केवल सितंबर महीने में ही दिल्ली में सीवर साफ करते हुए छह सफाई कर्मचारियों की मृत्यु हो चुकी है। ये सभी मल-मूत्र और कीचड़ से भरे नालों में बिना हिफाजती उपकरण के उतरते हैं और हाथ से सफाई करते हैं। बंद नालों में मौजूद गैस इनके लिए प्राणघातक सिद्ध होती है। ये सभी सफाई कर्मचारी दलित वर्ग के होते हैं। ऊंची जाति का कोई भी व्यक्ति ऐसा काम करने की सोच भी नहीं सकता। आजादी मिलने के सात दशक बाद भी यह स्थिति है। सबसे भयावह बात यह है कि इसे बदलने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में कोई इच्छाशक्ति नजर नहीं आती। यह उस देश में हो रहा है जिसके प्रधानमंत्री ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के लिए कई साल से वाहवाही बटोरने में लगे हैं, जिस देश में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा मिला हुआ है और जहां उनके हिंदुत्ववादी विरोधी भी गांधी नाम का मंत्र जाप करने के लिए बाध्य हैं।
संविधान ने अस्पृश्यता और छुआछूत को गैर-कानूनी और दंड योग्य अपराध माना है लेकिन संविधान के प्रावधान कागज पर ही धरे रह गए हैं। देश के विभिन्न भागों से लगातार दलित उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। पिछले चार साल से इन घटनाओं में अभूतपूर्व ढंग से वृद्धि हुई है। दलितों और आदिवासियों के पक्ष में आवाज उठाने वालों को अब अक्सर नक्सली और माओवादी बताकर जेलों में सड़ने के लिए डाल दिया जाता है। एक ओर सत्ताधारी हिंदुत्ववादी महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करते हैं और उनके जमीनी स्तर के कार्यकर्ता गांधी के खिलाफ लगातार जहर उगलते हैं, तो दूसरी ओर उनके राष्ट्रीय स्तर के नेता उन्हें अपने भीतर समाहित करने और उनका सम्मान करने का ढोंग करते रहते हैं। इस 2 अक्टूबर से अगले वर्ष के 2 अक्टूबर तक महात्मा गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मनाने के लिए एक-वर्षीय कार्यक्रम शुरू हो जाएगा। सरकारी स्तर पर भी बहुत-से कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि राष्ट्रपिता के विचारों, जीवन-मूल्यों और आदर्शों की किस तरह से लगातार अनदेखी की गई है और की जा रही है? दलितों के प्रति व्यापक समाज, प्रशासन, पुलिस और राजनीतिक वर्ग का रवैया कैसा है? क्यों डिजिटल युग में प्रवेश करने को लेकर इठलाने वाले देश की सरकारें आज तक केवल दलितों को ही सफाई कर्मचारियों के रूप में नियुक्त करती हैं और क्यों उनके इस काम के लिए विकसित देशों में इस्तेमाल होने वाले तकनीकी उपकरणों का सहारा नहीं लिया जाता?
ऊपर से देखने पर लगता है कि यह आंबेडकर का युग है, गांधी का नहीं क्योंकि अधिकांश दलित आंदोलनकारी गांधी के विरोधी और आंबेडकर के अनुयायी हैं। लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि गांधीवादी विचारधारा दलितों का वास्तविक उत्थान नहीं कर पाई तो क्या आंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर हुए आंदोलन इस काम में सफलता प्राप्त कर पाए हैं? क्या अब समय नहीं आ गया कि गांधी और आंबेडकर के विचारों के बीच साम्य और संतुलन बिठाने की कोशिश की जाए, भले ही दोनों महापुरुष अपने जीवनकाल में अधिकांशतः असहमत ही रहे हों? जब हिंदुत्ववादी संघ इन दोनों के विचारों के साथ समरसता पैदा करना चाहता है, भले ही दिखावे के लिए ही सही तो फिर गांधीवादी और आंबेडकरवादी एक-दूसरे को समझने और साथ-साथ चलने के लिए राजी क्यों नहीं हो सकते?
