अपने अंतिम दिनों में कवि-आलोचक विष्णु खरे गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद करने में लगे थे और उनके करीब दस निबंधों को भी अंग्रेजी में लाना चाहते थे, ताकि ‘अंतरराष्ट्रीय पाठक समुदाय उनके महान कृतित्व से परिचित हो सके।’ उन्होंने अपना आखिरी संग्रह ‘और अन्य कविताएं’ मुक्तिबोध को ‘सृजन-पिता’ कहते हुए समर्पित किया था। खरे इस महत्वपूर्ण काम को अधूरा छोड़ कर संसार से चले गए लेकिन उनके निधन से जो जगह खाली हुई है, वह किसी औपचारिक मुहावरे में नहीं, बल्कि वास्तविकता में खाली ही रहेगी... इसलिए कि वे मनुष्य, कवि और आलोचक के रूप में असाधारण, लीक से हटकर चलने वाले और बगावती थे। मुक्तिबोध की ही तरह ‘परम अभिव्यक्ति अनिवार/ आत्म-संभवा’ को पाने के लिए ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब’ पर उनका गहरा विश्वास था। जीते जी उनके लिए ‘उग्र, बदमिजाज, अपनी ही फौज को रौंदने वाला हाथी और ‘अ बुल इन चाइना शॉप’ जैसे प्रत्यय इस्तेमाल किए गए। लेकिन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद हिंदी साहित्य उन्हें अंततः एक प्रखर-प्रबुद्ध व्यक्ति की तरह याद रखेगा, जिसने हिंदी कविता के स्वरूप, कथ्य, शिल्प और संरचना को बुनियादी ढंग से बदला और जो अपने से युवा पीढ़ी की कविता से बहुत उम्मीदें बांधे हुए, लेकिन उस पर पैनी निगाह रखे हुए था। आखिर कोई तो वजह है कि सोशल मीडिया, ब्लॉग और फेसबुक आदि समांतर संचार माध्यमों में उनकी बीमारी और मृत्यु पर गहरा अफसोस व्यक्त किया गया। शायद उन्हें हिंदी कविता का आखिरी मूर्तिभंजक कहा जा सकता है।
जर्मन कवि और नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक कविता का आशय कुछ इस तरह है, ‘जब मैं तुमसे रुखाई के साथ, तुम्हारी तरफ देखे बगैर कोई बात कहूंगा तो इसका अर्थ होगा कि मैं तुमसे लगाव रखता हूं और तुम्हारे लिए फिक्रमंद हूं।’ ब्रेष्ट, विष्णु खरे के सबसे प्रिय लेखकों में थे। उन्होंने उनकी बहुत-सी कविताओं के अनुवाद किए थे और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ब्रेष्ट की इस कविता पंक्ति को उन्होंने जैसे अपने स्वभाव में उतार लिया था। प्रशंसकों की भीड़ जुटाने, चरण-स्पर्श कराने और पीठ ठोकने वाले समाज में यह मुश्किल और अकेला कर देने वाली प्रस्थापना थी और वे जानते थे कि इसके नतीजे में उन्हें विवादास्पद, निर्वासित और अवांछित तक होना पड़ सकता है। आखिरी कुछ वर्षों में जब कोई उनसे किसी काम में मदद के लिए कहता था तो वे रास्ता जरूर सुझाते लेकिन साथ में यह भी कहते, “मेरा हवाला मत देना वर्ना तुम्हारा होने वाला काम भी नहीं हो पाएगा।” जो लोग उनकी इस फितरत को समझने में नाकाम थे, वे उन्हें कई अजब विशेषणों से नवाजा करते थे। उनकी टिप्पणियां फौरी तौर पर धक्का पहुंचाने वाली होती थीं लेकिन उनमें अक्सर कोई सच्चाई होती थी।
