रंगमंच से फिल्मों तक आदिल हुसैन ने दायरों को तोड़ा है, वे किसी इमेज में कैद होकर नहीं रहे हैं। यही वजह है कि उनका अभिनय भाषाओं के बंधनों को तोड़ता और सरहदों के पार गूंजता नजर आता है। हाल में उन्हें फिल्म 'वॉट विल पीपल से' के लिए नार्वे के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। इस पुरस्कार को पाने वाले वे पहले भारतीय अभिनेता हैं। उनसे रंगमंच, फिल्म, अभिनय समेत तमाम मुद्दों पर हुई नाज खान की बातचीत के अंशः
आपकी निगाह में थिएटर फिल्मों से कितना अलग है?
दरअसल, फिल्मों में ज्यादा समय नहीं होता, इसलिए सब कुछ जल्दी हो जाता है, लेकिन रंगमंच में दो-चार महीनों की रिहर्सल के दौरान हम अभिनय को गहराई से खोजते हैं। इसके बरअक्स फिल्मों में रिहर्सल नहीं होती। बस स्क्रिप्ट या तो आपको कुछ दिन पहले मिल जाएगी या फिर शूट के दिन ही पढ़ने को मिलती है। जो मौका मंच के कलाकार को किरदार की गहराई में जाने का मिलता है, वह फिल्मों में नहीं मिलता।
आज जितने भी रोल आपको मिल रहे हैं या अब तक जो आपने किरदार निभाए हैं, उनसे आपके अंदर का कलाकार संतुष्ट है?
सच कहूं तो पूरी तरह नहीं। रोल तो अच्छे खासे मिल रहे हैं मुझे, लेकिन मेरे अंदर का जो कलाकार है वह भूखा ही रहता है। अगर हर कलाकार को अपने किरदार को जीने का ज्यादा समय मिले तो वे और गहराई में जा सकते हैं। हालांकि, अच्छे अभिनेता हैं, तो वे हर किरदार को बेहतर तरीके से निभा लेते हैं। मगर मौका मिले तो वे और बेहतर कर सकते हैं। जहां तक कलाकार के संतुष्ट होने का सवाल है तो वह असंतुष्ट या भूखा तो मरते दम तक रहेगा।
इसकी क्या वजह समझते हैं कि आर्ट फिल्में पसंद तो की जाती हैं, पुरस्कृत होती हैं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरती हैं?
इसके बहुत सारे कारण हैं। जो आर्ट फिल्म के निर्माता हैं, उनके पास पैसा कम है और ऐसे में डिस्ट्रीब्यूटर उनकी फिल्म को खरीदने से हिचकिचाते हैं। उनकी मानसिकता रहती है कि अगर फिल्म में कोई बड़ा स्टार नहीं है, तो फिल्म चलेगी नहीं। बड़ी-बड़ी कंपनियां जो फिल्मों को डिस्ट्रीब्यूट करती हैं, उनके जो मार्केटिंग एक्सपर्ट हैं वह फैसला करते हैं कि कौन-सी फिल्म चलेगी और कौन-सी नहीं। दरअसल, अभी तक ज्यादातर लोग फिल्म को टूथपेस्ट या साबुन समझते हैं। उनको समझना चाहिए कि यह प्रोडक्ट ऑफ आर्ट है और हर फिल्म अलग-अलग होती है। वह कोई अलग-अलग कंपनी के साबुन नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर मराठी फिल्म सैराट एक छोटे बजट की फिल्म है, लेकिन उसको किसी ने इतनी अच्छी मार्केटिंग करके प्रदर्शित किया कि उसने अच्छी कमाई की। दरअसल, यह माइंड सेट की समस्या है हम लोग इस तरफ सोच ही नहीं पा रहे।
आपने ब्रिटिश, फ्रेंच समेत कई विदेशी फिल्में भी की हैं। बॉलीवुड के मुकाबले वहां काम करना कितना अलग रहा?
हर निर्देशक, प्रोडक्शन हाउस का अपना अलग-अलग तरीका होता है, लेकिन एक चीज जो मैं दोनों तरफ देखता हूं कि प्रतिभा का दोनों तरफ कोई अभाव नहीं है। भारतीयों में टैलेंट ठूंस-ठूंस कर भरा पड़ा है। हम पूरी दुनिया के लिए बेहतर से बेहतरीन फिल्म बना सकते हैं। हमारे यहां ऐसी फिल्में बननी चाहिए जो सिर्फ हिंदी, दक्षिण भारतीय, असमिया या मराठी दर्शकों के लिए ही नहीं हों, वह पूरे विश्व के लिए हों। जैसे अनुराग कश्यप हैं या विक्रम आदित्य मोटवानी हैं, इनकी फिल्मों में कुछ अलग नजर आ रहा है। जैसे-मसान है, लंच बॉक्स है। ये कुछ अलग फिल्में हैं। दरअसल, इन्हें बनाने वाले पूरी दुनिया की फिल्में देख चुके हैं। सच यह है कि हमारे यहां फिल्म बनाने का जो क्राफ्ट है उसको लेकर ज्यादा काम नहीं होता। लोगों में सीखने की मानसिकता कम है। हमारे यहां एक चीज है कि चलता है, चल जाएगा। यह नजरिया कहां से आया पता नहीं, इसे बदलना होगा।
बॉलीवुड में आज भाई-भतीजावाद हावी है और खान तिकड़ी जैसे गुट भी हैं। ऐसे में आपके लिए यहां टिके रहना कितना आसान है, आप भी किसी गुट से जुड़े हुए हैं?
मेरा कोई गुट नहीं है। जो भी बुलाता है मैं चला जाता हूं। एक बार जब आप किसी के साथ काम कर चुके होते हैं तो आपके ताल्लुकात बन जाते हैं। यह तो ताल्लुकात पर आधारित है। हालांकि, यहां भाई-भतीजावाद को नकारना इतना आसान नहीं है। लेकिन यह चीज अलग है कि अगर मैं अभिनय कर रहा हूं और मेरा बेटा भी अभिनय करे तो यह किसी तरह का भाई-भतीजावाद नहीं है, लेकिन अगर मेरा बेटा अच्छी एक्टिंग नहीं करता है और इसके बावजूद मैं उसकी सिफारिश करता हूं तब यह भाई-भतीजावाद है। कोई अच्छी एक्टिंग नहीं कर रहा और इसके बावजूद फिल्मों पर फिल्में कर रहा है, तब यह भाई-भतीजावाद होता है। वैसे, अगर आपका काम बोलता है और आप अहंकारी नहीं हो तो आपके साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं आती।
ऐसा कोई किरदार जिसे करने के लिए दूसरे किरदार के मुकाबले कहीं ज्यादा तैयारी करनी पड़ी हो, मुश्किल लगा हो?
फिल्म अरुणोदय के किरदार का जो दर्द है, उसे मैं किस तरह चेहरे पर लाऊं, यह ज्यादा मुश्किल लगा। एक तरफ अपनी बेटी को न खोज पाने में नाकाम बाप की मर्दानगी को आघात लगता है, दूसरी ओर एक नाकाम पुलिस वाला है। ऐसे में नाकामी और एक बाप का जो दर्द है इन दोनों भावों को एक साथ चेहरे पर लाना काफी मुश्किल था।