विश्व में भारत ऐसा देश रहा है जहां हमेशा से ही बुद्धिजीवी महिलाओं की संख्या अधिक रही है परंतु जो समय मैंने जिया है उसको नजर में रखते हुए औरत के बदलते स्वरूप के विभिन्न आयामों के बारे में अपनी बातें रखना चाहूंगी, जो कुछ इस तरह हैं।
स्वंतत्रता से पहले का वह दौर जब समाज की जकड़न और परिवार की नापसंदगी के बावजूद औरतों ने कदम बाहर निकाला। स्वतंत्रता संग्राम में भी उनकी महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। इस रूप में भी कि वे घर के मर्दों के शहीद होने, जेल जाने में आड़े नहीं आईं, न अपना मनोबल कम किया, न उन्हें रोका। स्वतंत्रता मिलने के बाद ऐसी सशक्त महिलाओं की आकाशगंगा नजर आने लगी, जिन्हें देश की पहली डॉक्टर, इंजीनियर, पायलेट, राजनेता, वकील बनने का गर्व प्राप्त हुआ। बिना किसी समर्थन, विमर्श के उनकी स्वयं की प्रतिभा, जिजीविषा उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने में सहायक बनी।
उनके इस तेवर और त्याग ने बाद में आने वाली स्त्रियों के लिए राह आसान बनाई। यह दौर ऐसी जागृति का था जिसमें शिक्षा फैल रही थी। औरतें विभिन्न कार्यक्षेत्रों में बड़ी संख्या में नजर आने लगी थीं। यदि आज का मुहावरा उधार लूं तो यह स्त्री विमर्श का पहला अध्याय था, जिस पर मोटे अक्षरों से दर्ज था, ‘हमें घर की घुटन नहीं, बाहर की ताजा हवा चाहिए।’ इस जुनूनी लगन में बड़े पैमाने पर महिलाएं आजीवन कुंवारी रह गईं या फिर अरसे तक यही एक धुन बजती रही थी कि बरसों से हमारे अंदर दबे-छुपे गुणों को बाहर आने दो।
स्वतंत्र भारत में जिस पीढ़ी ने जन्म लिया था, उसमें अधिकांश के माता-पिता शिक्षित एवं नौकरीपेशा थे। गांव और शहर से उनका नाता पूरी तरह टूटा न था मगर संयुक्त परिवार एकल परिवार में जरूर बदल रहे थे, जहां रिश्तों का विस्तार सिकुड़ने की तरफ बढ़ रहा था। ‘हम दो हमारे दो’ के नारे गूंज रहे थे। औरत के स्वास्थ्य और विकास पर सरकारी योजनाएं बननी शुरू हो गई थीं। नई पीढ़ी में मां-बाप जैसा नए और पुराने को लेकर चलने वाला संतुलन नहीं बचा था। उनकी यादों से गांव और दादा-दादी, नाना-नानी की यादें तेजी से धुंधली पड़ती जा रही थीं। जागरूक मां-बाप घर में लड़कियों का पालन-पोषण लड़कों की तरह कर रहे थे। लड़कियों ने जब शिक्षित मां से प्रेरित हो विवाहित जीवन में प्रवेश किया तो उनके मन-मस्तिष्क पर उनकी मांएं हावी थीं। उन्हें लगा कि मां की तरह वह सहेंगी नहीं। वह कमाने के बावजूद स्वामी और सेवक का जीवन नहीं जिएंगी। इसलिए मर्द को कंधे से कंधा मिलाकर उनके घर के कामों और बच्चों के लालन-पालन में हाथ बटाना होगा। यह स्त्री विमर्श का दूसरा अध्याय था। जिस पर मोटे हर्फों में लिखा था कि उन्हें घर और बाहर दोनों की दुनिया चाहिए और पति-पत्नी के रिश्ते में मानवीय स्तर पर बराबरी।
