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बदलाव के लिए नहीं कोई बेचैनी

मौजूदा और भविष्य के शासकों से राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन की उम्मीद नहीं
गांधी का समाज एक-दूसरे से टकराने वाला नहीं, एक-दूसरे में मिलने वाला समाज है

गांधी की 150वीं जयंती पर उन्हें दुनिया भर में कई तरीकों से याद करने की कोशिशें हो रही हैं। संयुक्त राष्ट्र दो अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस के तौर पर मनाता है। यानी परिस्थिति के दबाव ने दुनिया के लोगों और संगठनों को उस जगह पहुंचा दिया कि वह अहिंसा की तरफ मुखातिब हों, अहिंसा की तरफ बढ़ें। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री ने गांधी की दृष्टि को चश्मे और झाड़ू में सीमित कर दिया। गांधी के विचारों के प्रति आस्था रखने वाले एक व्यक्ति के तौर पर मेरा मानना है कि जब तक देश में गटर में उतरकर सफाई करने और मरने की स्थिति बनी हुई है तब तक इसे गांधी का स्वच्छता अभियान नहीं माना जा सकता।

गांधी ने छुआछूत खत्म करने और सफाईकर्मियों के उद्धार के लिए काफी काम किए, कई कार्यक्रम दिए थे। छुआछूत को उन्होंने भारतीयों के माथे का कलंक कहा था। आज छुआछूत काफी कम हो चुकी है, खासकर शहरों में, क्योंकि शहरी समाज की अब कोई खास जातीय पहचान नहीं रही। लेकिन, जब तक हम अपने सफाईकर्मियों को इज्जत की जिंदगी और उन्हें सफाई के लिए आधुनिक तथा वैज्ञानिक साधन उपलब्ध कराने में कामयाब नहीं होते यह कलंक समाप्त नहीं होगा।

असल में, सरकारें जैसा समाज चाहती हैं, वैसी ही योजना बनाती हैं। विकास हर सरकार का नारा होता है। लेकिन विकास का मतलब क्या है? मुट्ठी भर लोगों का विकास या गांधी ने जो कहा था कि अंतिम आदमी विकास की कसौटी होगा। उन्होंने कहा था कि यदि मैं अकेला भी रहूंगा तो चिल्ला-चिल्ला कर कहूंगा कि ये जो पश्चिमी विकास की अवधारणा और दिशा है, यह एक पागल अंधी दौड़ है जो विनाश की तरफ ले जाएगी। गांधी ने विकास की जो अवधारणा दी थी वह हर व्यक्ति को उत्पादक बनाने पर केंद्रित थी। उनका कहना था कि हर व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें उसकी सृजनशीलता से पूरी होनी चाहिए। वे यंत्र के विरोधी नहीं थे। लेकिन, उनका स्पष्ट मानना था कि यंत्र ऐसे हों जो मनुष्य की उत्पादन क्षमता और सृजनशीलता का आनंद बढ़ाएं। आज की औद्योगिक विकास की दिशा लोगों से रोजगार छीनने की है। इसके कारण धीरे-धीरे ऐसा होगा कि जो कथित विकास है वह आज जितने लोगों के हाथ में है उससे भी ज्यादा सिमट जाएगा। यह जितना ही सिमटता जाएगा भुखमरी, बेरोजगारी और हिंसा बढ़ेगी।

आज विकास का आदर्श मॉडल अमेरिका है। उसका विकास शस्‍त्रों के उत्पादन और मुनाफाखोरी पर टिका है। यदि शस्‍त्र उत्पादन मुनाफे का मुख्य आधार होगा तो उसके खपत की रणनीति भी बनाई जाएगी। इससे हासिल विकास दुनिया को विनाश की ओर ढकेलता है। भय और सुरक्षा के बीच जबर्दस्त तालमेल है। हमारी राष्ट्रीयता को खतरे में बताया जा रहा है। इस खतरे और भय के कारण सबसे ज्यादा खर्च शस्‍त्रों की खरीद पर किया जा रहा। विकास की इस अवधारणा को बदले बिना गांधी के रास्ते पर हम नहीं बढ़ सकते। लेकिन, विकास की इस तथाकथित दिशा को बदलेगा कौन? राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्यों में जिन परिवर्तनों की बात गांधी करते थे उसे आगे कौन बढ़ाएगा? आज जो राज कर रहे हैं और कल करेंगे उनसे हमे उम्मीद नहीं है, क्योंकि गांधी स्वच्छता, सत्यनिष्ठा और अहिंसा की केवल बातें नहीं करते थे। खुद को उस प्रक्रिया में ढालते थे, साधते थे। खुद को सत्य और अहिंसा की इस कसौटी पर कसते रहते थे। गांधी ने सत्य और अहिंसा की बुनियाद पर विकसित होने वाले समाज की कल्पना की थी। लेकिन, आज की व्यवस्था जनता को केवल मतदाता मानती है। उन्हें धर्म, जाति के आधार पर बांटकर सत्ता हासिल करना और फिर अपनी कल्पनाएं थोपना ही उसका मकसद है।

गांधी को यदि समझना है, उनके रास्तों पर चलना है, तो हमें पहले उस स्थिति को बदलना होगा जिसमें में हम रह रहे हैं। आज जो बेचैनी दिख रही है वह व्यवस्‍था में जगह पाने के लिए है न कि उसे बदलने के लिए। इस भयावह स्थिति में भी उम्मीद की किरण दिख रही है। नई पीढ़ी में कुछ युवाओं की सोच का दायरा इससे हटकर है। हालांकि नई पीढ़ी को गुमराह करने के प्रयास जितने बड़े पैमाने पर आज हो रहे हैं उतना पहले कभी नहीं देखा गया। इससे राष्ट्र विकसित नहीं होगा। संकीर्ण राष्ट्रवाद विकसित होगा जो हमको ही खा जाएगा। आज जो समाज में विभाजन दिख रहा, वह पहले नहीं था। गांधी का समाज एक-दूसरे से टकराने वाला नहीं, एक-दूसरे में मिलने वाला समाज है। ऐसे में गांधी के नाम पर हो रहे सरकारी आयोजनों को लेकर सरकार के इरादों पर सवाल उठना वाजिब है। गांधी के विचारों को, कार्यों को आगे बढ़ाने की ललक इन आयोजनों में नहीं दिखती। इतना ही नहीं, गांधी शताब्दी वर्ष और उनकी 125 जयंती पर गांधीजनों और गांधीवादी प्रतिष्ठानों को सरकार का सहयोग मिला था। ऐसा इस बार नहीं है। इसका कारण यह है कि उस समय की सरकारों ने गांधी की योजनाओं को भले आगे नहीं बढ़ाया, लेकिन वे उनके विचारों के प्रति आदर-भाव रखती थीं।

हमारे समाज की परेशानी यह है कि गांधी को हम न तो छोड़ सकते हैं, और न ही उन्हें पकड़ कर आगे बढ़ने की हममें हिम्मत है। लेकिन, जब छटपटाहट बढ़ेगी और रास्ते की तलाश शुरू होगी तो गांधी हमें मदद के लिए खड़े मिलेंगे। भविष्य में यदि सभ्यताओं का संघर्ष हुआ तो एक तरफ राज्य सत्ता, धर्म सत्ता और धन सत्ता तथा दूसरी तरफ गांधी के विचार में निष्ठा रखने वाले लोग मिलेंगे। बेहतर होगा यह तलाश अपने समाज के भीतर से शुरू हो।

(लेखक गांधी स्मारक निधि के सचिव हैं। लेख अजीत झा से बातचीत पर आधारित है) 

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