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सीबीआइ संकट के लंबे होते साए

संकट सिर्फ देश की प्रमुख जांच एजेंसी तक ही सीमित नहीं, आइबी, ईडी समेत तमाम आंतरिक सुरक्षा तंत्र भी इसके लपेटे में
दो के झगड़े में बंटाढारः लंबी छुट्टी पर भेजे गए सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा (बाएं),  और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना

अजीब संयोग या विडंबना है कि सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण बतौर स्टेच्यू ऑफ यूनिटी (अमेरिका में स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की तर्ज पर!) जब किया गया, उससे पहले ही आजादी के वक्त सर्वोच्च पदों पर कदाचार और भ्रष्टाचार की जांच-पड़ताल के लिए बनाई उनकी एजेंसी की यूनिटी आरोपों और आपसी रंजिशों के विस्फोट से थर्रा उठी। उसका समूचा ढांचा ऐसे नेस्तनाबूद हो आया है कि नया ढांचा खड़ा कर पाना असंभव-सा जान पड़ने लगा है। यह सब देखकर अवाक रह गए, देश में आंतरिक सुरक्षा के शिखर पर रह चुके एक पूर्व आइपीएस कहते हैं, “अब तो कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती। साख तो लुटी ही, पूरी संस्‍था को ही मिट्टी में मिला दिया गया।”

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) के अपने हितों को साधने के लिए सत्ताधीशों द्वारा इस्तेमाल और अफसरों के घोटालों-घपलों तथा भ्रष्टाचार-कदाचार की खबरें तो हर दौर, खासकर 1970 के बाद के दशकों में कई बार उभरीं। सुप्रीम कोर्ट को उसकी स्वायत्तता और निष्पक्षता को बरकरार रखने के लिए कई-कई बार दिशा-निर्देश जारी करने पड़े और नई व्यवस्‍थाएं बनानी पड़ीं। लेकिन ऐसा मुकाम तो आजादी के बाद पहली बार नमूदार हुआ, जब सिर्फ सीबीआइ ही नहीं, सीवीसी, आइबी, ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) यानी आंतरिक सुरक्षा का समूचा तंत्र लाइलाज कलह से चूर-चूर होता दिख रहा है। नजारा ऐसा है जैसे कोई एक चिंगारी उठी तो दावानल-सा भड़क उठा।

दावानल की ही तरह इसके ब्यौरे भी बेपनाह हैं। जितने मुंह, उतनी बातें। कुछ आधिकारिक तो ज्यादातर अनधिकारिक मगर उन पर भरोसा न कर पाने की भी वजहें थोड़ी हैं। तो, आइए पहले सीबीआइ में उस आधी रात के कायापलट की तरह-तरह की कहानियां जानें, जिनके आगे हॉलीवुड का कोई थ्रिलर भी मात खा जाए।

अक्टूबर की शाम से ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में प्रधानमंत्री के करीबी अफसरों, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के.वी. चौधरी वगैरह के बीच लंबी बैठक शुरू होती है। करीब 12 बजे तय होता है कि सीबीआइ के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्‍थाना को रवाना किया जाए। रात 1 बजे के आसपास सीवीसी की सिफारिश के आधार पर प्रधानमंत्री की अगुआई में नियुक्ति समिति आदेश जारी करती है कि वर्मा और अस्‍थाना को तुरंत प्रभाव से लंबी छुट्टी पर भेजा जाए और एजेंसी का कार्यभार तीसरे पायदान के संयुक्त निदेशक एम. नागेश्वर राव को सौंप दिया जाए। रात 2 बजे दिल्ली के सीजीओ कांप्लेक्स में सीबीआइ के मुख्यालय पर पुलिस का तगड़ा पहरा बैठा दिया जाता है और 11वीं मंजिल पर निदेशक तथा विशेष निदेशक के कमरे सील कर दिए जाते हैं। नागेश्वर राव पद संभाल लेते हैं। वे फौरन वर्मा और अस्‍थाना की टीम के कुल 13 अधिकारियों का तबादला कर देते हैं। लगभग इतने ही अधिकारियों को सीबीआइ में लाया जाता है। यह सब कुछ सुबह की किरणें तेज होने यानी 24 अक्टूबर को 8-9 बजे के पहले ही हो जाता है। पुलिस को यह भी निर्देश दे दिया जाता है कि वर्मा, अस्‍थाना और तबादला किए गए अधिकारियों को मुख्यालय में न घुसने दिया जाए।

