अभी तो वाकई यह केंद्र का सेमीफाइनल ही लग रहा है। न तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपनी प्रचार सभाओं में राज्य सरकारों के कामकाज की बात कर रहे हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हमलों की जद में राज्य सरकारें हैं। राहुल के निशाने पर राफेल सौदा, तेल की कीमतों में वृद्धि, ‘सूट-बूट के दोस्त’ वगैरह हैं। अमित शाह ‘40 लाख घुसपैठियों’, ‘शहरी नक्सली’, ‘जेएनयू टुकड़े-टुकड़े बिरादरी’ के बहाने कांग्रेस पर हमलावर हैं और लोगों को चेता रहे हैं कि भाजपा सरकारें हारीं तो कहर बरपा हो जाएगा। राज्यों के मुख्यमंत्री जरूर अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं लेकिन वे केंद्रीय नेतृत्व का गुणगान भी कर रहे हैं और लोगों को विपक्ष की अराजकता और अस्थिरता से आगाह कर रहे हैं। हाल में भोपाल की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी “महागठबंधन की माया” पर निशाना साधा। दरअसल, पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सुदूर पूर्वोत्तर के मिजोरम और दक्षिण के तेलंगाना में ही राज्य सरकारों के कामकाज पर कुछ हद तक जनादेश हासिल करने की कोशिश दिखती है। हालांकि तेलंगाना में भी “धोखा और झूठ” से लोगों को आगाह किया जा रहा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो जैसे बहस के केंद्र में मोटे तौर पर राज्य नदारद ही हैं, जो केंद्र पर दावा करने वाली दोनों प्रमुख पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के बीच असली लड़ाई का मैदान है।
इन राज्यों में भी असली ‘कुरुक्षेत्र’ तो 230 विधानसभा और 29 संसदीय सीटों वाला मध्य प्रदेश ही है। राजस्थान (200 विधानसभा और 25 संसदीय सीटें) और छत्तीसगढ़ (90 विधानसभा और 11 संसदीय सीटें) में तो लड़ाई कुछ हद तक सीधी है। या यूं कहिए कि मोटे तौर पर खिलाड़ी तय हो गए हैं।
राजस्थान में ज्यादातर जानकारों और राजनैतिक पंडितों का अनुमान है कि कांग्रेस सीधे मुकाबले में भाजपा की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर भारी है। राज्य में वसुंधरा राजे की लोकप्रियता भी गिर गई है और अपनी पार्टी में कम से कम घनश्याम तिवाड़ी जैसे नेता उनका खुलकर विरोध कर रहे हैं। हाल में वसुंधरा सरकार ने विधायक वेतन और भत्ता संशोधन विधेयक पारित कराया तो उसका सबसे मुखर विरोध तिवाड़ी ने ही किया। इस विधेयक में सबसे विवादास्पद पहलू यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री को आजीवन सरकारी मकान, कुछ कर्मचारी और सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी। इसके अलावा राज्य में तथाकथित गोरक्षकों के बेलगाम उत्पात और कुछेक इलाकों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाओं से भी एक तरह की नाराजगी पैदा हुई है। हालांकि, भाजपा अगर ध्रुवीकरण की रणनीति का सहारा लेती है तो शायद यह उसके लिए मुनासिब हो। गौरतलब है कि भाजपा अध्यक्ष ने सबसे पहले जयपुर की सभा में ही कहा था, “लाखों घुसपैठिए दीमक की तरह विकास चट कर जा रहे हैं। भाजपा उन्हें निकाल बाहर करेगी।”
लेकिन किसानों की नाराजगी से वसुंधरा सरकार दो-चार है और युवाओं में बेरोजगारी का दंश भी तगड़ा है। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें भी महंगाई बढ़ा रही हैं। गुर्जर आरक्षण की मांग का भी मुख्यमंत्री कोई संतोषजनक हल नहीं ढूंढ पाई हैं। प्रदेश में जाटों, राजपूतों और अनुसूचित जातियों में भी सरकार से नाराजगी बताई जाती है। इन सबसे कांग्रेस को बाजी अपने हक में लग रही है। लेकिन प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच कैसा समीकरण बैठ पाता है, इसी पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस की गाड़ी कितनी सरपट दौड़ेगी। फिलहाल तो राहुल गांधी ने गहलोत को महत्वपूर्ण केंद्रीय जिम्मेदारी देकर इस टकराव का हल निकालने की कोशिश की है लेकिन असली परीक्षा उम्मीदवारों के चयन के वक्त होगी। बसपा से कांग्रेस का गठबंधन न होने का शायद खास असर यहां न पड़े क्योंकि उसका जनाधार राजस्थान में ज्यादा नहीं रहा है।
