हमारी सभ्यता और संस्कृति को धारण करने वाली गंगा को बचाने के लिए हाल में प्रख्यात पर्यावरण-प्रेमी जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी सानंद के 86 वर्ष की उम्र में 111 दिनों के उपवास के बाद पुलिस हिरासत में अस्पताल में जैसे प्राण पखेरू उड़ गए, वह आज उस महा नदी के प्रति ‘संवेदनशीलता’ का आईना है। यह ‘संवेदनशीलता’ कथित तौर पर गंगा के पुनर्जीवन के लिए नमामि गंगे परियोजना में करोड़ों रुपये स्वाहा करती है और उसके नाम पर देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं को लुभाकर सत्ता तो प्राप्त करती है मगर, गंगा पर बने बांधों और पनबिजली परियोजनाओं पर अंकुश लगाकर गंगा को पुनर्जीवित करने की मांग करने पर मौत को गले लगाने पर मजबूर करती है। कम से कम स्वामी सानंद के आश्रम के लोगों का तो यही आरोप है कि आश्रम में 144 धारा लगाकर उन्हें जबरन अस्पताल ले जाया गया, जबकि उसके पहले तक वे एकदम सचेत लग रहे थे। आश्रम के लोग इसे ‘हत्या’ से कम मानने को तैयार नहीं हैं। जो भी हो, इसके पहले उनके अनशन को तुड़वाने के लिए पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन किया था। काश! यह सरकार भी कुछ ‘संस्कृति धर्म’ का पालन कर पाती।
ऐसे दौर में भी गंगा ‘हांफती-सूखती’ बहती हुई मानो संस्कृति को धारण करने की अपनी शपथ निभाती जा रही है। यह मार्मिक तस्वीर प्रसिद्ध लोक गायक भूपेन हजारिका के उस विडंबनापूर्ण गीत की याद दिला देती है, ‘ऐ गंगा! तुम बहती हो क्यों।’ यह मौके पत्रकार और गंगा किनारे के बाशिंदे अमरेंद्र कुमार राय की किताब गंगा तीरे को और मौजूं बना देते हैं। गंगा का हृदयविदारक दर्द उनके यहां इस रूप में प्रकट होता है, “बांधों से निकलती मरियल-सी पतली धारा को देख रावण-राज का वह दृश्य प्रासंगिक हो उठता है कि देवता कैसे उसके दरबार में चवर डुलाया करते थे।” राम जाने, रावण-राज के इस अाख्यान के क्या मायने हैं और आज के दौर के लिए वह कितना मुफीद है। लेकिन कुछ मौजूदा विश्लेषकों के मुताबिक आज का तंत्र उस महादैत्य जैसा है जिसके लिए नव-पूंजीवादी तंत्र की राह में आने वाला सभी कुछ अतिक्रमण जैसा है।
हालांकि लोकतंत्र की मजबूरियां उसे मानवीय चेहरा अपनाने पर मजबूर करती हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि पिछली सदी में अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों से लेकर अब तक गंगा के पुनर्जीवन पर करोड़ों खर्च होते रहे और गंगा को बांधने की भी अनगिनत योजनाओं को मंजूरी भी दी जाती रही!
बहरहाल, गंगा तीरे एक विशद यात्रा भी है और एक संस्मरण भी, जो उस संस्कृति की धारिणी ‘पवित्र’, ‘पूज्य’ नदी के पौराणिक अाख्यान से लेकर मौजूदा समय में उसकी दशा-दिशा का ऐसा ब्योरा है, जो विरले ही मिलता है। गंगा तीर के निवासी अमरेंद्र को गंगा ने अपने मोह पाश में ऐसे लिया कि उन्होंने अपने जीवन का एक लक्ष्य इस महा नदी के गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक की यात्रा को बनाया।
गंगा के मनोरम सौंदर्य, उसकी करीब 2,500 किमी. से अधिक के यात्रा पथ के किनारे लोक संस्कृतियों का भी भरापूरा आख्यान है। यह भी कि अलग-अलग हिस्से में गंगा का नाम कैसे बदलता है, उसके किनारे ग्राम्य सभ्यताओं का क्या स्वरूप है और साधु-संन्यासियों की कैसी विविध रंगत दिखती है, यह सब कुछ गंगा तीरे आपको बताती चलती है।
अंत में इसकी भाषा पर न कुछ कहने से मामला अधूरा रह जाता है। प्रांजल और धारामयी भाषा गंगा के आख्यान को और रसभरी बना देती है। यहां एक बात का जिक्र करना गैर-मुनासिब नहीं कहलाएगा कि गंगा में पलने वाले जल जीवों का भी कोई ऐसा ही आख्यान आए तो गंगा की महिमा का स्मरण और धारदार बनेगा। गंगा की सवारी घड़ियाल और गंगा डाल्फिन अब लुप्तप्राय होते जा रहे हैं। बिलाशक, यह किताब गंगा महिमा में अपना अलग स्थान रखती है। यह पुस्तक बताती है कि गंगा सिर्फ एक नदी नहीं बल्कि संस्कृति की वाहक है। यह मात्र जलधारा नहीं लोक समाज की प्रतीक है।