अब इसका दूसरा पहलू देखिए। सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा की मेज पर राफेल सौदे के साथ जो सात मामलों की फाइलें कथित तौर पर थीं, उनमें एक मामला कोयला ब्लॉक आवंटन में कथित घोटाले से संबंधित भी था, जिसमें अब प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात भास्कर खुल्बे से पूछताछ की तैयारी चल रही थी। इस कहानी के मुताबिक 24 अक्टूबर की सुबह सीबीआइ के संयुक्त निदेशक ए.के. शर्मा की अगुआई में एक टीम खुल्बे के यहां छापा मारने की योजना बना चुकी थी। इसकी भनक लगते ही रात में फेरबदल की योजना तैयार की गई। शर्मा का भी तबादला कर दिया गया। शर्मा भी अस्‍थाना की तरह गुजरात काडर के अधिकारी हैं लेकिन उनसे अस्‍थाना की पुरानी अदावत बताई जाती है।

इस आधी रात के फेरबदल की एक और कहानी है। इसे कांग्रेस भी बता रही है और प्रशांत भूषण जैसे वकील भी कह रहे हैं। इसके मुताबिक 4 अक्टूबर को प्रशांत भूषण और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए-1 सरकार के पूर्व मंत्रियों अरुण शौरी तथा यशवंत सिन्हा ने राफेल विमान सौदे में घोटाले से संबंधित कागजात वर्मा को सौंपे थे। इसमें बकौल प्रशांत भूषण, “करीब 46 दस्तावेज एनेक्सर के रूप में जुड़े थे जिनमें भ्रष्टाचार के पुख्ता सबूत हैं।” कथित तौर पर वर्मा ने इस पर पहल शुरू कर दी थी और दस्तावेजों को प्रमाणित करने के लिए रक्षा मंत्रालय को चिट्ठी लिखी थी। फिर 22 अक्टूबर को प्रधानमंत्री ने वर्मा को बुलाया। लेकिन वर्मा की जांच करने की मंशा भांपकर रात में फेरबदल किया गया, ताकि राफेल सौदे पर कोई आगे पहल न हो सके। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पहले ट्वीट करके और बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “जो भी राफेल सौदे के बीच में आएगा, खत्म कर दिया जाएगा, मिटा दिया जाएगा।”

इन कहानियों में सच चाहे जो हो मगर इतना तो स्पष्ट है कि मामला सिर्फ वर्मा और अस्‍थाना के आपसी झगड़े तक सीमित नहीं है। चारा घोटाले, 2002 के गुजरात दंगे, अहमदाबाद में अक्षरधाम पर हमले जैसे मामलों की जांच से जुड़े रहे 1984 बैच तथा गुजरात काडर के आइपीएस राकेश अस्‍थाना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का करीबी माना जाता है (देखें बॉक्स)। अस्‍थाना इधर राजद प्रमुख लालू यादव के खिलाफ रेल मंत्री रहते आइआरसीटीसी होटल मामले, विजय माल्या और नीरव मोदी तथा मेहुल चोकसी के मामले भी देख रहे थे। माल्या के प्रत्यर्पण के मामले में ब्रिटेन की अदालत में पैरवी के दौरान वे लंदन प्रवास में भी रहे। इसके अलावा अस्‍थाना अगस्ता वेस्टलैंड मामले की भी जांच कर रहे थे जिसमें कांग्रेस के बड़े नेताओं की कथित शिरकत थी।

 

झगड़े की जड़ः हिरासत में अरबपति मांस निर्यातक मोइन कुरैशी (बाएं)

कहा यह जाता है कि 1979 बैच के एजीएमयूटी काडर के आइपीएस वर्मा विपक्षी नेताओं के खिलाफ जिस तरह मामले चलाए जा रहे थे, उसे प्रक्रियाओं के अनुरूप नहीं मानते थे। फिर, अस्‍थाना जिस तरह उनकी संस्तुति के बिना अधिकारियों को अपने तईं ही निर्देश दे रहे थे, उसे भी वर्मा अपने अधिकारों में अतिक्रमण मानते थे। लेकिन दोनों की टकराहट खुलकर पिछले साल तब शुरू हुई जब वर्मा ने सीवीसी को लिखा कि अस्‍थाना के खिलाफ 5,000 करोड़ रुपये के स्टर्लिंग बॉयोटेक घोटाले में अस्‍थाना की जांच चल रही है इसलिए उनकी पदोन्नति न की जाए। इस दवा कंपनी के प्रमोटर चेतन संदेसरा और उनके परिवार से अपने रिश्तों के बारे में अस्‍थाना इनकार नहीं करते। संदेसरा हाल में ही किसी अफ्रीकी देश में जा बसा है और उसे भगोड़ा बताया जा चुका है। अस्‍थाना पर अपनी बेटी की शादी में संदेसरा की 'मेहमाननवाजी' स्वीकार करने के भी आरोप हैं। हालांकि सीवीसी ने तब वर्मा की आपत्तियों को खारिज कर दिया था।

फिर, अस्‍थाना ने 24 अगस्त को कैबिनेट सचिव को एक पत्र में वर्मा और ईडी के संयुक्त निदेशक राजेश्वर सिंह पर आरोप लगाया कि ये दोनों उनकी छवि खराब करने के लिए गैर-सत्यापित कागजात को आधार बना रहे हैं। अस्‍थाना ने उस पत्र में मांस निर्यातक मोइन कुरैशी मामले का भी जिक्र किया और आरोप लगाया कि हैदराबाद के एक व्यापारी सना सतीश बाबू ने कार्रवाई से बचने के लिए वर्मा को 2 करोड़ रुपये की रिश्वत दी। मगर बाद में सना सतीश बाबू पलट गए या कहिए कि वर्मा के निर्देश पर सीबीआइ के संयुक्त निदेशक ए.के. शर्मा की अगुआई में पूछताछ के दौरान बयान दिया कि दरअसल अस्‍थाना ने ही मामले से बरी करने के लिए 3 करोड़ रुपये की रिश्वत ली। इसी आधार पर सीबीआइ ने 15 अक्टूबर को अस्‍थाना और उनके कुछ साथियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की। फिर, 16 अक्टूबर को सीबीआइ ने दुबई में वित्तीय सेवा कंपनी क्यू कैपिटल के सीईओ मनोज प्रसाद को गिरफ्तार किया। मनोज और उसके भाई सोमेश ने कथित तौर पर रिश्वत की रकम देने में वाहक की भूमिका निभाई थी। आखिर 23 अक्टूबर को एफआइआर के आधार पर शर्मा और उनके साथ डिप्टी एसपी ए.के. बस्सी ने सीबीआइ दफ्तर पर ही छापा मारकर अस्‍थाना की टीम के डिप्टी एसपी देवेंद्र कुमार को गिरफ्तार कर लिया।

बस क्या था, 23 अक्टूबर को तो मानो पीएमओ और केंद्र सरकार ने मान लिया कि अब इंतहा हो गई और फेरबदल कर दिया गया। 24 अक्टूबर को ही वर्मा ने खुद को पद मुक्त करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनकी दलील थी कि सीबीआइ के गठन के कानून दिल्ली पुलिस स्पेशल स्टेबलिशमेंट एक्ट और विनीत नारायण मामले में 1997 के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक सीबीआइ निदेशक के खिलाफ कोई कार्रवाई विशेष नियुक्ति समिति ही कर सकती है, जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता सदस्य होते हैं। वर्मा के मुताबिक इस मामले में इस अनिवार्य शर्त का पालन नहीं हुआ है। उसके अगले दिन एनजीओ कॉमन कॉज की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने भी एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में डाली कि अस्‍थाना के खिलाफ मामले की जांच प्रभावित नहीं होनी चाहिए।

इन याचिकाओं के बाद सीबीआइ ने सफाई दी कि वर्मा और अस्‍थाना को सिर्फ छुट्टी पर भेजा गया है, ताकि दोनों के खिलाफ जांच निष्पक्ष हो सके। जाहिर है, यह बयान अगले दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई को ध्यान में रखकर दिया गया था। 26 अक्टूबर को प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस.के. कौल और न्यायमूर्ति के.एम. जोसफ की पीठ ने सीवीसी को दो हफ्ते के भीतर वर्मा के खिलाफ जांच निपटाने का निर्देश दिया और उसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज ए.के. पटनायक को सौंप दी। इसके अलावा अदालत ने अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव को भी सिर्फ रोजमर्रा के काम करने तक सीमित कर दिया और कहा कि वे कोई नीतिगत या बड़े फैसले न करें। उन्होंने जिन अधिकारियों के तबादले किए, उनके कागजात भी सीलबंद लिफाफे में फौरन अदालत में पेश करें।