महिला चेतना का यह दौर विचित्र टकराहटों से गुजर रहा था। औरत ने घर-बाहर की खुशियां समेटने का प्रण ले लिया था। मेरा उपन्यास शाल्मली अपनी मेहनत और पहचान का घर हासिल कर चुका था। ठीकरे की मंगनी की महरूख की तरह स्त्री सुशिक्षित हो खुद कमा रही थी। वह अपना सहारा खुद बन चुकी थी। उसे अत्याचार सहने, खामोश रहने और शोषित होने का कोई तर्क समझ में नहीं आ रहा था। उसने अपने संघर्ष और लगन से समाज में एक सम्मानित ओहदा पा लिया था। इसके बावजूद उसके अंदर मर्द के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ था। मगर अपमानित होकर उसे मर्द का साथ मंजूर न था। यह आज के स्त्री विमर्श का तीसरा अध्याय था जिस पर साफ शब्दों में लिखा था-शादी के बंधन से ज्यादा अब औरत के लिए अपनी आजादी का महत्व है। इसलिए बिना विवाह के 'लिविंग टुगेदर' एक विशेष सोच वालों के बीच रिवाज बन गया।
यह वह दौर था जब बौद्धिक क्षमता एवं खुले विचारों का बोलबाला था। साहित्य, कला, ड्रामा, फिल्में एक सेहतमंद बदलाव की वकालत करती नजर आ रही थीं। विदेश में 'वीमेन लिब' का ज्वार, भाटे में बदल चुका था जिसकी कोई सुनगुन भारतीय समाज में नहीं थी। सब कुछ सहज रूप से चल रहा था। औरत के पक्ष में जो संस्थाएं वजूद में आई थीं वह अपने अति के कारण घर तोडू मानी जाने लगीं और धीरे-धीरे बेदम हो कर महिला आयोग में बदल गईं। कॉलेजों और विद्यालयों में 'वीमन स्टडी' खुले और हिंदी की दुनिया में अचानक आज का महत्वपूर्ण मुहावरा स्त्री विमर्श वजूद में आ गया। उसकी गूंज साहित्य में कुछ इस तरह फैली जैसे पीड़ित एवं शोषित वर्ग के लिए कभी न लेखकों ने कुछ लिखा और न कुछ सोचा। उत्कृष्ट कहानियों और उपन्यासों से हट कर एक अलग तरह की रचनात्मकता का बोलबाला हो गया और उसमें देह विमर्श केंद्रीय भूमिका में आ गया। साथ ही पितृसत्तात्मकता की थीसिस वाले नए लेखकों की पीठ ठोकी जाने लगी। मगर अफसोस इन दशकों में दूसरा सआदत हसन मंटो न पैदा हो सका।
इन चार अध्यायों के दौर में समाज सुधार, समाज सेवा, जड़ मान्यताओं का विरोध, पीड़ित-शोषित वर्ग का उत्थान, स्त्रियों का विकास आदि विषयों पर जम कर काम हुए। थोड़ा बहुत बिखराव भी आया, मगर जो मुखरता सीमित थी वह ‘हर मुंह में जबान है’ जैसी कहावत में ढल गई। लेखकों का सैलाब आ गया, कला पीछे छूट गई और दुखड़े शुरू हो गए जिनका निशाना पुरुष रहा। इस दौर में अपवाद को छोड़कर पुरुष विरोधी गद्य वजूद में आया। विश्व स्तर पर खनिजों के दोहन के चलते युद्ध, जगह-जगह होते चले आ रहे हैं। उसमें एक नया रणक्षेत्र औरत-मर्द के आपसी जंग का वजूद में आ गया, जो विश्व स्तर की लड़ाइयों से बिलकुल अलग धरातल पर लड़ा जा रहा था। इसमें क्लस्टर बमों का प्रयोग दूसरे मुल्कों पर करने की जगह कलम से अपने मर्द वर्ग के व्यक्तित्व पर चीरा लगाया जाने लगा। इन दोनों तरह की लड़ाइयों में एक बात साझा थी, वह थी अपने नजरिए से दूसरे को देखना और अपनी इच्छाओं को दूसरों पर लादना, बिना अपने तौर तरीकों को जांचे-परखे हुए। समय को जब मैं यूं गुजरते देखती हूं तो सोच में पड़ जाती हूं कि एक लेखक क्या बिना ‘वाद’ या ‘विमर्श’ के अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति को कमतर आंकने लगा है या केवल यही सोच रहा है कि वह कैसे अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करे? क्या वह खुली आंखों से समाज की उन सच्चाइयों को नहीं देख पा रहा है जहां औरत-मर्द दोनों शोषित हैं? क्या अपने तक सीमित रहने वालों को यह नजर नहीं आ रहा है कि मर्दों ने कब और कहां औरतों का पक्ष लिया। हर मर्द बलात्कारी, तेजाब फेंकने वाला अपराधी प्रेमी नहीं होता है। वह नाकाम और बेचारा भी होता है।