1970 के आस-पास वे कुछ समय तब के तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में रह कर लौटे थे और उनका रुख काफी आलोचनात्मक था। शायद प्राग को समाजवादी अपेक्षाओं के अनुरूप न पाकर वे हताश थे। दिल्ली के मोहन सिंह प्लेस के कॉफी हाउस में जब हम कुछ नए-नए कम्युनिस्ट दोस्त उनसे उलझ रहे थे तो आलोक धन्वा ने आजिजी से पूछा, “आपके हिसाब से वहां कुछ नहीं है, तो क्या कोई चिड़िया भी नहीं है?” इस पर उन्होंने जोर से कहा, “नहीं, चिड़िया भी नहीं है।” बाद में यह बात पता चली कि चीन समेत कई समाजवादी देशों में फसलों की हिफाजत के लिए चिड़ियों को मारने का अभियान चलाया गया था। यह वही विष्णु खरे थे जो तब तक ‘टेबल’ और ‘दोस्त’ जैसी कविताओं के जरिए एक नई संवेदना और नई भाषा का आगाज कर चुके थे, जो अपनी बुनियाद में ‘जनवादी’ थे। फिर उनका लेखन लगातार वामपंथ की ओर झुकता गया और वे यह मानते थे कि ‘हिंदी में 95 फीसदी कविता वामपंथी है।’
‘दोस्त’ एक छरहरे नौजवान पुलिस अफसर का व्यक्ति चित्र है जो लड़कियों के कॉलेज के आस-पास अपनी ड्यूटी लगवाना चाहता है, उन्हें निहारना चाहता है और कभी-कभी मस्ती में सीटी बजाना चाहता है। लेकिन कुछ वर्ष बाद वह मोटा तुंदियल होकर पादता, अपने दांतों में फंसे खाने के टुकड़े को खरोंचता, हाथ में डंडा लेकर किसी की पिटाई करने कॉलेज की तरफ जाता दिखता है। शायद किसी पुलिस अफसर को पहली बार इस तरह, त्रासदी की आंख से देखा गया था। इन कविताओं के बाद विष्णु खरे की कविता में समकालीनता, इतिहास, मिथकों, घर-परिवार, बेरोजगार बेटियों, लाचार पिताओं, भूख से पीड़ित लोगों, विधवाओं, तथाकथित बदनाम औरतों और पशु-पक्षियों को भी एक जन-पक्षधर निगाह से देखना लगातार बढ़ता गया। लेकिन यह देखना विलक्षण था और हैरानी होती थी कि वे किस तरह पुरानी दिल्ली के किसी लाला की याददाश्त में 1947 के देश-विभाजन के दौरान उसके द्वारा की गई हत्याओं के दाग खोज लेते हैं या एक आधुनिक बस्ती में सुबह-सुबह मोरों की आवाज के जरिए उस मिट चुके जंगल तक टहल आते हैं जिसके मालिक मोर हुआ करते थे। उनकी कविता ऐसे कायाकल्पों का एक विचलित करने वाला समाजशास्त्र रचती है।
विष्णु खरे की दोस्ती का कैनवास भी बड़ा था और ऐसा शायद ही कोई दोस्त होगा जिससे उनका कमोबेश विवाद न हुआ हो। ऐसे झगड़ों की जिंदगी कुछ ही देर की होती थी। अपने कई समकालीनों से उनका रिश्ता इसी तरह का रहा-उन्हें छोड़कर, जिनकी निष्ठा पर उनका संदेह पुख्ता हो गया हो। कुछ कवियों के पहले कविता संग्रह भी उनके प्रयत्नों से संभव हुए, जिनमें उन्हें संभावना नजर आई थी। मेरे पहले संग्रह पहाड़ पर लालटेन की पांडुलिपि भी उन्होंने मंगवाई थी लेकिन तब तक उसे पंकज सिंह राधाकृष्ण प्रकाशन के अरविन्द कुमार को सौंप चुके थे। कई समकालीन मित्रों से उनकी ठनी रहती थी लेकिन उनके बगैर उनका काम भी नहीं चलता था।
वीरेन डंगवाल को जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो कुछ प्रतिष्ठानी लेखकों-आलोचकों ने शायद निर्णायकों या अकादेमी की सत्ता-संरचना से हिसाब बराबर करने की गरज से एक तकनीकी मुद्दे पर विरोध करना शुरू किया और यह सुझाव दे डाला की वीरेन को पुरस्कार लेने से इनकार कर देना चाहिए और इससे वे हीरो बन जाएंगे। विष्णु खरे तब जर्मनी में थे उन्होंने वहां से वीरेन की कविता की प्रशंसा और पुरस्कार के समर्थन में अपनी टिप्पणी भेजी। कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुद्दे पर दोनों में काफी विवाद हो गया। बहरहाल, यह विवाद खत्म हुआ और जब लंबी बीमारी से जूझते हुए वीरेन संसार से गया तो उन्होंने एक मार्मिक श्रद्धांजलि लिखी, जिसमें उसे ‘पहाड़ में पैदा हुए सभी कवियों में सबसे श्रेष्ठ’ कह कर याद किया।