उसके बाद 29 अक्टूबर को हैदराबाद के व्यापारी सतीश सना ने भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि उनकी जान को खतरा है। अदालत ने उन्हें पुलिस सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया मगर सीबीआइ को उनके मामले की जांच जारी रखने को कहा। सना के मामले को देख रहे आइओ ए.के. बस्सी का तबादला अंडमान निकोबार कर दिए जाने के बाद उनकी जगह लाए गए आइओ ने उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया। 30 अक्टूबर को बस्सी भी अपने तबादले के खिलाफ अर्जी लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। उन्होंने अर्जी में यह भी कहा कि उनकी जांच में अस्‍थाना के खिलाफ बेहद संगीन साक्ष्य मिले हैं।

घेराबंदी का मौकाः सीबीआइ मुख्यालय के बाहर कांग्रेस के प्रदर्शन में राहुल गांधी

अब सुप्रीम कोर्ट को प्रशांत भूषण की याचिका पर भी सुनवाई करनी है जिसमें सीबीआइ के अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव के खिलाफ भी कई संगीन आरोपों का जिक्र है। यानी सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ मौजूदा मामले को ही नहीं देखना है, उसे यह भी तय करना है कि देश की प्रमुख जांच एजेंसी का आखिर क्या हो? सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में सीबीआइ को राजनैतिक दखलंदाजी से मुक्त करने के कुछ निर्देश दिए थे। तब उस पीठ में न्यायमूर्ति पटनायक भी थे, जो अब सीवीसी की इस मामले में निगरानी कर रहे हैं। तब अदालत ने कहा था कि सीबीआइ उस तोते की तरह है जो पिंजरे में कैद है और अपने मालिक की बोली बोल रहा है। इसी के साथ सीबीआइ के कामकाज की निगरानी का जिम्मा प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सीवीसी को दे दिया गया था।

लेकिन अब तो, एक पूर्व अधिकारी के मुताबिक, “न सिर्फ मालिक ने तोते की गर्दन पकड़ ली है, बल्कि सीवीसी भी उसी के वश में दिखता है।” ऐसे में सुप्रीम कोर्ट जिस एजेंसी को निष्पक्ष बनाने में इतनी बार हस्तक्षेप कर चुका है, आज उसकी चूलें हिलती दिख रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो सीबीआइ में जारी जंग पर अपना मुंह खोलने से अब तक बच रहे हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ सरकार के किए पर कई तरह के अंकुश जड़ दिए हैं, बल्कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त तक की सीमाएं बांध दी हैं। सीवीसी की ओर से पेश इस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने मानने से इनकार दिया कि इससे सीवीसी संस्‍था प्रभावित होगी।

मामला गहराता जा रहा है और अदालत में रोज नई अर्जियां लगती जा रही हैं। फिर 25 अक्टूबर को वर्मा के निवास पर आइबी के अधिकारी भी निगरानी करते पकड़े गए। कांग्रेस ने सीबीआइ मुख्यालय समेत कई शहरों में प्रदर्शन किया।

असल में सीबीआइ के इस प्रकरण ने सिर्फ केंद्रीय जांच एजेंसी की ही साख मटियामेट नहीं की, बल्कि सीवीसी की भी साख पर सवालिया निशान लगा दिया। सीवीसी संस्‍था का गठन भी राजनैतिक नेतृत्व और कार्यपालिका के पद के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने के लिए किया गया था। लेकिन इस प्रकरण ने उसकी उस भूमिका पर ही संदेह कायम कर दिया। आखिर सीवीसी अगर अस्‍थाना की वर्मा के खिलाफ शिकायत पर समय रहते गौर कर लेती तो शायद ये हालात पैदा नहीं होते। लेकिन पता यह भी चल रहा है कि वह कथित तौर पर आलोक वर्मा को फंसाने की साजिश का हिस्सा थी और उसके लिए सबूत अभी जुटाए ही जा रहे थे। इसकी भनक आलोक वर्मा को लग गई तो उन्होंने उसी गवाह कथित तौर पर हैदराबाद के व्यापारी पर डोरे डाले, उसे पकड़ा तो उसने उलटा बयान दिया जिसे वर्मा ने अस्‍थाना और उनके साथ के अफसरों पर एफआइआर का आधार बनाया। यही नहीं, इस कहानी के लपेटे में ईडी के अधिकारी भी हैं।

यानी इन संस्‍थाओं के राजनैतिक दुरुपयोग का जो आरोप विपक्ष लंबे समय से लगाता आ रहा था, वह लगभग खुलकर सामने आ गया। लिहाजा, सरकार की विश्वसनीयता पर भी गहरे सवाल खड़े हो गए हैं। यह आरोप भी साबित होने लगा है कि कैसे पीएमओ में ही सारी शक्तियां सिमट गई हैं। पीएमओ ही सारे निर्णय ले रहा है और वह उन मर्यादाओं का भी पालन नहीं कर रहा है जो कानूनन बेहद जरूरी हैं। मसलन, सीबीआइ निदेशक को ही छुट्टी पर भेजने से पहले नियुक्ति समिति से सलाह ली जानी थी जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायाधीश हैं। इसके मायने तो हैं कि शक्तियों के केंद्रीकरण से न सिर्फ लोकतंत्र बदहाल होता है, बल्कि विकास भी अवरुद्घ या एकतरफा होता है। इसके नजारे संस्‍थाओं की बदहाली के रूप में दिख रहे हैं। रोज नए खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में उम्मीद सिर्फ न्यायपालिका से है कि संस्‍थाओं की स्वायत्तता बहाल करके लोकतंत्र को पटरी पर लाए।

जांच एजेंसी में उबाल

बीते छह साल में सीबीआइ को शर्मसार करने वाली घटनाएं

2013 (पिंजरे का तोता) ः यूपीए के मंत्री ने हलफनामा देखा तो पूर्व प्रधान न्यायाधीश लोढ़ा ने सीबीआइ को “मालिक की बोली रटने वाला तोता”  बताया

2014 (सीबीआइ निदेशक की छुट्टी) ः निदेशक रंजीत सिन्हा को सीबीआइ ने 2जी मामले की जांच से “दूर रहने” को कहा

2014 (चयन प्रक्रिया) ः लोकपाल एक्ट से निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया बदली, सीवीसी के बदले प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सीजेआइ की चयन समिति बनी

2016 (विजय माल्या लुकआउट नोटिस) ः सीबीआइ ने पहले विजय माल्या के खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी किया और फिर इसे बदल दिया गया

2016 (बंसल की खुदकुशी) ः कॉरपोरेट मामलों के पूर्व डीजी बी.के. बंसल और उनके बेटे ने सीबीआइ पर प्रताड़ित करने का आरोप लगा खुदकशी की

2016 (निदेशक नियुक्ति) ः दो दिन पहले स्पेशल डायरेक्टर आर.के. दत्ता का तबादला। सरकार अस्थाना को डायरेक्टर बनाना चाहती थी, लेकिन वर्मा की नियुक्ति हुई

2017 (डायरेक्टर फिक्सिंग) ः सीबीआइ के पूर्व प्रमुख ए.पी. सिंह पर मीट एक्सपोर्टर मोइन कुरैशी के मामलों का ‘निपटारा’ करने के आरोप लगे

2018 (आपसी कलह) ः वर्मा और अस्थाना ने एक-दूसरे पर आरोप मढ़े। अस्‍थाना के खिलाफ एफआइआर। दोनों को ‘जबरन छुट्टी’ पर भेज दिया

नाटकीय किरदार 

एम. नागेश्वर राव (हॉट सीट पर) : 1986 बैच के ओडिशा काडर के आइपीएस अधिकारी राव को अब सीबीआइ का अंतरिम प्रमुख बनाया गया है। अविभाजित आंध्र प्रदेश के वारंगल में जन्मे राव एजेंसी में संयुक्त निदेशक हैं। उस्मानिया विश्वविद्यालय से केमिस्ट्री में पोस्ट ग्रेजुएट राव पहले ऐसे आइपीएस अधिकारी हैं जिन्होंने ओडिशा में आपराधिक मामले की जांच के लिए डीएनए फिंगर प्रिंटिंग का इस्तेमाल किया।

सामंत गोयल, (शिकारी बना शिकार!) : रॉ का अगला मुखिया बनने के दावेदार इस अधिकारी का नाम अब सीबीआइ की एफआइआर में है। मोटे तौर पर जांच एजेंसी पश्चिम एशिया की गतिविधियों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उन पर ही आश्रित थी। उन पर रॉ के एक पूर्व अधिकारी के रिश्तेदार के जरिए अस्थाना को रिश्वत देने का आरोप है।

