गांधी जी पुराने किस्म के आदमी थे। वे सत्य के साथ प्रयोग करते रहे। वैसे देखा जाए तो सत्य के साथ प्रयोग करने से होता क्या है। सत्य तो एक ही होता है। जैसे सामने एक मेज रखी है, उसका सत्य यह है कि वह मेज है। अब इसमें प्रयोग करने के लिए क्या है? प्रयोग तो असत्य के साथ किए जा सकते हैं। मसलन, हम मेज के बारे में कह सकते हैं कि वह कुर्सी है या कद्दू है या लड़ाकू विमान है। गांधी जी के विरोधियों ने यह सत्य पा लिया था कि सत्य में संभावनाएं नहीं हैं, वास्तव में प्रयोग की संभावनाएं तो असत्य में हैं। तब से वे असत्य के साथ प्रयोग किए जा रहे हैं।
सत्य के मुकाबले असत्य के साथ फायदा यह है कि असत्य अनेक हो सकते हैं। इस मायने में सत्य एकाधिकारवादी होता है, असत्य लोकतांत्रिक होता है, हर व्यक्ति अपनी दिलचस्पी के मुताबिक असत्य गढ़ सकता है। सत्य को खोजने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, असत्य आप बिस्तर पर लेटे-लेटे पा सकते हैं। उसमें आपके पास चुनाव भी होता है, कोई असत्य अगर आपको पसंद न आए तो आप दूसरा असत्य बना सकते हैं। यह भी जरूरी नहीं कि आप एक ही असत्य चुनें, अगर आपको दो या दो से ज्यादा असत्य पसंद आए तो आप सभी रख सकते हैं। मसलन, आप महात्मा गांधी के फोटो पर हार पहनाने के बाद नाथूराम गोडसे को भी महिमामंडित कर सकते हैं। आप कानून के राज की गर्जना करने के तुरंत बाद अपराधियों को भी हार पहना सकते हैं। आप गरीबों के कल्याण की दुहाई देने के बाद उनके पेट पर लात भी मार सकते हैं।
असत्य के साथ प्रयोग करने का एक फायदा यह है कि जब आप असत्य का प्रयोग करने लगते हैं तो सत्य भी अनेक असत्यों में से एक असत्य बन जाता है, उसकी विशिष्टता खत्म हो जाती है। जैसे आप महात्मा गांधी के नाम और सिद्धांतों को बार-बार दोहराने के बाद उनके खिलाफ आचरण करते हैं तो आपकी बातें और काम दोनों असत्य हो जाते हैं। हमारे दौर की सबसे बड़ी विशेषता ही यह है कि हमने सत्य और असत्य के बीच भेद खत्म कर दिया। अब असत्य का भी मूल्य उतना ही है जितना सत्य का। मसलन, दोपहर के बारह बजे कोई कहे कि अभी दिन है तो हम सीना ठोक कर कह सकते हैं कि रात के दो बजे हैं और यह दावा कर सकते हैं कि हमारे बयान का भी उतना ही वजन है जितना उसके बयान का। बल्कि अपने बयान को हम सोशल मीडिया पर वायरल करा सकते हैं। हम अब यह दावा कर सकते हैं कि धर्म और जाति के नाम पर भेदभाव करना, भेदभाव न करने के मुकाबले ज्यादा जायज है और लोगों को पीट-पीट कर मार डालना ही अहिंसक होने की निशानी है।
असत्य का सबसे पहला और सफल प्रयोग इस देश में गांधी जी के साथ ही हुआ जब लोगों ने यह घोषणा की कि वे गांधी जी के सिद्धांतों का सम्मान करते हैं और उनके बताए रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। तब से असत्य के साथ प्रयोगों का सिलसिला जारी है, जैसा कि सोशल मीडिया पर चलने वाली अफवाहों और झूठी खबरों से प्रमाणित होता है। आइटी सेल वाले इस पर ज्यादा रोशनी डाल सकते हैं।