इसमें संदेह नहीं कि रघुवीर सहाय की ही तरह विष्णु खरे की कविता ने भी हिंदी कविता को बदलने का काम किया और उसे भावुकता से मुक्त कर गहरी इनसानी भावना और करुणा की तरफ मोड़ा। शायद यह समय की जरूरत थी, जिसकी पहचान करने में वे सबसे आगे थे। कुछ-कुछ निराला की तरह, जिन्होंने कविता में छंद और अलंकरण की सीमाओं को भांप लिया था। उनकी गद्यात्मक, निबंध जैसी, बारीक ब्यौरों से भरी, अलंकरण-विहीन भाषा और रूखा शिल्प अब भी कई लोगों के लिए अटपटा है। लेकिन जैसा कि प्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण ने कहा था, “विष्णु खरे कविता के तमाम प्रचलित नियमों और नुस्खों को लांघ कर कविता लिखते हैं।” ‘लालटेन जलाना’, ‘सिंगल विकेट सीरीज’, ‘अपने आप और बेकार’, ‘बेटी’, ‘बदनाम औरत’ जैसी कविताएं पाठकों को झकझोरने वाली हैं।
विश्व कविता के कई बड़े कवियों को भी हम विष्णु खरे के अनुवादों से जान पाए। गोइठे, ग्युन्टर ग्रास, अत्तिला योजेफ, मिक्लोश राद्नोती, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट आदि कवियों और एस्टोनिया और फिनलैंड के लोक-महाकाव्यों के उनके अनुवाद उल्लेखनीय हैं। उन्होंने उन्नीस साल की उम्र में बीए में पढ़ते हुए ही अंग्रेजी कवि टी एस एलियट की कविता ‘वेस्टलैंड’ को हिंदी में ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएं’ नाम से अनूदित किया था। उन्होंने हिंदी कविता को अनुवाद के जरिए अंग्रेजी, जर्मन, डच में पहुंचाने का भी काम किया। जर्मन विद्वान लोठार लुत्से के साथ हिंदी कविता के जर्मन अनुवादों का सम्भवतः पहला संकलन उन्हीं का संपादित किया हुआ है। आलोचक के रूप में विष्णु खरे ने चंद्रकान्त देवताले की कविता की गहरी पड़ताल करते हुए उन्हें बड़े कवि के तौर पर पहचाना। ऐसा ही काम मलयज ने शमशेर बहादुर सिंह पर किया था। उन्होंने हिंदी आलोचना के अकादेमिक प्रतिष्ठान को यह कहकर चुनौती भी दी कि ‘रामचन्द्र शुक्ल नहीं, मुक्तिबोध हिंदी के सबसे बड़े आलोचक हैं।’ विष्णु खरे की बेचैनियां और मध्यवर्गीय आत्म-ग्लानि भी काफी कुछ ‘मुक्तिबोधीय’ थीं, जिनकी अनुगूंज बहुत-सी कविताओं में हैं। एक कविता में वे कहते हैं, ‘हैसियत और कूवत क्या थी और क्या है मुझ सरीखों की/ खुद अपने ही प्रेत हैं अब पछतावे में मुक्ति खोजते भटकते हुए।’
वे हिंदुस्तानी और पश्चिमी शास्त्रीय, फिल्म संगीत और सिनेमा के भी गहरे जानकार थे। उनकी कई किताबों को विश्व सिनेमा को जानने की बुनियादी पाठ्य-सामग्री की तरह पढ़ा जा सकता है। मिथक, इतिहास और पुरातत्व में भी उनकी गहरी रुचि थी। महाभारत के कई प्रसंगों पर उनकी कविताएं मिथकों की पड़ताल करने के चकित करने वाले उदाहरण हैं। मृत्यु पर केंद्रित उनकी चार-पांच कविताएं भी जीवन के अंत को मौलिक नजरिए से देखती हैं। एक कविता में वे कहते हैं, ‘मैं देखना चाहता हूं चिड़िया को उस क्षण में/ जब वह आखिरी उड़ान से पहले अपने आप निश्चित करती है/ कि यह उसकी आखिरी उड़ान है/ और बिलकुल पहले की ही तरह/ उठ जाती है घड़ियों और नक्शों के बाहर/ उस जगह के लिए जहां एक असंभव वृक्ष पर बैठकर चुप होते हुए/ उसे एक अदृश्य चिड़िया बन जाना है/ देखना ही चाहता हूं/ क्योंकि न मैं चिड़ियों का संकल्प पा सकता हूं और न उड़ान/ मैं सिर्फ अपनी मृत्यु में उनकी कोशिश करना चाहता हूं।’
(लेखक वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं)