आखिरकार केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर का इस्तीफा हो ही गया। अकबर पर संपादक रहते हुए उनके मातहत काम करने वाली महिला पत्रकारों के यौन शोषण के आरोपों की लंबी होती फेहरिस्त सरकार, सत्तारुढ़ भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लगातार मुश्किलें खड़ी करती जा रही थी। इस्तीफे का दबाव हर रोज बढ़ रहा था और सरकार के लिए सवालों और विपक्षी दलों के हमलों का जवाब देना भारी पड़ रहा था। यही वजह है कि आरोप लगाने वाली एक महिला पत्रकार के खिलाफ न्यायालय में मानहानि का केस दर्ज करने के दो दिन बाद 17 अक्टूबर को अकबर ने इस्तीफा दे दिया।
असल में साल भर पहले दुनिया में भूचाल ला देने वाले #मीटू अभियान ने अब भारत में जोरदार दस्तक दी है। यह दस्तक इतनी तेज है कि राजनीति, मीडिया, फिल्म और एंटरटेनमेंट से लेकर स्पोर्ट्स और कारपोरेट जगत सब थर्रा उठे। पितृसत्तात्मक भारतीय समाज के ऐसे सैकड़ों चेहरों के नकाब उतरने लगे जिन्होंने अपनी ताकत और रुतबे की धौंस में महिला सहयोगियों या सहकर्मियों और मातहतों का यौन शोषण किया। जाहिर है, इनके खिलाफ कार्रवाई की आवाज भी तेज होने लगी और कुछ लोगों के खिलाफ कार्रवाई हुई भी। उन पीड़ितों के साथ समाज का बड़ा तबका महिला-पुरुष सब खड़े दिखे जिन्होंने अन्याय के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दिखाई। दो केंद्रीय महिला मंत्रियों ने भी उनके हौसले की तारीफ की। दुनिया के देशों की पहली कतार में खड़े होने का दावा करने वाले हमारे देश के कर्णधारों को यह भी याद रखना चाहिए कि इस साल का नोबेल पुरस्कार भी महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की शिकार और उसे दुनिया के सामने लाने वाली साहसिक इराकी यजिदी युवती नादिया मुराद और कांगो के डॉक्टर डेनिस मुकवेगे को दिया गया है।
अब सवाल उठता है कि सामाजिक शुचिता और आदर्शों की झंडाबरदार राजनैतिक पार्टियों का क्या जिम्मा बनता है। जाहिर है, जो देश का शासन चलाना चाहते हैं और जनादेश के जरिए कानून बनाने का अधिकार हासिल करते हैं, सबसे पहले वहीं से सफाई शुरू होनी चाहिए। लेकिन ऐसा होने में काफी देरी हुई। केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर पर उनके साथ काम कर चुकी दर्जन भर से ज्यादा महिला पत्रकारों ने यौन शोषण के आरोप लगाए और यह सिलसिला जारी है। लेकिन आरोपों के समय विदेश दौरे पर गए मंत्री से देश में लौटने के बाद भी किसी तरह की सफाई सरकार के नेतृत्व ने नहीं मांगी और न ही कोई बयान दिया। यह स्थिति उनके इस्तीफे के दिन तक जारी रही। अहम बात यह है कि सत्तारुढ़ भाजपा में मजबूत महिला नेता का लंबे समय से तमगा रखने वाली विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के तहत एमजे अकबर राज्यमंत्री थे। लेकिन सुषमा स्वराज की इस मामले में चुप्पी उनके नैतिक दायित्व पर सवाल खड़ा करती है। वैसे मंत्रिमंडल में उनसे जूनियर दो महिला सहयोगियों ने पीड़ितों से सहानुभूति जताने के बयान दिए हैं।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा को क्या यह याद नहीं रहा कि राम ने तो सीता की अग्निपरीक्षा सिर्फ लोगों की धारणा के चलते ली थी। क्या भाजपा को नहीं लगता कि सार्वजनिक जीवन में लोगों की धारणा पर खरा उतरना कितना जरूरी है?
असल में राजनैतिक दलों को शायद लगता है कि यह सारा अभियान उच्च मध्यम वर्ग की उन महिलाओं का है जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि इन महिलाओं ने अपने भविष्य को भी दांव पर लगाया है और सामाजिक जोखिम भी मोल लिया है। यह भी याद रखना चाहिए कि समाज में बड़े बदलावों की शुरुआत और राजनीतिक माहौल भी मध्य वर्ग ही बनाता है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ‘अच्छे दिन’ वाली सरकार के लिए माहौल भी इसी मध्य वर्ग ने बनाया था। साथ ही जिस तरह से समाज और कामकाज के दायरे बदल रहे हैं, कार्यस्थलों पर महिलाओं की तादाद बढ़ रही है तो उनके लिए बेहतर और सुरक्षित माहौल बनाना सभी का दायित्व है। साथ ही बात केवल नियम-कानूनों की नहीं है, बल्कि पुरुषों की मानसिकता और रवैया भी बदलने की जरूरत है क्योंकि समय बदल रहा है और स्त्री-पुरुष बराबरी की हकीकत को स्वीकारना ही सामाजिक बदलाव में सहायक साबित होगा।
फिर देश में मीडिया और सोशल मीडिया की पहुंच बढ़ गई है, उसके चलते धारणाएं बहुत तेजी से बनती हैं। यही वजह है कि लगातार इस मुद्दे पर सरकार पर हमले करने वाली कांग्रेस ने खुद को नैतिक रूप से कारगर बनाने के लिए अपने छात्र संगठन एनएसयूआइ के अध्यक्ष को ऐसे आरोप लगने के बाद हटा दिया। आने वाले दिनों में पांच राज्यों में चुनाव भी होने हैं और किसी भी राजनीतिक दल के लिए इस तरह का मुद्दा नई तरह की चुनौती खड़ा करता है। अब वक्त की मांग यह भी है कि कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए ‘विशाखा गाइडलाइंस’ की फिर से व्याख्या की जाए।