से बचने के लिए इस तरह के नाटक नहीं करते। हालांकि, आज भी ऐसे कितने ही नाटक आम आदमी की समस्याओं को अभिनय में बांधते नजर आते हैं। हां, अब इनका स्वरूप विरोध का न रह कर ज्यादातर बिजली, पानी, ट्रैफिक जैसी छोटी-छोटी समस्याओं पर केंद्रित होकर रह गया है। या फिर महिलाओं से जुड़े मुद्दे इनमें जगह पा रहे हैं। वहीं, अब प्रचार के तौर पर इन नाटकों का इस्तेमाल जागरूकता फैलाने के लिए किया जा रहा है। फिर चाहे सरकार का स्वच्छता अभियान हो या फिर जच्चा-बच्चा स्वास्‍‌थ्य जैसे विषय, ग्रामीण और दुर्गम इलाकों तक लोगों को जागरूक करने के लिए यह साधन बन रहे हैं।

इन्हीं बदलावों की बात करते हुए राष्ट्रीय नाट्य‌ विद्यालय के पूर्व निदेशक देवेंद्र राज अंकुर कहते हैं, “जहां तक मैं नुक्कड़ नाटक को देखता हूं, बहुत सालों तक तो नुक्कड़ नाटक का एक जैसा ही स्वरूप हुआ करता था। एक जैसा कोरस, संगीत। इनका पहला स्वरूप तो यह रहा कि नुक्कड़ नाटक सरकार के तहत आयोजित कराए जा रहे थे। साक्षरता अभियान, परिवार नियोजन अभियान, बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ जैसे विषय को लेकर सरकार ने बहुत पैसे बांटने शुरू किए। इसका सकारात्मक पक्ष रहा कि लोगों को रोजी-रोटी मिलने लगी। मगर इससे नाटक एकरस होता चला गया। उसमें कोई बदलाव की गुंजाइश नहीं थी। लेकिन मैं समझता हूं कि सफदर हाशमी के जननाट्य मंच में जो नाटक हो रहे थे उनसे सबसे पहले इसमें बदलाव की शुरुआत हुई। दूसरे ‌जो कॉरपोरेट कंपनियां आ गईं और सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों के लिए भी नुक्कड़ नाटक का इस्तेमाल होना शुरू हुआ। तीसरा रूप ज्यादा अहम है और जिस पर लोगों का अब ध्यान जा रहा है। हमारे जमाने में कॉलेजों में नुक्कड़ नाटक नहीं होते थे, लेकिन आज कॉलेजों में नाटक छात्र कर रहे हैं और बच्चों, महिलाओं के शोषण, बेरोजगारी, समलैंगिकों के संबंध जैसे गहरे विषयों पर काम किया जा रहा है। हमारे यहां भारत रंग महोत्सव में तो जब मैं यहां का निदेशक था तब से ही नुक्कड़ नाटक का एक छोटा-सा समारोह भी आयोजित किया जाने लगा था। हमारी युवा पीढ़ी की कल्पना- शक्ति तेज है और वे पूरी रिसर्च करके इस पर मेहनत कर रहे हैं। यह सही है कि नब्बे के दशक में सफदर हाशमी, असगर वजाहत जैसे बड़े-बड़े लेखक नाटक लिख रहे थे, लेकिन अब बदलाव यह है कि ज्यादातर लोग खुद इनकी रचना कर रहे हैं।”

करीब पच्चीस वर्षों से आम लोगों में नुक्कड़ नाटक के जरिए जागरूकता फैला रहे ‘अस्मिता थियेटर ग्रुप’ के संस्‍थापक अरविंद गौड़ कहते हैं, “हम लोगों से पहले नुक्कड़ नाटक राजनीतिक नाटक हुआ करता था। जब हमने ‘अस्मिता’ के जरिए नुक्कड़ नाटक शुरू किए तो हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम किसी राजनीतिक पार्टी के एजेंडे पर काम करें या फिर अपनी सामाजिक, राजनीतिक जिम्मेदारियों को पूरा करें। मगर हमने निर्णय लिया कि हम सामाजिक मुद्दों के साथ राजनीतिक समझ को विकसित करने वाला काम करेंगे। आज लोगों में बदलाव आ रहा है। इसकी बानगी यह है कि करीब दस साल पहले जब हमने ‘दस्तक’ नाटक को करना शुरू किया था, तब हम इसे स्कूलों में नहीं कर सकते थे, क्योंकि उनका तर्क होता था कि यह नाटक हिंसा, बलात्कार को दिखाता है और इससे हमारे बच्चे बिगड़ जाएंगे। मगर लगातार संवाद और एक सतत प्रयास के बाद बदलाव सामने आया। एक बदलाव यह हुआ कि जहां पहले राजनीतिक विचारधारा के प्रचार और ट्रेड यूनियनों की ओर से नाटक होता था, वहीं ‘अस्मिता’ ने नुक्कड़ नाटक को सब वादों से निकाल कर इसे सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन बना दिया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो लड़ाई शुरू हुई उसका मुख्य आधार नुक्कड़ नाटक बना।”

निशांत नाट्य मंच के प्रो. शम्सुल इस्लाम कहते हैं, “नुक्कड़ नाटक का काम है समाज की जड़ता को तोड़ना और उसमें जागरूकता लाना। समाज में व्याप्त जड़ता को तोड़ने के लिए नुक्कड़ नाटक आंदोलन फैला और बेजुबानों की आवाज बना। नुक्कड़ नाटक आंदोलन भले खड़ा न कर पाएं हों, लेकिन ये उसके पीछे का आधार जरूर बनते रहे हैं।”

यही वजह है कि आजादी के बाद जब बुनियादी सवाल उठे थे और लोगों को लगा था कि रेडियो, अखबार जैसे संचार के संसाधन सब पैसे वालों के कब्जे में हैं तो नुक्कड़ नाटकों ने अलख जगाई। नुक्कड़ नाटक मजलूमों की आवाज बने। शम्सुल इस्लाम कहते हैं, “ फिर एक दौर में नुक्कड़ नाटक को सरकारी एकेडमी और कुछ फाउंडेशन के ‌जरिए भी गोद लेने की कोशिश की गई। यह इन नाटकों का ही प्रभाव था कि भाजपा, आरएसएस, एबीवीपी की भी नुक्कड़ नाटक टीमें वजूद में आईं, मगर चल नहीं पाईं। कोका कोला ने नुक्कड़ नाटक पर फाउंडेशन बनाया।” बहरहाल, अब बाजार की यह पहल आगे बढ़ चुकी है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष हैं। वैसे, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया भी नुक्कड़ नाटकों को फीका कर रहे हैं ।