छत्तीसगढ़ में जरूर बसपा के अजीत जोगी के छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) से गठजोड़ करने का फर्क कांग्रेस को महसूस हो सकता है। दरअसल, इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से गठजोड़ की बात मुआफिक न बैठने पर बसपा प्रमुख मायावती ने सबसे पहले अजीत जोगी की पार्टी से अपने गठबंधन का ऐलान किया। उन्होंने कहा, “कांग्रेस भ्रम में है कि वह अकेले भाजपा को हरा देगी।” छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री और सतनामी समाज से ताल्लुक रखने के कारण अजीत जोगी के असर से भाजपाई मुख्यमंत्री रमन सिंह भी इनकार नहीं करते हैं। वे एकाधिक बार कह चुके हैं कि जोगी महत्वपूर्ण नेता हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस से मामूली बढ़त ही भाजपा ले पाई थी। इसलिए अजीत जोगी और बसपा का तीसरा मोर्चा जितने वोट काटेगा, उससे कांग्रेस को ही नुकसान होने का अनुमान है। यह गणित भाजपा के लिए मुफीद बैठ सकता है।
कांग्रेस को कोई बड़ा चेहरा न होने का भी नुकसान झेलना पड़ सकता है। उसके प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल कथित तौर पर भाजपा के एक मंत्री के सीडी कांड में अपनी गिरफ्तारी से सहानुभूति पैदा होने की उम्मीद कर रहे हैं। कांग्रेस को उम्मीद है कि तीन बार के मुख्यमंत्री के खिलाफ सरकार विरोधी रुझानों का भी फायदा मिलेगा, इसलिए वह नारा दे रही है ‘वक्त है बदलाव का।’
इस नारे को कांग्रेस सबसे अधिक उछाल रही है मध्य प्रदेश में, जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी चौथी पारी के लिए काफी पहले से ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के जरिए लगातार पूरे प्रदेश के दौरे पर हैं। शिवराज को मंदसौर में किसानों पर पुलिस गोलीकांड के बाद से ही शायद यह एहसास हो गया था कि किसानों की नाराजगी को दूर किए बिना उनकी राह आसान नहीं होगी। इसीलिए वे भावांतर योजना ले आए और कई कल्याणकारी कार्यक्रमों की बरसात कर दी। आदिवासी और दलितों को जमीन और आवासीय पट्टे बांटने के कार्यक्रम भी चलाए।
लेकिन खासकर, भिंड-मुरैना क्षेत्र में पिछले 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान हिंसा से दलित नाराजगी का जो गुबार उठा था, उससे पार पाना शिवराज के लिए आसान नहीं है। इसी नाराजगी को देखते हुए बसपा ने कांग्रेस से गठबंधन के लिए अपने दांव ऊंचे कर दिए थे। 2013 के विधानसभा चुनाव में उसे भले चार सीटें मिली हों मगर, करीब 22 सीटों पर उसे 10,000 के करीब वोट मिले थे। इससे वह करीब 30 सीटें चाह रही थी, लेकिन बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ, “हम 15-16 सीटें देने को तैयार थे। पर अधिक सीटें देते और बसपा जीत न पाती तो भाजपा को ही फायदा होता।” हालांकि पार्टी के मुख्यमंत्री पद के चेहरे ज्योतिरादित्य सिंधिया अभी भी तालमेल की उम्मीद कर रहे हैं। आखिर उनके ग्वालियर-भिंड-मुरैना क्षेत्र में बसपा की दावेदारी जो अधिक है। मगर, कांग्रेस सवर्णों में भाजपा से नाराजगी का भी लाभ लेना चाहती है। शायद इसी वजह से राहुल गांधी ने कहा कि “बसपा से गठजोड़ न होने का खास फर्क नहीं पड़ेगा।”
बहरहाल, लड़ाई दिलचस्प है और हालात जो हैं, उसमें वाकई यह 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले सेमीफाइनल होने जा रहा है।