गांधी और भीमराव आंबेडकर के आदर्शों में कोई अंतर था? क्या दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित नहीं थे? ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले स्वाधीनता आंदोलन के विशिष्ट संदर्भ में उनके बीच उभरे मतभेद क्या आज के बदले हुए संदर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं जितने वे आज से आठ-नौ दशक पहले थे? संभवतः नहीं।
1920 और 1930 के दशक में गांधी ने अस्पृश्यता के खिलाफ बेहद भावपूर्ण और सशक्त लेख लिखे और उसे हिंदू समाज पर लगा कलंक बताया। यही नहीं, उन्होंने आंबेडकर के बारे में एक बार यहां तक लिख दिया, “उन्हें, बल्कि सभी अछूतों को, मुझ पर थूकने का पूरा हक है। और यदि उन्होंने ऐसा किया, तो भी मैं मुस्कुराता हुआ खड़ा रहूंगा।” ‘हरिजनोत्थान करने वाले हम कौन हैं?’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा, “हम उनके ऋण से तभी उऋण हो सकते हैं और उनके खिलाफ किए गए पापों का तभी प्रायश्चित कर सकते हैं जब हम उनके खिलाफ लंबे-चौड़े उत्तेजक भाषण झाड़ने के बजाय उन्हें समाज के बराबरी के सदस्य के रूप में अंगीकार करें।” उन्होंने यह भी लिखा कि “हिंदू समाज के खिलाफ आंबेडकर के गुस्से को वह भली-भांति समझते हैं क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में उनके शुरुआती दिनों के दौरान यूरोपियन लोग भी हर समय उन्हें खदेड़े रहते थे।”
दरअसल, गांधी और आंबेडकर की विश्वदृष्टि और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की समझ में बुनियादी अंतर था। भले ही इसे अव्यावहारिक आदर्शवाद माना जाए, लेकिन गांधी का समूचा जोर मनुष्य को बदलने पर था क्योंकि उन्हें पता था कि मनुष्य में जब तक भीतरी बदलाव नहीं होगा तब तक सामाजिक बदलाव भी संभव नहीं है। दूसरी ओर आंबेडकर बहुत कुछ संविधानवादियों की परंपरा में थे और सबसे पहले कानून और शासनतंत्र में परिवर्तन चाहते थे ताकि अछूतों और दलितों को उनके जायज अधिकार प्राप्त हो सकें और उनके लिए समाज में सम्मान के साथ जीने की स्थितियां पैदा हों। दोनों के लक्ष्यों में बहुत अधिक अंतर नहीं था लेकिन उन्हें पाने के तरीकों के बारे में बुनियादी मतभेद थे। आंबेडकर चाहते थे कि दलित अपने अधिकार स्वयं लड़कर प्राप्त करें, किसी की कृपा के कारण उन्हें उनके अधिकार और समाज में समानता का दर्जा न मिले। क्योंकि स्वयं अपने अधिकार प्राप्त करने पर ही दलितों में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास आ सकता है।
शासक वर्ग की विचारधारा अक्सर शासित वर्ग को भी अपनी गिरफ्त में ले लेती है। सवर्ण तो दलितों को हीन मानते ही थे, उनके प्रभाव में दलित भी अपने को हीन ही समझने लगे थे और आंबेडकर के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनके भीतर आत्मसम्मान और आत्मविश्वास जगाने की थी। फिर, उन्होंने स्वयं दलित होने के दंश को झेला था और कदम-कदम पर अपमान, उपेक्षा और सक्रिय विरोध का सामना किया था। इसलिए दलित समस्या पर उनके और गांधी के विचारों में भिन्नता स्वाभाविक थी। लेकिन दोनों के बीच जिस तरह का विरोध पनपा, उसके लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उसके खिलाफ चल रहे स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि ही मुख्यतः जिम्मेदार थी। जहां गांधी का प्रथम लक्ष्य अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाना और भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र बनाना था, वहीं आंबेडकर का प्रथम लक्ष्य दलितों को सवर्ण हिंदुओं की गुलामी से मुक्ति दिलाना और अपने पैरों पर खड़ा करना था। दोनों के बीच पहली बार कटुता लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के समय प्रकट हुई। गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के शीर्ष नेता थे लेकिन इस सम्मेलन में आमंत्रित 56 प्रतिनिधियों के बीच उनकी हैसियत और आवाज केवल एक प्रतिनिधि की थी। आंबेडकर ब्रिटिश सरकार द्वारा नामजद प्रतिनिधि थे। इस सम्मेलन में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे जिन दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ब्रिटिश शासन की समाप्ति की कोई जल्दी नहीं है और न उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित किए जाने के लिए कोई आंदोलन ही छेड़ा है। यही नहीं, उन्हें यह मानने में भी आपत्ति थी कि गांधी राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वमान्य नेता के रूप में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही आंबेडकर भी गांधी को केवल हिंदू, बल्कि सवर्ण हिंदू नेता ही मानते थे। जिन्ना की तरह ही वह भी गांधी को हमेशा मिस्टर गांधी कहते रहे।
आज 2018 में जब देश गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मना रहे हैं, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दलित समस्या पर आज गांधी का दृष्टिकोण अधिक प्रासंगिक है या आंबेडकर का? मेरा निजी विचार यह है कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों को आज मिलाकर चलने की जरूरत है। गांधी की यह मान्यता कि मनुष्य के भीतर बदलाव लाए बिना समाज में बदलाव नहीं लाया जा सकता, आज सही सिद्ध हो रही है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों के बावजूद आज भी देश में दलितों की हालत बेहद खराब है, क्योंकि सवर्णों का उनके प्रति हिकारत का रवैया नहीं बदला है और आज भी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने पर गांव में हिंसा हो जाती है। यह भी सच है कि दलितों को कानून का संरक्षण दिया जाना अनिवार्य है, वरना उन पर अत्याचार करने वालों को मनमानी करने से रोकने के लिए कानून का सहारा भी नहीं रहेगा। दलितों के खिलाफ उत्पीड़न संबंधी कानून के प्रावधानों को नर्म बनाने पर छिड़ी बहस इसका ताजातरीन उदाहरण है। आंबेडकरवाद और गांधीवाद आज एक-दूसरे के पूरक अधिक हैं, विरोधी कम।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)