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“एक न एक दिन हमें ऑस्कर चाहिए”

सितारों का दौर पहले की तरह नहीं रह गया है। असली खुशी की बात यह है कि दर्शक अपने चहेते सितारों से भी बेहतर कंटेंट चाहते हैं
मनीष मुंदड़ा

मनीष मुंदड़ा बॉलीवुड में कुछ अलग किस्म के फिल्म मुगल हैं। वे अपनी फिल्मी फैक्टरी से निकली आंखों देखी (2014), मसान (2015), कड़वी हवा और न्यूटन  (2017) जैसी पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों के जरिए इंडी सिनेमा की दुनिया में एक क्रांति का आगाज कर चुके हैं। नाइजीरिया स्थित पेट्रोकेमिकल बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ, बेहद प्रतिभावान फिल्मकार 45 वर्षीय मुंदड़ा अच्छी फिल्मों के अपने सपने को साकार करने के लिए अति व्यस्त समय से महीने में सिर्फ दो दिन का ही वक्त निकालकर मुंबई पहुंच पाते हैं। उनसे गिरिधर झा ने विस्तृत बातचीत की। उसके अंशः

गंभीर कथानक वाली इंडी फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए आपने करीब पांच साल पहले दृश्यम फिल्‍म्स की स्‍थापना की थी। उसकी प्रगति से आप कितने संतुष्ट हैं?

मैं प्रगति से तो खुश हूं मगर, पूरी तरह संतुष्ट नहीं। हमें अभी बहुत कुछ हासिल जो करना है।

नई सदी में हिंदी सिनेमा काफी कुछ बदल गया है। पिछले सात-आठ साल से न्यूटन जैसी छोटे बजट की फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छी कमाई की है जबकि कई बड़े बजट की परियोजनाएं धराशायी हो गई हैं। आप इसकी क्या वजहें देखते हैं?

हॉलीवुड की फिल्मों और नेटफ्लिक्स जैसे मंचों के आगमन से दर्शकों की पसंद धीरे-धीरे बदल रही है। न्यूटन के तो मानो सितारे चमक उठे थे। कहानी अच्छी थी, अभिनय भी लाजवाब था, इरोज को डिस्ट्रीब्यूटर आनंद एल. राय जैसे पार्टनर मिल गए थे, और सबसे बढ़कर रिलीज के दिन ही वह ऑस्कर पुरस्कार के लिए भारत की ओर से आधिकारिक प्रविष्टि के तौर पर चुन ली गई थी। उसके बाद उम्दा समीक्षाओं ने तय कर दिया था कि फिल्म कामयाब होगी।

आज के दर्शकों के लिए दुनिया का बेहतरीन सिनेमा आसानी से उपलब्‍ध है। आपको क्या लगता है कि इससे अच्छी फिल्मों के लिए उनकी भूख बढ़ गई है?

एक हद तक तो हां। इसी वजह से नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम वीडियो ने खेल ही बदल दिया है। जो कंटेंट वे मुहैया करा रहे हैं, उसमें इतनी ताजगी और नयापन है कि दर्शकों की आकांक्षाएं बढ़ने लगी हैं।

न्यूटन ने तो वाकई समीक्षा और व्यावसायिक कामयाबी दोनों ही मामलों में उम्मीद की सारी हदें तोड़ दीं। पहली बार जब आपने इसका कथानक सुना था तो क्या आपको ऐसी कामयाबी की उम्मीद थी? उसमें ऐसा खास क्या है?

असलियत में आपको कभी मालूम नहीं होता कि कौन-सी फिल्म हिट होगी और कौन-सी फ्लाप, क्योंकि फिल्म का भाग्य तय करने में अनेक वजहें काम करती हैं। आप सिर्फ इसी पर भरोसा कर सकते हैं कि कैसी कहानी आप परोसने जा रहे हैं। अमित मासूरकर (निर्देशक) ने टैक्सी में 20 मिनट के सफर के दौरान फिल्म की कहानी मुझे सुनाई। मुझे फौरन यह एहसास हो गया कि हां, यही कहानी तो मुझे बयां करनी है।

आपने एक बार कहा था कि आप अपने बैनर से साल में चार फिल्में लाना चाहते हैं। क्या आपको अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए पर्याप्त कंटेंट मिल पाता है?