ए.के. शर्मा (वर्मा के साथी) : गुजरात काडर के अधिकारी शर्मा की अपने ही काडर के अस्थाना से पुरानी अदावत रही है। अस्थाना ने उन्हें सीबीआइ में संयुक्त निदेशक (पॉलिसी) बनाने से इनकार कर दिया था, लेकिन वर्मा ने उन्हें पद दिया। वे पहले गुजरात पुलिस की इंटेलिजेंस विंग के प्रमुख थे और इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ मामले में आरोपों का सामना कर चुके हैं।

राजेश्वर सिंह (संदेह के घेरे) : जब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में 2जी मामले की जांच चल रही थी तब शायद ही कोई दिन बीता हो जब ईडी के संयुक्त निदेशक सिंह के नाम का जिक्र नहीं हुआ हो। उन्हें ईडी प्रमुख का भरोसा हासिल है, लेकिन साथ में कई दुश्मन भी बन गए।

देवेंद्र कुमार (बिचौलिया या बलि का बकरा?) : अस्थाना के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सीबीआइ ने डीएसपी कुमार को गिरफ्तार किया है। कुमार पर अस्थाना की ओर से रिश्वत लेने का आरोप है। सूत्रों का कहना है कि कुरैशी से जुड़े मामले में एक ही तरह के सवाल पूछने के लिए उन्होंने गवाह को 50 बार बुलाया था।

एके बस्सी (तबादले की गाज) : अस्थाना के खिलाफ जांच का जिम्मा वर्मा ने सीबीआइ के डिप्टी एसपी एके बस्सी को सौंपा। उनका दावा है कि रिश्वत लेने के मामले में अस्थाना के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं। उनका तबादला पोर्टब्लेयर कर दिया गया। तबादले को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है।

सना सतीश बाबू (जिसने बहुत कुछ उगला) : अस्थाना और उनकी टीम पर लगे आरोपों के केंद्र में हैदराबाद का बिजनेसमैनबाबू है। अस्थाना के खिलाफ सीबीआइ एफआइआर में उसका नाम गवाह के तौर पर दर्ज है। यह मोइन कुरैशी से रिश्वत लेने के आरोपी पूर्व निदेशक ए.पी. सिंह के खिलाफ मामले के विस्तार जैसा है।

जासूसी का पेचः सीबीआइ निदेशक वर्मा के घर के पास पकड़े गए आइबी अधिकारी

वर्मा के पास सात मामले

 सीबीआइ के निदेशक अलोक वर्मा को जब छुट्टी पर भेजा गया तब उनके पास कथित तौर पर इन सात महत्वपूर्ण मामलों की फाइलें थींः

-सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि राफेल फाइटर प्लेन सौदे के मामले में शिकायत की जांच प्रक्रिया चल रही थी और इस बारे में निर्णय लिया जाना था। आलोक वर्मा को चार अक्टूबर को पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी तथा वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने 132 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी।

-मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में भ्रष्टाचार के मामले में उच्च स्तर पर मौजूद लोगों की भूमिका की जांच चल रही थी। इसमें ओडिशा हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आइएम कुद्दुसी का भी नाम था। सूत्रों के अनुसार कुद्दुसी के खिलाफ चार्जशीट की तैयारी कर ली गई थी और उस पर वर्मा के दस्तखत होने बाकी थे।

-इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीश एसएन शुक्ला को मेडिकल एडमिशन में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते छुट्टी पर भेज दिया गया था। सूत्रों के अनुसार इस मामले में प्राथमिक जांच पूरी कर ली गई थी और सिर्फ आलोक वर्मा के हस्ताक्षर की जरूरत थी।

-भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के सीबीआइ को सौंपे वो दस्तावेज भी शामिल हैं, जिनमें उन्होंने वित्त एवं राजस्व सचिव हंसमुख अढिया के खिलाफ शिकायत की थी।

-कोयले की खदानों के आवंटन मामले में प्रधानमंत्री के सचिव भास्कर खुल्‍बे की संदिग्ध भूमिका की जांच की जा रही थी।

-नौकरी के लिए नेताओं और अधिकारियों को रिश्वत देने के संदेह में दिल्ली के एक बिचौलिये के घर पर छापा मारा गया था। इस मामले की भी जांच चल रही है।

-संदेसरा और स्टर्लिंग बायोटेक मामले की जांच पूरी होने वाली थी। इसमें सीबीआइ के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना की कथित भूमिका की जांच की जा रही थी।

साथ में प्रशांत श्रीवास्तव और अजीत झा

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