प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालते हुए शपथ तो धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुसार काम करने और उसका संरक्षण करने की ली थी, लेकिन उनके कारनामे इसके ठीक विपरीत रहे हैं। मीडिया और नौकरशाही को सरकार और पार्टी का चाकर बनाकर लगातार अल्पसंख्यकों-विशेषकर मुस्लिम और ईसाई समुदाय तथा धर्मनिरपेक्ष लेखकों, बुद्धिजीवियों और अन्य संस्कृतिकर्मियों पर हमले किए जाते रहे हैं और वे बढ़ते ही जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा की कथनी और करनी में कोई रिश्ता नहीं है। वे बातें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वधर्म समभाव’ की करते हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय की देशभक्ति पर हमेशा सवालिया निशान लगाते रहते हैं और उसे पाकिस्तानपरस्त सिद्ध करने की हरचंद कोशिश करते हैं। मुस्लिम-विरोध उनका स्थायी भाव है।
पिछले वर्ष की तरह ही इस वर्ष भी मध्य प्रदेश सरकार ने सभी मदरसों को आदेश दिया कि वे स्वाधीनता दिवस पर तिरंगा रैली निकालें और प्रमाणस्वरूप उनकी वीडियो रिकॉर्डिंग भेजें, लेकिन ऐसा आदेश सिर्फ मदरसों को ही दिया गया, सभी स्कूलों को नहीं। स्पष्ट है कि सरकार की निगाह में मदरसों में पढ़ने और पढ़ाने वालों की देशभक्ति संदिग्ध है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही आदेश जारी किया गया था। उत्तर प्रदेश में मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलने के बाद अब राजस्थान में मियां का बाड़ा महेश नगर कहलाएगा और इस्माइल खुर्द का नाम पिछनवा खुर्द हो गया है। गोरक्षक गुंडावाहिनियां कानून अपने हाथ में लेकर मुस्लिम मवेशी पालने वालों और उनका व्यापार करने वालों को राह चलते पकड़ कर पीटती हैं और अक्सर उनकी ह्त्या कर देती हैं। जेएनयू के छात्र उमर खालिद के खिलाफ इतना जहर उगला गया कि अब उसे देशद्रोही मान लिया गया है। कुछ ही दिन पहले उमर पर राजधानी में संसद भवन के निकट जानलेवा हमला किया गया जिसमें वह सौभाग्य से बाल-बाल बचा। बच्चों की जान बचाने वाले डॉक्टर कफील और अमरनाथ यात्रियों की जान बचाने वाले ड्राइवर सलीम को पुरस्कार मिलने के बजाय जेल मिलती है। क्या यही सबका साथ है?
भाजपा के मातृसंगठन संघ ने तो देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन अनेक मुस्लिम देशभक्तों ने लिया था। यह भी पूर्णतः प्रमाणित ऐतिहासिक तथ्य है कि द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की आधारशिला इकबाल और मुहम्मद अली जिन्ना से बहुत पहले हिंदू हितों की रक्षा में लगे नेताओं ने स्थापित की थी। श्री अरविंद के नाना राजनारायण बसु (1826-1899) और उनके निकट सहयोगी नवगोपाल मित्र (1840-1894) ने उन्नीसवीं शताब्दी में ही इस सिद्धांत की नींव रख दी थी। प्रसिद्ध दक्षिणपंथी इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ‘नवगोपाल ने दो राष्ट्रों के जिन्ना वाले सिद्धांत को पचास वर्ष से भी अधिक पहले प्रतिपादित कर दिया था।’ लाला लाजपतराय और विनायक दामोदर सावरकर ने भी जिन्ना से अनेक वर्ष पहले इस सिद्धांत को अपनी स्वीकृति दे दी थी। इसलिए हिंदुओं और मुसलमानों को दो पृथक राष्ट्र समझने का सिलसिला जिन्ना के 1940 के भाषण से काफी पहले शुरू हो चुका था।
उधर शिबली नोमानी जैसे लोग थे जिन्होंने 1883 में आजमगढ़ में राष्ट्रीय स्कूल की स्थापना की और अपने जीवन के अंतिम दिनों में अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग और हिंदुओं का विरोध करने की मुस्लिम लीग की नीति का खुलकर विरोध किया। जिन्ना के लीग में शामिल होने के एक वर्ष बाद उनकी मृत्यु हुई। यह दुष्प्रचार भी सही नहीं है कि मुस्लिम अवाम ने देश के विभाजन का समर्थन किया। लोग भूल जाते हैं कि 1935 के कानून ने किसी व्यक्ति की टैक्स अदा करने की क्षमता, संपत्ति और शैक्षिक योग्यता के आधार पर वोट देने का अधिकार दिया था। यह अधिकार आम गरीब मुसलमान को हासिल नहीं था। 1946 में हुए विधानसभा चुनावों में जिन्ना और मुस्लिम लीग की जीत कुल वयस्क मुस्लिम आबादी के मात्र 28.5 प्रतिशत वोटों के आधार पर हुई थी। सभी जानते हैं कि खान अब्दुल गफ्फार खान, एम.ए. अंसारी, आसफ अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे अनेक मुस्लिम नेता मुस्लिम लीग की राजनीति और विभाजन के खिलाफ थे।
सबसे दिलचस्प केस सिंध के प्रधानमंत्री अल्लाह बख्श का है। जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल ने भारत के स्वाधीनता संघर्ष और ‘भारत छोड़ाे’ आंदोलन के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की तो अल्लाह बख्श ने विरोधस्वरूप खान बहादुर और 'ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर' के खिताब लौटाने का फैसला किया और बदले में बर्खास्तगी झेली। बाद में उन्हें मुस्लिम लीग के समर्थकों द्वारा कत्ल कर दिया गया। अशफाकउल्ला खां जैसे क्रांतिकारियों का नाम कौन नहीं जानता और किसे नहीं मालूम कि काबुल में जब राजा महेंद्र प्रताप ने स्वाधीन भारत की पहली निर्वासित सरकार बनायी तो उसमें वे राष्ट्रपति थे और प्रधानमंत्री, गृह मंत्री दो मुस्लिम क्रांतिकारी थे। लेकिन आज ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा लगाने वाली भाजपा सरकारें मुस्लिम समुदाय से उसकी देशभक्ति का प्रमाण मांग रही हैं। यह भारतीय समाज को बांटने की और संविधान की जड़ों में मट्ठा डालने की साजिश के अलावा और कुछ नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)