दरअसल, हम एक साल में सात-आठ फिल्में बना रहे हैं! भारत में तो कहानियां बिखरी पड़ी हैं, हमें बस नई युवा प्रतिभाओं को पहचानने और फिर उन्हें आगे बढ़ाने की दरकार है।

आपके बैनर ने राजकुमार राव, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी और कई दूसरे ऐक्टरों के कॅरिअर को बढ़ाने में बड़ी मदद की है। छोटे बजट की फिल्मों में काम कर सकने वाले अच्छे, किफायती कलाकारों की मौजूदा फौज के बारे में आपकी क्या राय है?

थिएटर या इंडिपेंडेंट सिनेमा की पृष्ठभूमि के कई अच्छे ऐक्टर हैं और कई युवा प्रतिभावान कलाकार भी इंडस्ट्री में आ रहे हैं। हालांकि एकदम नए या अपरिचित-से चेहरों को दर्शकों के सामने पेश करना आसान नहीं है। मैं यह भी सोचता हूं कि बड़े सितारों को हर साल एक इंडिपेंडेंट फिल्म को समर्थन देने के बारे में जरूर सोचना चाहिए।

क्या मौका मिले तो आप अमिताभ बच्चन और आमिर खान जैसे बड़े सितारों के साथ काम करना पसंद नहीं करेंगे, जो हमेशा अच्छी पटकथा की तलाश में रहते हैं?

अमिताभ बच्चन मेरे पसंदीदा ऐक्टर हैं। मैं उनकी फिल्में देखते ही बड़ा ह़ुआ हूं। लेकिन मैं ऐसे बड़े सितारों के साथ काम नहीं करना चाहता जो कहानी पर ही भारी पड़ें। आखिर कहानी ही मेरी फिल्मों की जान होती है।

पेट्रोकेमिकल कंपनी में जिम्मेदारियों के चलते आपका ज्यादातर वक्त नाइजीरिया में बीतता है। आप महीने में सिर्फ दो दिनों के लिए ही मुंबई में आ पाते हैं। ऐसे में आप मुंबई में अपनी दृश्यम फिल्‍म्स का कामकाज कैसे देख पाते हैं?

मुंबई में स्टूडियो चलाने वाली मेरी टीम लाजवाब है। सोशल मीडिया के जरिए मैं हमेशा लेखकों और फिल्मकारों से जुड़ा रहता हूं और बहुत सारा कंटेंट मुझे इसी के जरिए मिलता रहता है।

दृश्यम फिल्‍म्स बड़े पैमाने पर शॉर्ट फिल्मों को भी बढ़ावा दे रही है। आप भारत में खासकर व्यावसायिक नजरिए से शॉर्ट फिल्मों का भविष्य कैसा देखते हैं?

लोगों में दिन-ब-दिन धैर्य कम होता जा रहा है। शायद यही वजह है कि लोग शॉर्ट फिल्मों को ज्यादा पसंद करने लगे हैं। यह नए उभरते फिल्मकारों की प्रतिभा और हुनर की परीक्षा का भी अच्छा जरिया है।

आपकी अपने बैनर के लिए दूसरी क्या योजनाएं हैं? क्या आप निकट भविष्य में अपने बैनर तले अपना निर्देशन करने का इरादा रखते हैं?

हम बड़ा बनना चाहते हैं, बड़े फेस्टिवलों की मुख्य स्पर्धाओं में पहुंचना चाहते हैं और एक न एक दिन ऑस्कर हासिल करना चाहते हैं। हां, अंततः मैं अपनी फिल्म का निर्देशन भी करूंगा।

क्या आप बतौर इंडस्ट्री बॉलीवुड के कामकाज से खुश हैं? क्या आपको अपनी फिल्मों के लिए डिस्ट्रीब्यूटर हासिल करने या मल्टीप्लेक्स में अच्छे परदे पाने में दिक्कत का सामना करना पड़ता है?

पहले हमें अपनी फिल्मों के लिए ‌डिस्ट्रीब्यूटर और अच्छे सिनेमाघर हासिल करने में काफी दिक्कतें आई हैं। हालांकि हमारी आगामी फिल्म कामयाब के साथ हम अपनी आगे की फिल्मों के लिए बड़े स्टूडियो के साथ साझेदारी कर रहे हैं।

क्या हाल में बड़े सितारों की फिल्मों की नाकामी को आप हिंदी सिनेमा में सितारों के दौर के खात्मे की तरह देख रहे हैं?

 सितारों का दौर पहले की तरह नहीं रह गया है। हमने देखा है कि सितारों से भरी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट रही हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं देखता कि यह दौर पूरी तरह खत्म हो जाएगा। असली खुशी की बात यह है कि दर्शक अपने चहेते सितारों से भी बेहतर कंटेंट चाहते हैं। महज दिखावा भर काफी नहीं है, एक अच्छी कहानी भी चा‌हिए।  

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