मेरे बचपन के मासूम दिल और दिमाग में राजा राममोहन राय का नाम अंकित हो गया था जब उन्होंने बहन को घर में नहीं पाया जो सती हो चुकी थीं। उस दर्द को महसूस करके ही उन्होंने सतीप्रथा का कड़ा विरोध किया था। उसके बाद कोर्स में उर्दू के पहले उपन्यासकार नजीर अहमद के लिखे दो चरित्र अकबरी और असगरी को पढ़ा और मर्द के नजरिए को जाना कि वह औरत को किस हमदर्दी से देखता है और उसके विकास के प्रति कितना जागरूक है और इसी प्रकार समय-समय पर पुरुषों द्वारा किए गए अनगिनत बेहतरीन योगदान में सुलभ शौचालय वाले बिंदेश्वरी पाठक का नाम उभरता है। बिना सरकारी सहायता और प्रचार के अंदर की ललक के चलते समस्त मेहतर वर्ग को मुक्त कराया। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे किस्से-कहानियों में यह चरित्र अंकित हुए हैं। फिल्म पैडमैन का जिक्र करना चाहूंगी जिस पैड का प्रचार बाजार में नई-नई कंपनियां करती हैं पैसा कमाने के लिए, उस पर फिल्म बना कर उसकी गंभीरता को दूर तक पहुंचाने का काम भी मर्दों द्वारा ही अंजाम पाया है। इसके तीन-चार संवाद औरतों के प्रति एक पुरुष के मुंह से सुनना बेहद महत्वपूर्ण ‘सामाजिक विमर्श’ है। इस फिल्म के अलावा कुछ वर्षों पहले एक लेख पढ़ा था नाम याद नहीं, जिसमें ऐसे व्यक्ति का जिक्र था जो अपने पैसों से घर-घर पैड बांटता था ताकि औरतें बीमारियों से बची रहें। यह ‘जीवन विमर्श’ वास्तव में मानवीय सरोकार है जो इंसानों की सोच को खानों में बांट कर उनके बीच अलगाव की दीवारें नहीं उठाता है। औरत एक इंसान की तरह अपनी समझ के अनुसार अपने परिवेश को देखती-समझती और आंकती है। जीवन के प्रति उसका अपना नजरिया और अनुभव होता है। खास कर तब जब वह सृजन से जुड़ी हो। उसकी संवेदना और चेतना कई गुना बढ़ जाती है। वह मर्द-औरत की बहस से उठकर मानवीय व्यथा एवं सरोकारों से जुड़ जाती है। इस सच्चाई के कारण ही राजेन्द्र सिंह बेदी के उपन्यास एक चादर मैली सी की रानो, मैक्सिम गोर्की के उपन्यास मां की मां और बोरिस पास्तरनाक के डॉक्टर जिवागो की लारा शताब्दियां गुजर जाने के बाद भी जिंदा हैं क्योंकि उसमें एक इंसान की व्यथा बोलती है। डॉक्टर जिवागो का चरित्र भी वही सच अपने में रखे है जो टैगोर की कहानी काबुली वाला का पठान। पठान के साथ मिनी भी है और उसकी अदृश्य लड़की की जुदाई का दर्द भी है।
साहित्य एवं कला न विमर्शों की बैसाखियों से चलती है और न ही एकतरफा दृष्टिकोण से। यदि विमर्श करना है तो साहित्य की जगह उन इलाकों में जाकर उन औरतों (मर्दों) के बंधन काटने होंगे जो सामाजिक व्यवस्था और पारिवारिक जकड़न की कैदी हैं, जहां पितृसत्ता नहीं बल्कि मातृसत्ता भी उनका शोषण कर रही है। इससे होगा कि कला व साहित्य में जीवन का असली चेहरा उभरेगा और विमर्शों की असली जमीन पर सार्थक काम होगा क्योंकि जिनकी कहानियां हम लिखते हैं, पढ़ते हैं
आपस में वाहवाही ले लेते हैं और स्त्री विमर्श का हमारा दायित्व पूरा हो जाता है। मेरे इस विचार से मेरे असंख्य लेखक साथी सहमत होंगे कि सृजनकर्ता समय की धड़कन पर उंगली जरूर रखें, मगर विमर्श के चौखटे पर उसे न कसें।
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हैं)